हिंदी फिल्म जगत में कम ही अभिनेता या अभिनेत्री ऐसे हैं जो टीवी और फिल्मों में समान रूप से काम करते हैं, समान रूप से सफल हैं और फिर भी उन्हें रत्ती भर दम्भ नहीं है। वे जिस सहजता से परदे पर अभिनय करते हैं, उसी सहजता से बातें करते हैं और उतने ही सहज इंसान भी हैं। ऐसे ही एक सशक्त अभिनेता और इंसान हैं, शिशिर शर्मा। “स्वाभिमान” से टीवी इंडस्ट्री में कदम रखने वाले और तमाम फिल्मों में अपने अभिनय की कुशलता का परिचय देने वाले शिशिर जी, पहले एक नाटककार हैं उसके बाद कुछ और। थिएटर, टीवी, ओटीटी, विज्ञापन और फिल्मों में अपना सिक्का ज़माने वाले शिशिर जी से बात करके पता चला कि सफल लोग भी विनम्र हो सकते हैं और बहुत कुछ सीखा जा सकता है उनकी इस जीवन यात्रा से। आप भी शामिल होइए, इनकी इस जीवन यात्रा में और पढ़िए की कितना कुछ हम सीख सकते हैं।
राज़ी अभिनेता शिशिर शर्मा से एक अंतरंग बातचीत
बचपन जीवन का एक बहुत ही मासूम पड़ाव होता है तो आप अपने बचपन के बारे में कुछ बताइये।
मेरी पैदाइश मुम्बई में हुई थी किंडरगार्टन तक तो मैं मुम्बई में ही था, उसके बाद 6 साल की उम्र में मैं बोर्डिंग स्कूल चला गया। मेरे स्कूल का नाम था “ऋषि वैली बोर्डिंग स्कूल”। ऐनी बेसेन्ट और जे कृष्णमूर्ति ने उसकी स्थापना की थी। मैने 7 साल 6 महीने तक वहाँ पढ़ाई की थी। इस स्कूल में कोई यूनिफॉर्म नहीं थी, शाकाहारी खाना मिलता था और केवल एक दिन अण्डे परोसे जाते थे। इस स्कूल की एक खास बात यह भी थी कि यहाँ कोई प्रतियोगिता नहीं होती थी, कोई भी परीक्षा नहीं होती थी। एक मॉक एक्ज़ाम होता था जो नवीं कक्षा में दसवीं कक्षा की तैयारी करवाने के लिए किया जाता था। इस स्कूल में केवल 250 बच्चे थे और हर कक्षा में 19 या 20 बच्चे ही होते थे। उसके बाद मैं मुम्बई आ गया। पता नहीं क्यों, पर आ गया। बॉम्बे स्कॉटिश एक स्कूल है, जहाँ पर बाकी की पढ़ाई मैंने खत्म की। नरसी मोंजी कॉलेज से मैंने एमबीए किया। पिता जी बिज़नेस मैन थे। उन्होंने 1955 में बिज़नेस प्रारम्भ किया था, साथ में मेरा भी थोड़ा सा लगाव बिज़नेस से हो गया। मैं शाम को पढ़ाई करता था और दिन में बिज़नेस करता था।
1974 में मैंने थियेटर की यात्रा प्रारम्भ की। मेरी एक छोटी बहन है जो मुझसे 6 साल छोटी है। वो और उसके पति राहुल रस्तोगी जो की मेरठ से हैं, यहीं मुम्बई में रहतें हैं। उनका एक बेटा है जो हॉन्गकॉन्ग में रहता है। हॉन्गकॉन्ग टेनिस असोसिएशन के लिए काम करता है वहां के लोगों को प्रशिक्षण देता है। वो भारत के बहुत अच्छे टेनिस खिलाडियों में से एक था। पर उसके पीठ में कुछ परेशानी आ गयी और उसका ऑपरेशन करना पड़ा। तो उसके कारण पुनः बेसिक से प्रारम्भ करना इतना आसान नहीं था इसलिए उसने निर्णय लिया कि हॉन्गकॉन्ग टेनिस असोशिएशन में ट्रेनिंग देगा।
पिता जी का व्यापार में हाथ बंटाने और एमबीए करने के बाद आपका रुझान थियेटर की तरफ कैसे हुआ?
