Saturday, November 23, 2024
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काम करके काम का श्रेय लेना गलत कैसे?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेस-वे और ईस्टर्न पेरीफेरल एक्सप्रेस-वे चिलचिलाती धूप में रोड शो के साथ लोकार्पण किया जाना स्वागतयोग्य है। इससे दिल्ली और एनसीआर की अनेक ज्वलंत समस्याओं का समाधान हो सकेगा, विशेषतः प्रदूषण से मुक्ति मिलेगी एवं यातायात सुगम होगा। इन एक्स्प्रेस वे के बन जाने से पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली एनसीआर में रहने वाले लोगों को सबसे अधिक फायदा होगा। जिन मुद्दों को उठाकर आप सरकार दिल्ली की जनता की सहानुभूति तो जुटाती रही, पर समाधान की बजाय जनता की परेशानियां बढ़ाती रही, उन जटिल से जटिल होती परिस्थितियों में मोदी सरकार ने समाधान की रोशनी दी है। आज जो देश की, समाज की स्थिति है, राष्ट्रीय एकता दिन-प्रतिदिन बिखराव की ओर है, भाईचारे की सद्भावना में ज़हर घोला जा रहा है, विकास को अवरुद्ध कर दिया गया है तब मोदी के प्रयासों को मान्यता दी गई है एवं इन प्रयासों की और अधिक आवश्यकता महसूस की गई है।

 

उपनिषदों में कहा गया है कि ”सभी मनुष्य सुखी हों, सभी भय मुक्त हों, सभी एक दूसरे को भाई समान समझें।“ यही मोदीजी कहते हैं, यही उनका मिशन है। इतिहास अक्सर किसी आदमी से ऐसा काम करवा देता है, जिसकी उम्मीद नहीं होती। और जब राष्ट्र की आवश्यकता का प्रतीक कोई आदमी बनता है तब कोई भी वाद क्यों न हो, उसका कद व्यक्ति से बड़ा नहीं होता। नरेन्द्र मोदी एक राजनीतिज्ञ की ही नहीं, एक विकास पुरुष की ही नहीं, एक राष्ट्र निर्माता की समझ रखते हैं। राजनीतिक कौशल की गंगा और पराक्रम की जमुना उनमें साथ-साथ बहती है। मोदी ने इस युग को वह दिया जिसकी उसे जरूरत है, वह नहीं जिसकी कि वह प्रशंसा करे।
इन परियोजनाओं का समय से पहले पूरा कर लिया जाना निश्चित ही सुखद है। क्योंकि यह सुखद इसलिये भी है कि दिल्ली की जनता के लिये यातायात जाम और वायु प्रदूषण की गंभीर समस्या से दो-चार होना अपनी चरम पराकाष्ठा पर पहुंच चुका था। दिल्ली के लिए इससे अच्छा और कुछ नहीं हो सकता कि उन्हें समय से पहले ही इन समस्याओं से कुछ हद तक राहत अवश्य मिल सकेगी। लेकिन दूसरी ओर, ये निराशाजनक ही है कि दिल्ली सरकार की परियोजनाओं के मामले में स्थिति बिलकुल उलट है। यातायात जाम और प्रदूषण से मुक्ति दिलाने को लेकर प्रस्तावित दिल्ली सरकार की योजनाएं करीब-करीब ठप्प पड़ी ही नजर आती हैं। दिल्ली में जगह-जगह गन्दगी का साम्राज्य होना, सड़कों की दुर्दशा एवं जर्जर होना, दिल्ली सरकार की नाकामी को उजागर करती है। बावजूद आप अपनी नाकामी के मोदी सरकार पर तरह-तरह के आरोप लगाती रही है। लेकिन जनता अब समझदार हो चुकी है। आसपास घटने वाली हर घटना को वह गुण-दोष के आधार पर परखकर, समीक्षा कर, प्रतिक्रिया ज़ाहिर कर देती है। अधिकांशतः ये प्रतिक्रियाएं राष्ट्रभर में एक-सी होती हैं और यही उनके सही होने का माप है।

