नीरज हिदी-कविता के सर्वाधिक विवादास्पद कवि रहे हैं। कोई उन्हें निराश मृत्युवादी कहता है तो कोई उनको अश्वघोष का नवीन संस्करण मानने को तत्पर है, लेकिन जिसने भी नीरज के अंतस् में झाँकने का प्रयत्न किया है वह सुलभता से यह जान सकता है कि उनका कवि मूलतः मानव-प्रेमी है, उनका मानव-प्रेम उनकी प्रत्येक कविता में स्पष्ट हुआ है चाहे वह व्यक्तिगत स्तर पर लिखे गए प्रेमगीत हों या करुणापूरित गीत, चाहें भक्तिपरक गीत हों या दार्शनिक, सभी में उनका उनका मानव-प्रेम मुखर हुआ है। नीरज की पाती में संगृहीत अनेक पातियाँ जो नितांत व्यक्तिगत प्रेम से प्रारंभ होती हैं अक्सर मानव-प्रेम पर जाकर समाप्त होती हैं। आज की रात तुझे आखि़री ख़त लिख दूँ,शाम का वक़्त है, आज ही तेरा जन्मदिन, लिखना चाहूँ भी तुझे ख़त तो बता कैसे लिखूँ आदि पातियों का अर्थ व्यक्ति है और इति मानव,उनकी आस्था मानव-प्रेम में इतनी प्रगाढ़ है कि घृणा, द्वेष, निदा के वात्याचक्र में खड़े रहकर भी कहते हैं–
नीरज का मानववाद एक ऐसा भवन है, जहाँ पर ठहरने के लिए वर्ग, धर्म, जाति, देश का कोई बंधन नहीं है। वह दीवाने-आम है, जिसमें प्रत्येक जाति, प्रत्येक वर्ग का प्रतिनिधि बिना किसी संकोच के प्रवेश कर सकता है और सामने खड़ा होकर अपनी बात कह सकता है। वस्तुतः मानव-प्रेम ही एक बड़ा सत्य है कवि के समक्ष नीरज के कवि का सबसे बड़ा धर्म और ईमान मानव-प्रेम है, इसलिए समस्त विश्व में उनके लिए कोई पराया नहीं–
कोई नहीं पराया मेरा घर सारा संसार है
मैं न बँधा हूँ देशकाल की जंग लगी जंजीरों में
मैं न खड़ा जाति-पाति की ऊँची-नीची भीड़ में।
इसीलिए उनका गीत भी किसी एक व्यक्ति का गीत नहीं, वह उन सबके मन का उद्गार है, जिनका इस संसार में कोई नहीं, जिसका स्वर अनसुना कर दिया जाता है, उनके स्वर को उन्होंने स्वर दिया है–
मैं उन सबका हूँ कि नहीं कोई जिनका संसार में,
एक नहीं दो नहीं हजारों साझी मेरे प्यार में।
किसी एक टूटे स्वर से ही मुखर न मेरी श्वास है,
लाखों सिसक रहे गीतों के क्रंदन हाहाकार में।
कवि ने सदैव मानव को विकास की ओर अग्रसर होने की ही कामना की है, इस विकास के मार्ग में आई बाधाओं से उनका तीव्र विरोध है, मानव-मानव के मध्य वह किसी दीवार या पर्दे को सहन नहीं कर सकते और इसीलिए जीवन की अकृतिमता के आड़े आने पर उन्होंने क्रांति को भी स्वीकार किया है, ‘भूखी धरती अब भूख मिटाने आती हैं’ में उनके कवि का यही रूप दिखाई देता है—
हैं काँप रही मंदिर-मस्जिद की दीवारें
गीता क़ुरान के अर्थ बदलते जाते हैं
ढहते जाते हैं दुर्ग द्वार, मकबरे, महल
तख़्तों पर इस्पाती बादल मँडराते हैं।
अँगड़ाई लेकर जाग रहा इंसान नया
जिदगी क़ब्र पर बैठी बीन बजाती है
हो सावधान, सँभलो ओ ताज-तख़्त वालो
भूखी धरती अब भूख मिटाने आती है।
कवि का मानवप्रेम किसी प्रकार की सीमाओं में बँधा नहीं है, कवि विश्व के खुले प्रांगण में खड़ा है, विश्व का हर भटकता पीडि़त व्यक्ति उसकी सहानुभूति का अधिकारी हो गया है–
सूनी-सूनी जिदगी की राह है,
भटकी-भटकी हर नजर निगाह है,
राह को सँवार दो,निगाह को निखार दो
आदमी हो कि तुम उठो आदमी को प्यार दो, दुलार दो।
रोते हुए आँसुओं की आरती उतार दो।