1974 में रत्ना शाह, सुनील शानबाग और मैं डिनर खा रहे थे, अचानक दरवाज़ा खुला और एक शख़्स अंदर आये, मुझे देखा और मुझसे कहा तुम एक्टिंग करोगे? तो मैंने कहा कि मुझे एक्टिंग वैक्टिंग नहीं आती, तो बोले नहीं-नहीं तुम एक्टिंग करोगे और मैं तुम्हें एक्टर बना के ही छोडूंगा। पता नहीं क्या देखा उन्होंने मुझमें और अड़े रहे की मैं तुम्हें एक्टर बना के रहूँगा। उनका नाम था पंडित सत्यदेव दूबे जो एक प्ले लिख रहे थे ”संभोग से सन्यास तक’ और बस वहीं से मेरी नाटकों की यात्रा प्रारम्भ हुयी। पंडित सत्यदेव दूबे जी के कारण ही मैं यहाँ हूँ। या ऐसे कह सकते हैं कि आज मैं जो कुछ भी हूँ दूबे जी के कारण ही हूँ। मैं ही नहीं बहुत से और अभिनेता भी आज जो कुछ भी हैं उन्ही के कारण हैं, जैसे नसीरुद्दीन शाह, रत्ना पाठक शाह, नीता कुलकर्णी, आकाश खुराना, सुनील शानबाग, अमोल पालेकर और अमरीश पुरी। दूबे जी बहुत ही अच्छे टीचर थे। उनके पढ़ाने का तरीका बहुत अलग था पर उसका परिणाम बहुत अच्छा आता था। तो यहाँ से मेरी यात्रा प्रारम्भ हुयी, रिहर्सल प्रारम्भ हुआ, जो मेरे लिए बहुत कठिन था। मुझे तो कुछ आता नहीं था कि हाथों से क्या करना है और बॉडी लैंग्वेज क्या होती है। उस समय एक बहुत ही कठिन दौर से हम लोग गुज़रे लेकिन एक बात उनमें थी कि अगर आप उनके साथ टिक गए तो आप बहुत कुछ सीख जाते हो और आपके लिए बहुत अच्छा होता है। मेरे लिए ये बहुत कमाल का दौर था।
मैंने दुबे जी के साथ लगभग 25 वर्षों तक कार्य किया। 1975 से 2000 तक मैं उनके साथ रहा। 2000 में उन्होंने एक नाटक लिखा था जिसका नाम था ‘इंशाअल्लाह’ उस समय जब हम प्रैक्टिस करते थे तो वहाँ पर सिर्फ नाटक की ही बातें होतीं थीं। दुबे जी स्वयं इस नाटक में काम कर रहे थे, इनके अलावा मैं था, ट्विंकल खन्ना, टिस्का चोपड़ा और भी बहुत सारे कलाकार थे। थियेटर की बातें जब होतीं है तो ज्यादा दिलचस्प नहीं होती है। आम आदमी जब नाटक देखने आता है तो उसको नाटक में कुछ मस्ती चाहिये, कुछ मसाला चाहिए परन्तु इस नाटक में ऐसा कुछ था ही नहीं। लोग इसको दुबे जी के कारण देखने आते थे पर लोगों ने इस नाटक को बहुत ही पसंद किया। यह नाटक बहुत ही कठिन था। मेरे लिए इसमें सीखने को बहुत कुछ था। तब से लेकर मैं आज तक मैं ये नाटक करता रहा हूँ।
रजत कपूर और शहनाज़ पटेल के साथ एक नाटक करता हूँ, जिसके निर्देशक हैं राहुल डिकोना। इस नाटक का नाम है ‘द सिद्धूस ऑफ़ अपर जुहू’ हमने 2015 में इस नाटक को प्रारम्भ किया था और आज भी जब समय मिलता है, हम इसको कर लेते हैं। दो-तीन महीने का कार्यक्रम मिल जाता है और रजत बता देता है कि ये-ये तारीख मिल रही है और वो तारीख हम डायरी में लिख लेते हैं। फिर वो डेट्स हम किसी को नहीं देते हैं।’संभोग से सन्यास तक’ नाटक मराठी, हिंदी, गुजराती और अंग्रेजी में हुआ। मराठी वाले नाटक में तो हम थे नहीं, गुजराती वाले नाटक में हमको सारे संवाद रटने पड़े क्योंकि मैं गुजराती तो हूँ नहीं। पर संवाद हमने ऐसे रटे कि आज भी यदि आप रात में उठा कर पूछें कि वो वाला संवाद बोलो तो मैं बोल देता हूँ। हमारे ग्रुप में केवल उत्कर्ष मजूमदार और रत्ना पाठक ही गुजरात से थे।
नाटकों में मैंने नसीर जी के साथ बहुत काम किया है, वो मेरे आदर्श हैं और बहुत ही बेहतरीन कलाकार हैं। मैने उनकी सारी अच्छी फिल्में देखीं हैं। उनका हर नाटक देखा है। उनके साथ काम कर के आप सीखते हैं। मुझे उनके साथ काम करना बहुत अच्छा लगता है। उनके साथ मैंने एक लघु फिल्म की थी उसका नाम था “रोगन जोश ‘ यह फिल्म यूट्यूब पर है और आप सब लोग इसे जरूर देखें।
आप थिएटर से टीवी सीरियल और फिर फिल्मों मैं कैसे आए?
