मैं देवदार का घना जंगल,
गंगोत्री के द्वार ठाड़ा,
शिवजटा सा गुंथा निर्मल
गंग की इक धार देकर,
धरा को श्रृंगार देकर,
जय बोलता उत्तरांचल की,
चाहता सबका मैं मंगल,
मैं देवदार का घना जंगल….
बहुत लंबा और ऊंचा,
हिमाद्रि से बहुत नीचा,
हरीतिमा पुचकार बनकर,
खींचता हूं नीलिमा को,
मैं धरा के बहुत नीचे,
सींचता हूं खेत को भी,
फूटते तब झरने निर्मल,
मैं देवदार का घना जंगल…
याद है पदचाप मीठी,
गंग की बारात अनूठी,
कोई नौना और ब्योली,
कोई सिर पर फाग बांधे,
कोई लिए लकुटी उमर की,
बन घराती आस्था का
गान गाता हूं मैं मंगल,
मैं देवदार का घना जंगल…
बाजुएं फैलाए लंबी,
कर रहा मैं दिव्य स्वागत,
रख रहा सब नाज नखरे,
मोटरों का देख रेला,
तीर्थ पर सब भोगियों को,
हूं परेशां सोचकर मैं,
कब रुकेगा भोग दंगल,
मैं देवदार का घना जंगल…
दौड़ने को बड़ी गाड़ी,
बहुत काली और चौड़ी
सड़क भोगी ला रहे हैं,
तोड़ते नित हिमधरों को,
झाड़ते नदी बीच मलवा,
नष्ट करते शिवजटा को,
काट डाला है मुझी को,
मैं देवदार का घना जंगल…
क्रोध में हिमराज योगी,
दे रहा है नित्य झटके,
सूत्र रक्षक भैजी-दीदी,
कर रहे गुहार सबसे,
रोक लो विघ्वंस जग का,
न रचो खुद का अमंगल,
चाहता मैं सबका मंगल,
मैं देवदार का घना जंगल…..
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पानी प्रणय पक्ष
लेखक: अरुण तिवारी
आतुर जल बोला माटी से
मैं प्रकृति का वीर्य तत्व हूं,
तुम प्रकृति की कोख हो न्यारी।
इस जगती का पौरुष मुझमें,
तुममें रचना का गुण भारी।
नर-नारी सम भोग विदित जस,
तुम रंग बनो, मैं बनूं बिहारी।
आतुर जल बोला माटी से….
न स्वाद गंध, न रंग तत्व,
पर बोध तत्व है अनुपम मेरा।
भूरा, पीला, लाल रज सुंदर,
कहीं चांदी सा रंग तुम्हारा।
जस चाहत, तस रूप धारती
कितनी सुंदर देह तुम्हारी।
आतुर जल बोला माटी से….
चाहे इन्द्ररूप, चाहे ब्रह्मरूप, चाहे वरुणरूप,
जो रूप कहो सो रुप मैं धारूं।
जैसा रास तुम्हे हो प्रिय,
तैसी कहो करुं तैयारी।
करता हूं प्रिया प्रणय निवेदन,
चल मिल रचै सप्तरंग प्यारी।
आतुर जल बोला माटी से….
प्यारी मेरा नम तन पाकर,
उमग उठेगी देह तुम्हारी,
अंगड़ाई लेगा जब अंकुर,
सूरज से कुछ विनय करुंगा,
हरित ओढ़नी मैं ला दूंगा,
बुआ हवा गायेगी लोरी,
आतुर जल बोला माटी से….
नन्हे-नन्हे हाथ हिलाकर
चहक उठेगा शिशु तुम्हारा,
रंग-बिरंगे पुष्प सजाकर
जब बैठोगी तुम मुस्काकर
हर्षित होगी दुनिया सारी।
कितनी सुंदर चाह हमारी।
आतुर जल बोला माटी से….
जब देह क्षीण होगी प्रकृति की,
यह चाहत ही आस बनेगी,
हरित ओढ़नी सांस बनेगी।
मैं प्रवाह बन फिर बरसूंगा,
तुम फिर बन जाना कोख कुंवारी,
यूं चलती रहेगी यारी हमारी,
आतुर जल बोला माटी से….
अरुण तिवारी
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