इन बहुआयामी परियोजनाओं का जिस तरह से लोकार्पण हुआ है, उसे भले ही भाजपा के आम चुनाव के लिए अपना अभियान शुरू करने के रूप में देखा जाये। लेकिन इसका श्रेय भाजपा की वर्तमान सरकार की झेाली में ही जाता है। भाजपा द्वारा इस तरह आक्रामक ढंग से और रणनीतिक सूझ के साथ सरकार की उपलब्धियां गिनाना कोई गलत नहीं है। काम करके काम का श्रेय लेना गलत कैसे हो सकता है? दूसरा अपने पर हो रहे आक्रमणों एवं हमलों का जबाव देना भी अनैतिक नहीं है। पिछले दिनों जिस तरह कर्नाटक में विपक्षी दलों ने एकजुटता दिखाई भाजपा यदि उसका इस रूप में सकारात्मक जबाव देती है तो यह एक स्वस्थ एवं आदर्श राजनीति ही कही जायेगी। हालांकि कर्नाटक में भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी, पर विपक्षी दलों की एकता की वजह से वह सरकार नहीं बना पाई। वहां पर मुख्यमंत्री पद के शपथग्रहण समारोह में कांग्रेस, सपा, बसपा आदि दलों के नेताओं ने शिरकत कर भाजपा को करारी हार देने की शपथ खाई थी। इन स्थितियों से भाजपा आंखमूंद कर कैसे बैठी रहती? कहीं न कहीं उसे लगने लगा है कि विपक्षी एकता बड़ी चुनौती बन सकती है। इसके अलावा, पिछले कुछ समय से प्रधानमंत्री की लोकप्रियता घटने का दुष्प्रचार किये जाने की घटनाएं भी बढ़ी थी, उससे भी भाजपा का आक्रामक होना स्वाभाविक है। इससे उबरने के लिए उसने विपक्षी दलों के भ्रष्टाचार और नाकामियों को उजागर करना और अपनी उपलब्धियों को गिनाना शुरू कर दिया है। इसे हम आम चुनावों से पहले स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरूआत कह सकते हंै, जबकि आज चुनाव लोकतंत्र का मखौल बन चुके हैं। चुनावों में वे तरीके अपनाएं जाते हैं जो लोकतंत्र के मूलभूत आदर्शों के प्रतिकूल पड़ते हैं। लेकिन जनता के हित के कार्यों को किस तरह अलोकतांत्रिक माना जा सकता है?

विपक्ष की बौखलाहट अवश्य इतनी दिशाहीन हो गयी है कि उसका कोई भी रास्ता निष्कंटक नहीं दिखाई देता। विपक्षी दलों एवं उनके नेताओं ने लोकतंत्र को अराजक चैराहे पर लाकर खड़ा कर दिया, उन्होंने निजी व दलों के स्वार्थों की पूर्ति को माध्यम बनाकर इसे बहुत कमजोर कर दिया है। आज ये दल, ये लोग इसे दलदल से निकालने की क्षमता खो बैठे हैं। यही कारण है कि जो जैसा चलता है- चलने दो, इस दूषित राजनीति खेल को खेलते हुए उन्होंने जन-समस्याओं को बढ़ने दिया है। आज दिल्ली की विकराल समस्याओ का कारण ये राजनीतिक दल ही है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री ने पिछले दो दिनों में विपक्षी दलों को चुनावी राजनीति करने के मुद्दे पर भी बार-बार घेरा। लोेकतंत्रीय व्यवस्था में अब यह भी एक सच्चाई है, उससे मुंह नहीं फेरा जा सकता। पर जब सत्ता पक्ष चुनाव के मैदान में उतरता है, तो उसे अपने किए का हिसाब देना ही पड़ता है, सो प्रधानमंत्री ने अभी से देना शुरू कर दिया है। वे इसमें कितना खऱा उतरते हैं, यह भविष्य के गर्भ में है। दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेस-वे के उद्घाटन समारोह के दौरान प्रधानमंत्री मोदी के तीखे तेवर की वजह कैराना में होने वाले उपचुनाव को माना जा रहा है। गोरखपुर और फूलपुर में उपचुनाव हारने के बाद कैराना का चुनाव भाजपा के लिए नाक का सवाल बन गया है। अगर गोरखपुर और फूलपुर के बाद भाजपा यह चुनाव भी हार जाती है तो इसका असर अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव पर पड़ना निश्चित है। इसलिये भाजपा का इन उपचुनावों के लिये कमर कसना अनुचित नहीं है।

दिल्ली और एनसीआर में वायु प्रदूषण और जाम की समस्या एक-दूसरे से जुड़ी हुई है। ऐसे में विशेषज्ञ सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को मजबूत करने पर जोर देते हैं। लिहाजा दिल्ली में मेट्रो और दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) बस सेवा को सशक्त किया जाना किसी भी सरकार के लिए प्राथमिकता होनी चाहिए। लेकिन दिल्ली सरकार इसमें असफल रही है। उसे केंद्र की इन दो परियोजनाओं से सीख लेनी चाहिए और योजनाओं पर काम आगे बढ़ाने और उन्हें जल्द से जल्द पूरा करने पर ध्यान देना चाहिए।

यह सही है कि जनता ने भाजपा को प्रचंड बहुमत के साथ केन्द्र में भेजा था। क्योंकि पिछली सरकारों की नाकामियों से उब कर और नरेन्द्र मोदी के विकास के सपनों से उत्साहित और प्रेरित होकर लोगों ने मोदी का हर स्थिति में साथ दिया है। सबका साथ सबका विकास के वादे के साथ सरकार ने जो योजनाएं बनाई, उससे लोगों में उम्मीद भी पैदा हुई। मोदी सरकार ने कुछ साहसिक फैसले भी किए। मगर उन सबका मिलाजुला ही असर हुआ। अब भी बहुत सारे मामलों में सरकार को लोगों की अपेक्षाओं पर खरे उतरना चुनौती है। सत्तर साल की तुलना में चार वर्ष का विकास कार्य किसी भी रूप में कमजोर नहीं कहा जा सकता। बेहतर करने की संभावनाएं ज्यादा थी, लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं थी, इसलिये इसे शुरुआत के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। अब यह जनता को देखना है कि शुरु की गयी नया भारत की कल्पना को कहां तक पहुंचाना है। प्रेषकः

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ललित गर्ग
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