हर व्यक्ति को जीवन में निराशा एवं प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना ही पड़ता है, लेकिन सफल और सार्थक जीवन वही है जो सफलता और असफलता, अनुकूलता और प्रतिकूलता, दुख और सुख, हर्ष और विषाद के बीच संतुलन स्थापित करते हुए अपने चिंतन की धारा को सकारात्मक बनाए रखता है। जीवन की समग्र समस्याओं का समाधान व्यक्ति चिंतन के द्वारा खोज सकता है। समस्याएं चाहे व्यक्तिगत जीवन से संबंधित हों, पारिवारिक जीवन से संबंधित हों या फिर आर्थिक हों। इन प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष कर रहे व्यक्ति का यदि नकारात्मक चिंतन होगा तो वह भीतर ही भीतर टूटता रहेगा, नशे की लत का शिकार हो जाएगा और अपने जीवन को अपने ही हाथों बर्बाद कर देगा। जो व्यक्ति इन प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझ नहीं पाते वे आत्महत्या तक कर लेते हैं या परहत्या जैसा कृत्य भी कर बैठते हैं। कुछ व्यक्ति इन परिस्थितियों में असामान्य हो जाते हैं।
ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों में स्वयं के जीवन को और अधिक जटिल बना देता है। प्रतिकूल परिस्थितियों के अनेक कारण हो सकते हैं जिसमें पारिवारिक कारण, आर्थिक कारण, सामाजिक कारण आदि प्रमुख हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में व्यक्ति अपना संतुलन कैसे बनाए रख सकता है यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। किसी नियमित काम के छूट जाने की वजह से टूटने और उससे दूर भागने के बजाय आवश्यकता है नई शुरुआत किये जाने की। जब हम अपनी परेशानियों का सामना करेंगे तो इस प्रयोग एवं प्रशिक्षण से हम उनका मुकाबला करने का तरीका भी निकाल ही लेंगे। कैलिफोर्निया के जेन हैबिट्स की प्रतिकूल परिस्थितियों से कैसे कामना किया जाये विषय पर कई किताबें आ चुकी हैं। वे कहते हैं कि जब कभी भी मैं दिमागी परेशानी, तनाव, गुस्सा, दर्द, अनिश्चितता और असहजता की स्थिति से गुजरता है तो मैं उसे बड़ी सजगता से नियंत्रित करने का प्रयास करता हूं और इस कोशिश में मैंने एक गहरी बात खोज निकाली है। ज्यादातर लोग उसे बुरी खबर के रूप में लेते हैं, लेकिन वह वास्तव में अच्छी खबर है कि अपनी असफलताओं, शिकायतों, गुस्सा, कुंठा के क्षणों को दिमाग के खूबसूरत अभ्यास क्षेत्र के रूप में देखें।
जीवन का एक बड़ा सत्य है कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी व्यक्ति सामान्य रूप से जीवनयापन कर सकता है। आवश्यकता है मानसिक संतुलन बनाए रखने की। सकारात्मक चिंतन वाला व्यक्ति इन्हीं परिस्थितियों में धैर्य, शांति और सद्भावना से समस्याओं को समाहित कर लेता है। समस्याओं के साथ संतुलन स्थापित करता हुआ ऐसा व्यक्ति जीवन को मधुरता से भर लेता है। सकारात्मक चिंतन के माध्यम से इच्छाशक्ति जागती है। तीव्र इच्छाशक्ति से ही व्यक्ति आगे बढ़ता है और प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बना लेता है। किसी कार्य के लिए उसे कितना भी संघर्ष करना पड़े, वह कार्य कितना भी मुश्किल क्यों न हो, परिस्थितियां चाहे कितनी भी जटिल क्यों न हो? संकल्प और इच्छाशक्ति से वह उसमें सफल हो जाता है। बार-बार उन परिस्थितियों के बारे में न सोचते हुए एक आशावादी दृष्टिकोण रखने वाला व्यक्ति इन परिस्थितियों से छुटकारा पा सकता है। कोई आपको नीचा दिखा रहा है तो भी अपना उत्साह बनाए रखें। अपनी कुंठा और हताशा में भी लोग दूसरों को दुख देने लगते हैं। इसलिए उपचार की जरूरत उन्हें है, आपको नहीं। ब्लॉगर मार्क शेरनॉफ कहते हैं, ‘अधिकतर लोग जो कर रहे होते हैं, वे आपके कारण नहीं, अपने कारणों से ऐसा करते हैं। यह आपका जीवन है और यही जीवन है। दुखी ना हों, अपना काम करते रहें।’