थियेटर के बाद हमने कभी सोचा नहीं था कि हम फिल्में करेंगें। क्योंकि मैं व्यापार भी करता था। टीवी के बारे में हमने सुना था कि वो बहुत समय लेता है। तो कभी सोचा नहीं कि सीरियल करेंगे। एक दिन रिहर्सल के समय मेरे प्रिय दोस्त विनोद रंगनाथ जी, जो शोभा डे के साथ “स्वाभिमान” के लेखक थे, कहा कि शिशिर एक रोल है और तुम ज़रा फिल्मसिटी में जा कर मिल लो और देख लो यदि करना है क्योंकि नेगेटिव रोल है। मैंने कहा मैं एक अभिनेता हूँ, कोई भी रोल करूँगा। मैं जा कर मिला तो उन्होंने कहा की ये 25 ऐपिसोड का रोल है। ये स्क्रिप्ट है और आप कल आ जाइये। उन दिनों आजकल की तरह ऑडिशन नहीं होते थे। मेरे साथ आशुतोष राणा, कुमुद मिश्रा, हर्ष छाया, रोहित रॉय, अंजू महेन्द्रू, किट्टू गिडवानी, दीपक पराशर और मनोज बाजपेई जैसे एक्टर्स ने भी शुरुआत की। मैं और मनोज बाजपेई अगले दिन वहां पहुँच गए। वहां भट्ट साहब थे उन्होंने निर्देशित किया और हमने ऑडिशन दिया। भट्ट साहब ने कहा की शाम तक या रात तक आपको बता दिया जाएगा की आप चुने गए हैं या नहीं। रात को फ़ोन आ गया कि आप कल से आ जाइये, शूटिंग शुरू हो जाएगी।
25 एपिसोड से शुरू करके हमने 525 एपिसोड कर दिए। मनोज और आशुतोष राणा ने करीब 700-800 एपिसोड किये। स्वाभिमान के सेट पर एक पारिवारिक वातावरण सा बन गया था। इसके बाद एकता कपूर का एक शो था, जिसका नाम था “इतिहास” उसमें एक रोल था, फिर “खंज़र” और “कन्यादान” में काम किया। कन्यादान में सुधांशु पांडेय, किरण खेर, हुसैन, जयति भाटिया, पूनम निरुला और विजेन्द्र घाडगे भी थे। इसके 52 शो हुए। कुमकुम शो लगभग 6 वर्षों तक चला जिसमें से मैंने 4 साल तक काम किया। राजश्री फिल्म का एक शो था “यहाँ मैं घर घर खेली” जिसमें मैंने 3 साल तक काम किया। मैने 23 साल टेलीविज़न में बिता दिए और कभी-कभी तो मैं 3-4 शो एक साथ करता था परन्तु इससे मेरे पारिवारिक जीवन पर भी असर पड़ा। मात्र यही एक पछतावा है टीवी करने का।
इतने अच्छे अच्छे सीरियल्स करने के बाद जब आप प्रसिद्ध हो गए तो आपके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा?
प्रसिद्धि पाना तो सभी को अच्छा लगता है पर इस से मेरे जीवन पर कोई अंतर नहीं पड़ा। मैं जैसा था, वैसा हूँ और वैसा ही रहूँगा। मैं परिवार के साथ बाहर जाता था, जुहू पर पानी-पूरी भी खाता था। शायद मैं उस समय उतना फेमस नहीं था। उस समय टीवी में कभी किसी का नाम नहीं आता था तो लोग किरदार के नाम से जानते थे मेरे असली नाम से नहीं जानते थे। जब मैं ‘स्वाभिमान’ करता था तो लोग मुझे के डी सक्सेना के नाम से जानते थे पर अब लोग असली नाम से जानते हैं क्योंकि फिल्मों में नाम आता है।
जब बड़े बजट की फिल्में नहीं चलतीं हैं तो क्या चरित्र अभिनेता की कास्टिंग पर कोई प्रभाव पड़ता है?
