Thursday, November 28, 2024
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बीजेपी का वैचारिक अधिष्ठान और हर राज्य में सरकार बनाने की जिद

क्या महाराष्ट्र में मिली शिकस्त से बीजेपी का आला नेतृत्व आत्मचिंतन की ओर उन्मुख होगा?यह सवाल आज इस पार्टी के लाखों कार्यकर्ताओं के मन मे कौंध रहा है जिन्हें आप कैडर कह सकते है भले ही पार्टी 13 करोड़ सदस्यों का दावा करती है लेकिन आप इसे कैडर नही कह सकते है, हां सत्ता के हमसफ़र जरूर है ये लोग जिनके पास किसी विचार की निधि नही है वे सत्ता से उतपन्न हुई सम्पन्नता के मालिक है। उनके पास संसाधन है लेकिन जिस वैचारिक धरातल पर बीजेपी का कार्यकर्ता अपनी विशिष्टता के लिए सामाजिक रूप से अधिमान्य था। आज उसकी भूमिका सत्ता के अश्वारोही आवेग में कहीं वैसे ही अप्रसांगिक होती जा रही है जैसे मोदी जी के प्रभामण्डल में देश की सियासत में विपक्षी दल।

सवाल यह है कि क्या भारत के हर प्रदेश में सरकार स्थापित करना ही बीजेपी रूपी संसदीय विचार का एकमेव लक्ष्य था?1951 में जनसंघ की आवश्यकता के अक्स में सत्ता कभी ध्येय नही थी। इसलिये सवाल महाराष्ट्र के आलोक में यह उठाया ही जाना चाहिये कि जिस दल को दुनिया मे सबसे बड़े सदस्यता आधारित दल की मान्यता दिलाई गई जिसके प्रधानमंत्री अटल जी और मोदी जी को आज बगैर खानदानी पृष्ठभूमि के वैश्विक लीडर के रूप में जनस्वीकृति हासिल हुई है उसके लिये महाराष्ट्र जैसे मूल्यहीन प्रयोग करने की अपरिहार्यता क्यों और कैसे निर्मित हो गई है?असल में यह वक्त बीजेपी नेतृत्व के लिये सूक्ष्म और गहरे आत्मविश्लेषण का है क्योंकि संसदीय लोकतंत्र में यह घटनाक्रम महज एक राज्य की सरकार बनाने या न बना पाने तक सीमित नही है बल्कि इससे बहुत आगे के महत्व लिए हुए है।क्या समाजसेवा के ध्येय से दीक्षित विचारवान लोगों के लिये आज सत्ता ने वैचारिक रुप से इतना कमजोर कर दिया है कि वे समाज की शास्ति और प्रशस्ति में भेद करना ही भूल गए है ?

बीजेपी के कैडर का समाज मे अपना वैशिष्ट्य है उसके नेतृत्व की जनता के बीच गहरी साख है इसीलिये भारत में नरेंद्र मोदी और अटल जी जैसी शख्सियत विकसित हो सकीं है। जिस नरेंद्र मोदी के विरुद्ध भारत में हिटलर और मुसोलिनी की तरह नफरत से भरा अद्वितीय घृणा अभियान राजनीतिक क्षेत्रों से लेकर कला, साहित्य,संस्क्रति,मीडिया के सुगठित वर्ग ने चलाया और बाबजूद इसके भारत की जनता ने एक बार नही दो बार उन्हें खुलेआम सबको खारिज कर अपना मुखिया चुना है इसके निहितार्थ केवल सत्ता प्राप्ति तक सीमित करना उस विचार को कमतर करना है जिसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी,नानाजी देशमुख,बलराज मधोक,बलराज साहनी,अटल जी,आडवाणी जी,प्यारेलाल खंडेलवाल, कुशाभाऊ ठाकरे,सुंदरलाल पटवा,मदनलाल खुराना,कैलासपति मिश्रा,सुंदर सिंह भंडारी जैसे तपोनिष्ठ नेताओं ने अपनी ध्येय साधना से अभिसिंचित किया है।इन्ही नेताओं के उजले चरित्र ने भारतीय समाज की चेतना में आज की बीजेपी को असीमित विश्वसनीयता देकर मोदी जैसे नेता को जन्म दिया है।यह भी तथ्य है कि प्रधानमंत्री के रुप के मोदी ने देश की आकांक्षाओं,आशाओं औऱ अपेक्षाओ को पूरा करने का काम किया है।उनकी राष्ट्रीय निष्ठा को कभी संदिग्ध नही माना है । जनस्वीकृति और विश्वास के बल पर ही 370 सर्जीकल स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक तीन तलाक जैसे नीतिगत मामलों में सरकार निर्णय ले सकी है।लोकजीवन में पारदर्शिता और ईमानदारी के मामले में आज भी प्रधानमंत्री मोदी बेमिसाल है इसका आशय समझने के लिये बीजेपी नेतृत्व को कहीं जाने की जरूरत नही है।बेहतर होगा पार्टी अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करे।कांग्रेस मुक्त भारत का सपना मोदी के आह्वान पर दो बार देश की जनता पूरा कर चुकी है लेकिन संसदीय राजनीति में विपक्ष मुक्त अवधारणा न संभव है न अपेक्षित ही।अटल जी ने लोकसभा में खड़े होकर विपक्ष का आशय”विशेष -पक्ष”के रूप में समझाया था वह भी प्रधानमंत्री के रूप में।भारत को आज अटलवाद की आवश्यकता है और मोदी ही इस वाद को जमीन पर उतार सकते है।अटलजी ने सदैव लोकतंत्र के परिष्कार की वकालत की वे राम से अनुप्राणित होकर समन्वय के मंत्र थे।खुद मोदी ने दोबारा शपथ लेने से पहले सेंट्रल हॉल में कहा है कि सरकार बहुमत से चलती है लेकिन देश सर्वानुमति से चलता है।बीजेपी नेतृत्व को प्रधानमंत्री की इस मंशा को समझना ही होगा और यह भी ध्यान रखना होगा कि मोदी को देश चलाने का जिम्मा भी देश की जनता ने दिया है राज्यों की सरकारें बनाने का काम स्थानीय नेतृत्व के कौशल पर छोड़ देना चाहिये।हर कीमत पर राज्यों में सरकार बनाने की जिद अंततः करोडों वोटरों और भारत के वैश्विक प्रधानमंत्री मोदी की छवि को प्रभावित करता है।

