बहुत दिनों बाद अभिन्न मित्र हेमन्त पाराशर से कोटा के कलेक्ट्री परिसर में मिलने का संयोग बना। एक दूसरे को गले लगा कर अभिवादन किया और मिलने की खुशी का इजहार किया। हम अपनी पुरानी थड़ी पर जा पहुंचे जहां सेवा काल में बरसों साथ चाय पीने का सुख लूटा था। दोस्तो के बीच गप्पे लगाने लगे और परिवार की कुशल क्षेम जानी। बातों के सिलसले के बीच मैने पूछ लिया भाई आज कल क्या कर रहे हो? वह कहने लगे क्या करना है बच्चे सेटल हो गए, मस्त रहते हैं। कम्प्यूटर देख लेते हैं और जब कभी युनिवर्सिटी से बुलावा आया है लाइब्रेरी साइंस की क्लास लेने चले जाते हैं। रहा नहीं गया, मैंने कहा यार तुम तो बिना पैसे वाला कोई काम नहीं करते। मेरी बात पर वह मुस्करा दिए।
मुझसे कहने लगे आप तो खूब लिख रहे हो। कई किताबें लिख डाली। केसे कर लेते हो इतना सब कुछ? मैने कहा पाराशर जी आपको तो पता है मुझे रिटायरमेंट के बाद साल भर का एक्सटेंशन मिला था पर ज्यादा जमा नहीं सो दो महीने में ही छोड़ दिया। कुछ अखबार वालों ने ऑफर भी दिया , जिनका मै अधिकारी रहा हूं वहां काम करना मेरे जमीर ने गवारा नहीं किया। कोई दो साल अपना एक पाक्षिक पत्र निकाला पर वह भी बन्द करना पड़ा। विचार आया कि जीवन के 34 साल लिखने – पढ़ने में बीता दिए अच्छा यही है लिख ने का ही काम किया जाए। मन चाहा काम भी है, समय भी अच्छा कटेगा और साहित्य सृजन से समाज को भी कुछ दे पाएंगे। बस इसी विचार से पुस्तकें लिखना शुरू कर दिया।
यह तो आप बहुत अच्छा काम कर रहे हो वह बोले और पूछा कितनी कितने लिख ली हैं ? किन – विषयों पर लिख रहे हो ? जवाब दिया तुम्हें तो पता ही है दर्शनीय स्थलों को देखने और फोटोग्राफी में मेरी विशेष रुचि है। मैंने करीब आधे भारत का भ्रमण कर लिया है। कई स्मृतियां मेरे जहन में हैं कुछ नोट्स भी ले रखे हैं। इसलिए पर्यटन को ही लेखन का मुख्य आधार बनाया है। भारत और राजस्थान के सन्दर्भ में पर्यटन के विभिन्न पहलुओं पर कलम चलाई हैं। पर्यटन के साथ – साथ कला – संस्कृति ,पुरातत्व और मीडिया से सम्बन्धित लेखन भी किया है। पिछले आठ सालों में कोई 18 पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है जिनमें अधिकांश इन्हीं विषयों पर हैं।
पाराशर जी ने खुश हो कर कहा खूब रॉयल्टी मिलती होगी , मजे ही मजे हैं। रॉयल्टी की बात क्या करते हो, पुस्तक प्रकाशित कराने के लिए पेंशन से बचा कर खर्च करना होता हैं। मैंने कहा वह जमाना गया जब लिखने वाले कम होते थे, आज तो स्थित यह है कि प्रकाशक के पास समय ही नहीं है। अपनी शर्तो पर पुस्तक छापते हैं। लेखक अपनी पांडुलिपि लेकर चक्कर लगाते हैं और बड़ी मुश्किल से प्रकाशक मिल पाता है। कुछ भी रेट नहीं है जितने में तय हो जाए 15 हज़ार से लेकर 50 हज़ार तक।
वह कहने लगे यह तो बहुत महंगा सौदा है। क्या तुम भी इतना देते हो ? मैंने कहा जी कुछ सेटिंग कर 12 से 18 हज़ार तक तो दिए हैं। बदले में कुछ किताबें मिलती है बाकी ठनठन पाल मदन गोपाल।
खैर मै कमाई की दृष्टि से लिख भी नहीं रहा हूं। पढ़ने , मेटर खोजने,लिखने, टाइप कराने, फोटो चयन करने, पांडुलिपि भेजने, प्रूफ देखने, पुस्तकालय आने – जाने में मेरा तो अच्छा समय पास हो जाता है। किताब छप कर आती है तो अपार खुशी का अनुभव होता है। फिर इसका विमोचन करवाता हूं और अखबार में न्यूज़ छपती है तो मन को बड़ा संतोष होता है। परम संतोष यह रहता है कि मै अपनी लेखनी से समाज को कुछ सकारात्मक साहित्य देने का प्रयास कर रहा हूं।
इतना सब जान कर वे खुश हो कर कहने लगे आपने तो सेवा काल में भी अपने सरकारी काम के अतिरिक्त विभिन्न लोगों और संस्थाओं के माध्यम से समाज को कुछ न कुछ देने का प्रयास किया है। इतना काम कर रहे हो लगता ही नहीं की रिटायर हो गए। मैंने जवाब दिया अपने लिए तो सब करते है परंतु कुछ दूसरों को सुख देने के लिए भी समय नकालो तो मन को बड़ा संतोष मिलता है। मुझे तो आज तक अहसास ही नहीं हुआ कि मै रिटायर हो गया हूं। फिर भाई काम करने में उम्र कहां बाधक है। जरूरत इच्छाशक्ति की है। अपनी सोच को सकारात्मक बनाने की दिशा में पहल करने की आवश्कता है।
जिस प्रकार मै साहित्य सृजन में लगा हूं ऐसे ही रिटायर लोग सक्षरता विकास,वृक्षारोपण, पर्यावरण, वन्य जीव संरक्षण, रक्त दान, अंग दान, धार्मिक कार्य आदि से अपनी – अपनी रुचि के अनुसार किसी न किसी सेवा प्रकल्प से जुड़ कर जीवन को सार्थक कर रहे हैं।
बातों का सिलसिला लम्बा हो चला था। घर के लिए कुछ सामान भी खरीदना था अत,: फिर मिलने के भाव के साथ हमने एक दूसरे से विदा ली। मित्र से हुई भेंट के बाद जब मै रवाना हुआ तो आत्मविश्वास और बलवती हुआ कि मैं रिटायर नहीं हुआ हूं। डॉ.प्रभात कुमार सिंघल…