देखिये, फिल्मों में काम करने वालों की वजह से ही मात्र फिल्मों का चलना या न चलना निर्धारित नहीं होता। फिल्म को बनाने में सभी का सहयोग होता है। आप ये नहीं कह सकते हैं की राज़ी सिर्फ इसलिए चली क्योंकि उसमें आलिया और विक्की थे। मेघना गुलज़ार को पता था कि उसको फिल्म में क्या चाहिए। यदि यह फिल्म नहीं चलती तो सभी को इसका कारण माना जाता।
जहाँ तक कास्टिंग की बात है तो जी, कास्टिंग पर फर्क पड़ता है। यदि फिल्म चली तो लोग कहतें हैं कि चलो इनके साथ काम करते हैं। यदि फिल्म नहीं चली तो इसका मतलब ये नहीं है की उसमें काम करने वाले कलाकार बुरे हैं। निर्देशक की एक सोच होती है पर कभी-कभी वो लोगों को पसंद नहीं आती है और कभी-कभी पसंद आती है। कलाकार तो वही करता है जो उससे करने के लिए कहा जाता है। लोग विश्वास नहीं करते है पर यदि एक फ़िल्म न चले तो कई बार जो पैसे अगली फिल्मों के लिए एडवांस में मिलें होते हैं उनको भी वापस करना पड़ता है। इससे कई अभिनेता डिप्रेशन में भी चले जाते हैं। मेरे हिसाब से सिर्फ एक अभिनेता या चरित्र अभिनेता फिल्म को हिट या फ्लॉप करने का कारण नहीं होता है, इसलिए हर एक्टर को कई अवसर मिलने चाहिए ताकि वो अपने को साबित कर सके।
राज़ी फिल्म में आपका किरदार बहुत ही अच्छा था। इस किरदार के बारे में कुछ बताइये।
मैंने मेघना जी के साथ पहली फिल्म की थी जिसका नाम था “तलवार” उसमें इरफ़ान खान थे। जब मैंने मेघना जी के साथ वो फिल्म की तो मुझे लगा कि मेघना जी बहुत कमाल की निर्देशिका हैं। उनको क्या चाहिए बहुत अच्छी तरह से पता होता है। “तलवार” के बाद मैंने उनसे कहा कि मुझे आपके साथ दुबारा काम करना है। उन्होंने बहुत संक्षिप्त सा उत्तर दिया और कहा कि शिशिर सर जब मेरे पास आपके लिए कोई रोल होगा तो मैं निश्चित रूप से आपको फ़ोन करुंगी। उसके बाद मैंने उनको कोई फ़ोन नहीं किया। एक दिन जब मैं सोकर उठा तो देखा कि मेघना का मिस्ड कॉल था। मैने अपनी बीवी को बुलाया और कहा की प्लीज मुझे पिंच करो और बताओ कि क्या ये सच में हो रहा है या मैं कोई सपना देख रहा हूँ! फिर मैंने मेघना जी को फ़ोन किया तो उन्होंने कहा कि देखिये मैंने आपको कहा था कि आपके लायक रोल होने पर मैं आपको फ़ोन करुँगी। आपके लिए एक रोल है आप जाकर इनसे मिलिए। अभी मैं रेकी पर हूँ आप से बात नहीं कर सकती, वही आपको सब समझा देंगे। मैं चला गया और उन्होंने मुझको पूरी कहानी सुना दी और कहा कि कुछ सीन है जो मेघना जी आपको बताएंगी।
मेघना जी से मेरी मुलाकात हुए तो उन्होंने पूछा कैसी लगी आपको कहानी तो मैंने कहा कमाल की है। फिर उन्होंने पूछा कि आपको अपना किरदार कैसा लगा? मैंने कहा किसी भी अभिनेता के लिए इससे बेहतर किरदार तो हो ही नहीं सकता। उन्होंने कहा कि आपको स्क्रिप्ट देती हूँ आप उसको अच्छी तरह से पढ़िए। उसमें उर्दू के बहुत से शब्द थे। उसके बाद मैंने पाकिस्तानी जर्नल के बहुत से वीडियो देखे कि वो कैसे बात करते हैं, चलते हैं। उसी समय मैंने ज़ियाउल हक़ की फोटो देखी और मुझे लगा मैं खुद को कुछ ऐसा ही बनाऊंगा। जिस दिन लुक टेस्ट था, मेघना जी ने कहा कि मुझे बीच की मांग चाहिए, ऐसी मूँछ चाहिये। तो जैसा मैंने सोचा था मेघना जी ने भी वही सोचा था। उसके बाद मैंने, रजत और विक्की ने पढ़ना शुरू किया। मेघना जी हमेशा ये करती हैं कि फिल्म शुरू होने से पहले उनकी एक टेबल रीड होती है। सारे अभिनेता और अभिनेत्रियाँ आते हैं, मेघना जी खुद होती हैं, प्रोडूसर आते हैं और अभिनेता ज़ुबानी पूरी कहानी सुनाते हैं। उर्दू के शब्द बहुत थे तो बहुत रिहर्सल्स हुईं।