महाराष्ट्र के प्रहसन से पार्टी बच सकती थी लेकिन राज्यों में सरकारों की कायमी की जिद ने ही ऐसा निर्णय कराया जिसने पार्टी के कैडर को एक तरह की रक्षात्मक अवस्था मे लाने को विवश कर दिया है।बेहतर होगा राज्यों को वहां के मुख्यमंत्रियों की विश्वसनीयता के भरोसे छोड़ा जाए। क्योंकि देश की जनता मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री मोदी के कार्यों को सोशल ऑडिट अलग अलग करती है राजस्थान, मप्र,छतीसगढ़ के विधानसभा नतीजों को 4 महीने बाद ही हुए लोकसभा चुनाव नतीजों के आलोक में विश्लेषित किया जाए तो यह तथ्य आसानी से समझ आता है कि मोदी के प्रति भारत की जनता क्या सोचती है। और मुख्यमंत्रियों के बारे में उसका नजरिया क्या है? क्या जिस निष्ठा, समर्पण,औऱ शुचिता से मोदी प्रधानमंत्री के रूप में काम करते है वैसे ही राज्यों के मुख्यमंत्रियों को नही करना चाहिये?अगर वे ऐसा नही करते है तो उनके राजकाज की चिंता पार्टी नेतृत्व अपने सिर पर क्यों ढोये? हकीकत भी यही है कि जिस 130 करोड़ जनता के कल्याण की बात पीएम करते है उसे जमीन पर आकार तो संघीय व्यवस्था में राज्य की सरकारों को करना होता है।महाराष्ट्र का सबसे सामयिक और संसदीय विकल्प वही था जो देवेन्द्र फड़नवीस ने तीन दिन के सीएम की शपथ लेने से पहले किया था।राज्य की जनता ने बीजेपी से अपना भरोसा कम नही किया था नतीजों में शिवसेना की सत्ता के लिये जिद को पार्टी पूरा होने देती क्योंकि जिस कट्टर हिंदुत्व के धरातल पर शिवसेना खड़ी है वह कांग्रेस के साथ आने से वैसे ही भरभरा कर जमीदोंज होने वाला था।राज्य के नतीजे बताते है कि बीजेपी के बाद सर्वाधिक मत प्रतिशत निर्दलीयों को हांसिल हुआ है यानी जो दो और तीन नम्बर की पार्टी होने का दावा कर रहे है असल मे वे तो तीन और चार नम्बर पर है और कांग्रेस पांचवे नम्बर पर है।जनादेश की इस इबारत का अपमान करने का पाप कांग्रेस,एनसीपी,और शिवसेना को करने देने में ही बीजेपी की भलाई थी।लेकिन सरकार की जिद ने बीजेपी को इस पाप में विपक्षी पार्टियों को जाने से खुद ही सुरक्षित रास्ता उपलब्ध करा दिया।जाहिर है साधन को साध्य बनाने की सोच से ही ऐसे कर्म होते है।सवाल यह है कि क्या बीजेपी नेतृत्व महाराष्ट्र के इस प्रहसन से कठोर आत्मवलोकन की ओर उन्मुख होगा या नही?उसका कैडर तो यही अपेक्षा करता है कि पार्टी का राजनीतिक अधिष्ठान मजबूत बना रहे क्योंकि यही वह दल है जिसने लोकतन्त्र की सलामती के लिये 1977 में जेपी के आग्रह पर अपनी जनसंघ की पहचान ही विलोपित कर दी थी लेकिन जब विचार का सवाल खड़ा हुआ तो पल भर में जनता सरकार से रवानगी चुन ली थी।उसके मुख्यमंत्री कभी तिरंगे के लिये तो कभी रामलला के वास्ते सीएम की कुर्सियों को न्योछावर करते आये हैं।

सिर्फ इसलिये की पार्टी के लिये साध्य और साधन में बुनियादी अंतर ही सबसे बड़ी प्राथमिकता रहा है।

एक निवेदन

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