विश्व-प्रेम ने कवि को असीम बना दिया है। समष्टिगत भावनाओं का प्रदुर्भाव इसी कारण हुआ कवि में। वह समस्त सृष्टि को अपने में लीन मानता है। उसका विचार है कि किसी अन्य को दिया गया कष्ट भी अपने लिए ही होगा, इसलिए किसी को भी सताना उचित नहीं। प्रत्येक कण को अपने प्यार का वरदान देना आवश्यक है-
मैं सिखाता हूँ कि जिओ औ’ जीने दो संसार को,
जितना ज्यादा बाँट सको तुम बाँटो अपने प्यार को,
हँसो इस तरह, हँसे तुम्हारे साथ दलित यह धूल भी,
चलो इस तरह कुचल न जाए, पग से कोई शूल भी,
सुख, न तुम्हारा केवल, जग का भी उसमें भाग है,
फूल डाल का पीछे, पहले उपवन का शृंगार है।
कवि का मानव-प्रेम ही उसके जीवन की सबसे बड़ी शक्ति है, इस शक्ति से वह जग के अनेक आकर्षणों से अपने को बचा सकता है,कवि के शब्दों में–आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ–मेरी कमजोरी है और शक्ति भी, कमजोरी इसलिए कि घृणा और द्वेष से भरे संसार में मानव-प्रेम के गीत गाना अपनी पराजय की कहानी कहना है, पर शक्ति इसलिए है कि मेरे इस मानव-प्रेम ने ही मेरे आसपास बनी हुई धर्म-कर्म, जाति-पाँति आदि की दीवारों को ढहा दिया है और मुझे वादों के भीषण झंझावात में पथभ्रष्ट नहीं होने दिया है। इसलिए यह मेरी शक्ति है।
यही कारण है कि कवि नीरज के काव्य में अन्य सब विधि-विधानों, रीतियों-नीतियों से ऊपर मानव की प्रतिष्ठा है, मानव जो हर झोंपड़ी, हर खलियान, हर खेत, हर बाग, हर दुकान, हर मकान में है, स्वर्ग के कल्पित सुख-सौंदर्य से अधिक वास्तव है। कवि को इसीलिए मानव और उसका हर निर्माण अत्यधिक आकर्षित करता है–
कहीं रहें कैसे भी मुझको प्यारा यह इंसान है,
मुझको अपनी मानवता पर बहुत-बहुत अभिमान है।
अरे नहीं देवत्व, मुझे तो भाता है मनुजत्व ही,
और छोड़कर प्यार नहीं स्वीकार सकल अमरत्व भी,
मुझे सुनाओ न तुम स्वर्ग-सुख की सुकुमार कहानियाँ,
मेरी धरती सौ-सौ स्वर्गों से ज्यादा सुकुमार है।
सभी कर्मकांडों से ऊपर मानव की प्रतिष्ठा है कवि के काव्य में–
जाति-पाँति से बड़ा धर्म है,
धर्म ध्यान से बड़ा कर्म है,
कर्मकांड से बड़ा मर्म है
मगर सभी से बड़ा यहाँ यह छोटा-सा इंसान है,
और अगर वह प्यार करे तो धरती स्वर्ग समान है।
कवि ने साहित्य के लिए मानव को ही सबसे बड़ा सत्य माना है। ‘दर्द दिया है’ के दृष्टिकोण में उन्होंने लिखा है–‘मेरी मान्यता है कि साहित्य के लिए मनुष्य से बड़ा और दूसरा सत्य संसार में नहीं है और उसे पा लेने में ही उसकी सार्थकता है। जो साहित्य मनुष्य के दुख में साझीदार नहीं, उससे मेरा विरोध है। मैं अपनी कविता द्वारा मनुष्य बनकर मनुष्य तक पहुँचना चाहता हूँ। वही मेरी यात्र का आदि है और वही अंत।’
इस प्रकार नीरज की कविता का अर्थ भी मनुष्य है और इति भी, वही उनके निकट मानवता का सबसे बड़ा प्रमाण है, इसीलिए कवि कहता है–
पर वही अपराध मैं हर बार करता हूँ,
आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ।
गिरीजाशरण अग्रवाल
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साभार- वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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