थोड़ा सा नर्वस था क्योंकि राज़ी का जो ये किरदार है वो केवल आर्मी ऑफिसर ही नहीं है बल्कि एक मानवता से भरा इंसान है और एक पिता भी है। तो इन सारे भावों का मिश्रण कर के दर्शकों के सामने रखना था। मुझे लगा कि यह कैसे होगा। पर जो कुछ भी मैंने दूबे जी से सीखा था वह सब इसमें डाल दिया। जो कुछ भी मैंने किया, मेघना जी को पसंद आया, दर्शकों को भी पसंद आया। राज़ी के बाद सभी कहने लगे कि अब शिशिर शर्मा अभिनय कर सकते हैं। राज़ी से पहले भी मैंने बहुत सी अच्छी-अच्छी फिल्में की जैसे सरकार राज़, मैरी कॉम, दंगल, तलवार पर किसी ने ऐसा नहीं कहा। राज़ी के बाद ऐसा क्या हुआ मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि एक अभिनेता के तौर पर मेरा जीवन बदल गया। मुझे बहुत ही अच्छा काम मिलने लगा।
आपने बहुत ही तरह के किरदार किये हैं क्या कोई ऐसा रोल है जो अभी भी आप करना चाहते हैं?
क्या है मेरा चेहरा ऐसा है और मैं मधु भाषी हूँ तो लोग मुझसे पूछते हैं कि आपने कभी नकारात्मक भूमिका निभाई है या नहीं। अब मैं क्या बताऊँ कि टीवी पर मेरी शुरुआत ही नकारात्मक भूमिका से हुयी है। मैं एक उदाहरण देना चाहूँगा कि बेन किंग्सले ने गाँधी का किरदार निभाया था और आज भी सभी उनको गाँधी के नाम से ही जानते हैं। अभी तक मैंने कॉमेडी नहीं की है तो आज मैं आपके अख़बार के माध्यम से कहना चाहूंगा कि मैं कॉमेडी भी कर सकता हूँ।
एक कलाकार जब शुरुआत में इंडस्ट्री ज्वाइन करता है तब उसका उद्देश्य कला और पैसा होता है, फिर उसे शोहरत की तलाश होती है। जब ये सब मिल जाते हैं तब एक कलाकार का क्या उद्देश्य रह जाता है? क्या कभी इतना काम करते-करते सैचुरेशन नहीं आता?
हाँ बिलकुल आता है, एक अभिनेता के अभिनय का जीवनकाल बहुत छोटा होता है और यदि कुछ फिल्में नहीं चलें तो अभिनेता को समझ में आता है कि वो कितने पानी में है। एक बार ये स्थिति आ जाए तो बहुत परेशानी हो जाती है। एक अभिनेता का अभिनय काल बहुत ही असुरक्षित होता है क्योंकि बहुत ही प्रतिस्पर्धा है। लगता है मैं नहीं करूँगा ये काम तो कोई और कर लेगा। जैसे मैं कहता हूँ मैं 10 रुपये में करूँगा वो कहता है वो 8 रूपये में करेगा तो फिर मैं सोचता हूँ के मैं 7 रूपये में क्यों न करूँ और जब काम नहीं मिलता है तो डिप्रेशन (अवसाद) का दौर आता है। जब डिप्रेशन होता है तो आपको समझ में नहीं आता है कि क्या किया जाये। तो मैं यहाँ यही कहना चाहूंगा की आप जितना कर सकते हैं उतना काम कर लीजिये। क्योंकि पता नहीं आपको कल काम मिले या न मिले।
फिल्म उद्योग में बहुत से अच्छे कलाकार है। सभी को काम मिलता रहे इसके लिए आप कुछ सलाह देना चाहेंगे?