नकारात्मक चिंतन वाला व्यक्ति परिस्थितियां प्रतिकूल होते ही सोचेगा कि इन परिस्थितियों में कार्य नहीं किया जा सकता जो व्यक्ति अपने संकल्प से शिथिल हो जाते हैं वेे कभी भी सफल नहीं हो सकते। प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच असंतुलन से हमारे शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर होता है। हम स्वभाव में आवेग, आवेश, क्रोध, ईष्र्या, द्वेष, घृणा और उदासीनता की वृद्धि होती है। एक के बाद एक कार्य बिगड़ सकते हैं और उस स्थिति में कोई सहायक भी नहीं होता। असहाय बना हुआ व्यक्ति बद से बदतर स्थिति में चला जाता है। आज की युवा पीढ़ी अपने कैरियर को संवारने के लिए संघर्षरत है। इस संघर्ष में जब उन्हें सफलता मिलती है तो वह अपने आपको आनंदित महसूस करती है। उसमें नई ऊर्जा, नई स्फूर्ति का संचार होने लगता है जबकि देखने में आता है कि असपफल होने पर युवा मानस जल्दी ही संयम, धैर्य और विवेक खो देता है। प्रतिकूलता और उदासीनता के उन क्षणों में इन पंक्तियों को बार-बार दोहराये-‘‘कल का दिन किसने देखा, आज के दिन को खोयें क्यों? जिन घड़ियों में हंस सकते हैं उन घड़ियों में रोये क्यों?’’ मुझे सफल होना है, मैं अपनी प्रतिकूलताओं को दूर करने का पुनः प्रयास करूंगा। प्रतिकूल परिस्थितियों के बारे में सोचते रहने से समस्याओं का समाधान संभव नहीं है। इसे संभव बनाया जा सकता है -किंतु आवश्यक है मानसिक संतुलन बनाए रखने की, तीव्र इच्छाशक्ति, सकारात्मक और स्वस्थ चिंतन को बनाएं रखने की। मानसिक संतुलन तभी संभव है जब विचारों की उलझन को कम किया जाए, निर्वैचारिकता की स्थिति विकसित की जाए। जब विचारों की निरंतरता कम होगी व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में समायोजन कर सकता है। इस संदर्भ में एक प्रश्न उठता है कि विचारों की निरंतरता को कैसे कम किया जाए? विचारों को कम करने में योग और साधना की महत्वपूर्ण भूमिका है। यदि प्रतिदिन व्यक्ति थोड़ी-थोड़ी देर ध्यान का प्रयोग करे तो निश्चित रूप से वह अपने मानसिक संतुलन को बनाए रख सकता है एवं प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना मानसिक रूप से कर सकता है।
ध्यान का अभ्यास प्रारंभ से ही करना चाहिए ताकि किसी भी परिस्थिति में व्यक्ति तटस्थ रह सके। महान् दार्शनिक संत आचार्य श्री महाप्रज्ञ इसके लिए मानसिक संतुलन की साधना और उसके प्रयोग को उपयोगी मानते हंै। उनके अनुसार इस प्रयोग में ओम या अर्हम् की ध्वनि का भँवरे की तरह गुंजन करते हुए उसके प्रकंपनों को मस्तिष्क में अनुभव करें। दाहिने पैर के अँगूठे से मस्तिष्क तक शरीर के प्रत्येक अवयव को शिथिलता का सुझाव दे एवं शिथिलता का अनुभव करें। हरे रंग का श्वास लेते हुए अनुभव करें कि श्वास के साथ हरे रंग के परमाणु शरीर में प्रवेश कर रहे हैं। दर्शन केंद्र (दोनों भृकुटियों के बीच) पर हरे रंग का ध्यान करें। दर्शन केंद्र पर ध्यान केंद्रित कर अपने आपको सुझाव दें कि-‘आवेग अनुशासित हो रहे हैं। मानसिक संतुलन बढ़ रहा है।’ हमारी निराशाओं का बोझ केवल मन ही नहीं उठाता, हमारा शरीर भी इसे झेलता है। हम यह जानते हैं कि हमारे सपनों और खुशियों की हर राह शरीर से होकर ही गुजरती है, पर हम इसकी अनदेखी करते रहते हैं। नतीजा, मन के साथ शरीर भी चुकने लगता है। बुद्ध कहते हैं, ‘शरीर को स्वस्थ रखना हमारा कर्तव्य है। तभी मन मजबूत होगा और विचारों में स्पष्टता भी आएगी।’
‘अस्वस्थ मन शरीर को अस्वस्थ बनाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए मानसिक स्वास्थ्य बहुत जरूरी है। अस्वाभाविक आकांक्षा, असहिष्णुता, अवांछनीय घटना मन को असंतुलित बना देती है। मानसिक असंतुलन सफलता में बहुत बड़ी बाधा है। समस्या का सामना करना और मानसिक संतुलन खोना एक बात नहीं है। आप संकल्प की भाषा में सोचे कि मैं समस्या से जूझते हुए भी मानसिक संतुलन बनाए रखूँगा। मेरा विश्वास है कि ध्यान के अभ्यास के द्वारा मैं अपने मन को इतना साध लूँगा कि वह प्रतिकूल परिस्थितियों में संतुलित रह सके। अपनी कमियों को सुधारना एक बात है और उनके लिए खुद को कोसते रहना अलग। खुद को दोष देते-देते हम कब अपने दुश्मन बन जाते हैं, यह समझ नहीं आता। हम अपनी बेहतरी के लिए कोई फैसला नहीं ले पाते। लेखिका क्रिस्टीन नेफ कहती हैं कि स्व-आलोचक पूछता है, ‘क्या मैं बिल्कुल सही हूं?’ पर खुद के प्रति करुणा रखने वाला पूछेगा, ‘मेरे लिए क्या सही है?’
इस तरह के प्रयोगों के द्वारा व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना सहजता से कर स्वस्थ जीवन जी सकता है। एक बात का हमें ध्यान रखना होगा कि दुनिया में ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका समाधान नहीं है। अगर उसका समाधान नहीं है तो वह स्वयं में कोई समस्या नहीं है।
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(ललित गर्ग)
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