जी हाँ एक बात बहुत महत्वपूर्ण है कि आप का व्यवहार कैसा है, आपके नखरे हैं की नहीं, आप बेकार में कोई चीज़ तो नहीं माँगते। आपको थोड़ा सा अनुशासित होना पड़ेगा। जब आप अनुबंध करते हैं तो आपको फोकस करना होगा, आपको समय से पहुंचना होगा। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो आपको शो से निकाल देंगे।
पिछले कई वर्षों में ओटीटी बेहद पॉपुलर हो रही है। अभी आपने सिटी ऑफ़ ड्रीम्स में काम किया। ओटीटी नए-नए प्रयोग के लिए बहुत सफल रहा है, एक तरफ गुल्लक जैसे सब्जेक्ट हैं, फिर राकेट बॉयज हैं और साथ में सिटी ऑफ़ ड्रीम्स भी। सब्जेक्ट को बड़ी गहराई से कहने की जो बात ओटीटी में है वो और किसी विधा में नहीं है, क्या एक कलाकार के तौर पर आप भी ये महसूस करते हैं कि ओटीटी आपको एक कलाकार के रूप में ज्यादा स्थापित करता है?
जी आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ। ओटीटी पर आज जितने भी अभिनेता हैं पहले वो सभी कहाँ थे। हमको तो पता भी नहीं था कि इतने अच्छे-अच्छे अभिनेता और भी हैं। “जामतारा” जैसा शो आया। इस शो से पहले किसको पता था कि जामतारा कैसी कोई जगह भी है। मिर्ज़ापुर और भी कुछ शो हैं जहाँ ख़राब भाषा का प्रयोग हुआ है पर फिर भी अभिनय की दृष्टि से सभी बहुत अच्छे शो हैं। मैं मानता हूँ कि कुछ ऐसे शो हैं जो आप बच्चों के साथ नहीं देख सकते हैं। भारत में इतनी प्रतिभा भरी पड़ी है कि विश्वास ही नहीं होता है। ओटीटी ने बहुत से काम के अवसर उत्पन्न किये हैं। इसके आने से बहुत से लोगों को काम मिला है अभिनेता ही नहीं बहुत से टेक्नीशियन को भी काम मिला है।
आपको ओटीटी करना कैसा लगता है?
मुझे ओटीटी करना बहुत अच्छा लगता है पर अभी प्रतिस्पर्धा बहुत बढ़ गयी है तो बजट कम हो गया है। समय की समस्या होती है। क्योंकि कुछ शो ऐसे हैं जिनको जल्दी निर्माता जल्दी खत्म करना चाहते हैं क्यों कि उनके पास बजट नहीं होता है। और उनको समय भी कम दिया जाता है। मेरा पहला वेब शो था “परमानेंट रूममेट” जो कि 8 साल पहले आया था। इसका हमने 2 सीजन किया। 7 साल तक किसी ने नहीं सोचा की हम फिर से इसको करेंगे पर हमने तीसरा सीजन अभी-अभी समाप्त किया है और बहुत ही जल्द वो तीसरा सीजन आएगा। आज सभी ओटीटी पर कुछ न कुछ करना चाहते हैं।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए ओटीटी अच्छा है या नहीं?
अभी तो सिर्फ ओटीटी ही है। आज कल थियेटर में बहुत कम फ़िल्में आती हैं। यदि कुछ होतीं हैं तो वो बहुत बड़ी ब्लॉक बस्टर फिल्में ही होती हैं। जैसे शाहरुख़,सलमान, बच्चन साहब, अक्षय कुमार की फिल्में। मुझे ऐसा लगता है कि लोग अधिकतर घर में बैठकर फिल्म देखना पसंद करते हैं। 1000 रुपये में आप जितनी फिल्में देखना चाहते हैं देख सकते हैं जितनी बार भी देखना चाहते हैं देख सकते हैं। आज कल लोगों की सोच है कि पैसे खर्च कर के एक घटिया फिल्म देखें उससे अच्छा है कि घर में फिल्म देखो और यदि कोई फिल्म अच्छी न लगी तो थोड़ा सा देखने के बाद बंद कर दो। तो मुझको लगता है कि ओटीटी ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को कड़ी टक्कर दी है। थियेटर में फिल्में आएँगी यदि बहुत ही बड़ी फिल्म हो जिसको ओटीटी हैंडिल नहीं कर सकता है। आमिर खान की फिल्म तो आएगी ही।
आपने आमिर खान का नाम लिया है आपने इनके साथ दंगल और फ़ना में काम भी किया। सभी कहतें है कि आमिर जी बहुत परफ़ेक्शनिष्ट (पूर्णतावादी) हैं। आप क्या कहेंगे?
फ़ना में मेरा उनके साथ कोई सीक्वेंस नहीं था। दंगल में उनके साथ दो दिन का काम था। मेरी मम्मी ने उनके पिता ताहिर जी के साथ एक नाटक में काम किया था जिसका नाम था ‘काबुली वाला’ जिसमें बलराज साहनी जी भी थे। मेरी माँ ने “तलाश” फिल्म में आमिर खान के साथ काम किया था। मुझे कॉल आया कि दंगल में कुछ ज्यादा काम तो है नहीं परन्तु एक बहुत महत्वपूर्ण काम है क्या आप करना चाहेंगे? मैंने कहा बिलकुल करना चाहूंगा क्योंकि एक तो नीतेश तिवारी निर्देशक थे और फिर आमिर खान थे फिल्म में। फिर मैंने आमिर से बात करना प्रारम्भ किया और परफ़ेक्शनिष्ट शब्द उनके लिए छोटा शब्द है। वो इतने परफ़ेक्शनिष्ट हैं कि आप दंग रह जाएँगी। मैंने आज तक ऐसा अभिनेता नहीं देखा है। उन्होंने परफ़ेक्शनिष्ट की हद पार कर दी थी। और दंगल ऐसी फिल्म थी जिसमें उनको हरियाणवी बोलनी थी। हरियाणवी बोलना आसान नहीं है। उन्होंने मुझसे खुद कहा कि हर सीन को वो करीब 100 या 150 बार करते थे ताकि हरियाणवी के उच्चारण में गलती न हो। मैने 3 सीन किये उनके साथ। मुझे बहुत सारी रिहर्सल्स करनी पड़ी। क्या है जब आप घर में रिहर्स करते हैं और सेट पर अभिनेता के साथ करते हैं उन दोनों में बहुत ही अंतर होता है।
आपने कहा आप घर पर रिहर्सल करते हैं। घर पर आपकी सहायता कौन करता है?
मेरी पत्नी मेरी सहायता करती हैं क्योंकि हमने बहुत से नाटकों में साथ में काम किया है। उन्होंने बैकस्टेज भी बहुत काम किया है। प्रोडक्शन में भी बहुत काम किया है। तो जब भी मुझको सहायता चाहिए मैं उनकी सहायता ले लेता हूँ। कभी-कभी मैं अपने संवाद के साथ ऐसा भी करता हूँ की सामने वाले की अंतिम लाइन भी याद कर लेता हूँ, जिससे मुझे पता रहता है कि मुझे कब अपना डायलॉग बोलना है।
मैंने आपकी एक लघु फिल्म देखी ‘एक छोटी सी गुज़ारिश”। उसमें आपका रोल बहुत ही अच्छा था। इसमें एक सीन था जब आप अपनी पत्नी को दवा के साथ गिलास देते हैं और आप रोते हैं। उस सीन में आपने कमाल का अभिनय किया है। कैसे हुआ वो सीन, कुछ उसके बारे में बताइये।
“छोटी सी गुजारिश” मेरे हृदय के बहुत करीब है वो फिल्म। मैं प्रज्ञेष सिंह को नहीं जानता था। उन्होंने फेसबुक पर मेरा नाम देखा और मुझको एक मैसेज किया कि मेरी एक स्क्रिप्ट है क्या आप उसको पढ़ना चाहेंगे? मैंने कहा, क्यों नहीं बिलकुल पढ़ना चाहूँगा। मैने वो स्क्रिप्ट पढ़ी और मैं बयां नहीं कर सकता कि उसको पढ़ने के बाद मेरी क्या हालत हुई। फिर उन्होंने मुझसे पूछा क्या आप किसी को बता सकते हैं जो मेरी पत्नी का किरदार कर सके। मेरे मन में दो या तीन नाम ही आते हैं और उसमें से एक नाम था स्मिता जयकर का। मैंने स्मिता का नंबर दिया। प्रज्ञेष ने स्मिता को कॉल किया और स्मिता ने भी हाँ बोल दिया। फिर मुझसे पूछा कि क्या आप लखनऊ आ सकते हैं। हमने कहा जी जरूर आएंगे। हम लखनऊ पहुंचे। उन्होंने स्क्रिप्ट पढ़ के सुनाई और फिर निर्णय लिया कि फिल्मांकन कब करना है। पूरी फिल्म हमने लखनऊ में प्रज्ञेष जी के घर पर ही बनायी केवल एक सीन जिसमें मैं गंगा में डुबकी लगता हूँ वो सीन हमने कानपुर के बिठूर घाट पर शूट किया था।
वो एक ऐसी फिल्म थी कि जो भी हम करना चाह रहे थे वो खुद-ब-खुद होता जा रहा था। मैं, स्मिता के साथ पहले भी काम कर चुका था तो जब दो कलाकार एक दूसरे को जानतें हैं तो काम करना बहुत आसान हो जाता है। इस रोने वाले सीन के लिए प्रज्ञेष ने कहा आपको गिलास में दवा डाल कर लाना है, स्मिता को देना है और बहुत रोना है। मुझे पता नहीं कि मुझे यह कहना चाहिए या नहीं पर मेरे लिए कैमरे के सामने रोना बहुत आसान है। मैं बहुत भावुक व्यक्ति हूँ मेरे आँसू बहुत जल्दी आ जाते हैं। मैने प्रज्ञेष से कहा कि मैं सिर्फ एक ही टेक दूंगा। स्मिता ने प्रज्ञेष से कहा कि इसको थोड़ी देर के लिए छोड़ दो, ये आकर बहुत अच्छा शॉट देंगे। मैं उस कमरे से चला गया। पांच मिनट के बाद मैं आया और मैंने प्रज्ञेष से कहा मुझको पूरी तरह से शांति चाहिए यदि कोई बोलेगा तो मैं ये शॉट नहीं दूँगा । फिर मैंने वो शॉट दिया और बहुत अच्छा हुआ। शॉट देने के बाद भी मैं अपना रोना नहीं रोक पाया था। स्मिता ने मुझे संभाला और कहा जितना रोना है रो लो कोई बुराई नहीं है इसमें। अब जब मैं उस शॉट को देखता हूँ तो सोचता हूँ कि मैने ये शॉट कैसे कर लिया?
आप बहुत व्यस्त कलाकार हैं पर जब कभी भी आपको फुर्सत के पल मिलते हैं तो आप क्या करना पसंद करते हैं?
जब मेरी बेटियां मेरे साथ थीं तब हम उनके साथ समय बिताते थे। अब मेरी दोनो बेटियों की शादी हो गयी है और उनके दो-दो बच्चे हैं। वो दुबई में रहतीं हैं। अब क्योंकि मेरी बेटियाँ चलीं गयीं हैं तो मैं और मेरी पत्नी रहते हैं। 45 साल हो गयें हैं हमारी शादी को और इस दौरान हमारे घर में सहायता करने के लिए 26 साल पहले अंजना आयीं थीं। अब वो भी हमारे परिवार का हिस्सा बन गयीं हैं। उसकी 13 साल की बेटी, जो हमारे घर में पैदा हुई थी, उसको हमने एक तरह से गोद लिया हुआ है। वो अब हमारी बड़ी ग्रैंड डॉटर है। जब मैं घर पर होता हूँ तो लंच हम साथ में करते हैं। हम थियटर करते हैं और थियटर देखते हैं।
आप के अभिनय की सराहना तो बहुत लोगों ने की होगी पर कोई ऐसी प्रशंसा जो आपको आज भी याद हो?
दुबे जी किसी भी कलाकार की बहुत कम तारीफ करते थे। वो नसीर साहब की भी तारीफ नहीं करते थे, न ही पुरी साहब की तारीफ करते थे। “इंशाअल्लाह” नाटक करने के बाद उन्होंने कहा था शो अच्छा किया तुमने शिशिर और मेरे लिए वह बहुत बड़ी बात थी। फिल्मों की बात करूँ तो जब राज़ी आयी तो लोगों ने बहुत तारीफ की। समाचार पत्रों में बहुत अच्छी अच्छी बातें लिखीं गयीं थीं।
आप हमारे पढ़ने वालों को क्या कहना चाहेंगे?
मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि आप जो भी काम करें पूरी मेहनत, लगन और ईमानदारी से और अनुशासित तरीके से करें। हर काम में अनुशासन का बहुत ही महत्त्व होता है। जहाँ तक कलाकारों की बात है मैं तो कहूंगा कि अभिनय के साथ खिलवाड़ न करें। यदि आप अभिनय करना चाहते हैं तो पूरा मन लगा कर काम करिये। मैं हर कलाकार से कहता हूँ कि यदि आप अभिनय करना चाहते हैं तो पहले पांच से सात साल तक आपको थियटर करना चाहिए क्योंकि यहाँ आप अभिनय का मूलभूत ज्ञान प्राप्त करते हैं और अनुशासन भी सीखते हैं। मेरे विचार में यदि आप किसी भी कार्य को पूरे मन से करेंगे तो आप कभी भी असफल नहीं होंगे।
(रचना श्रीवास्वव अमरीका में रहती हैं और वहाँ भारतीय समाज की विभिन्न गतिविधियों , आयोजनों व कार्यक्रमों के बारे में लिखती हैं)
Rachana Srivastava
Reporter, Writer, and Poetess
Los Angeles, CA