दुनिया में गुलाबी नगर के नाम से विख्यात जयपुर शहर में पर्यटकों के लिए यूं तो अनेक आकर्षण हैं। इन्हीं दर्शनीय स्थलों में जयपुर में कई संग्रहालय भी स्थापित किए गए हैं। यहां उन संग्रहालयों की जानकारी दे रहें हैं जो पर्यटन का महत्वपूर्ण आधार हैं। इनको देखे बिना गुलाबी नगर का भ्रमण अधूरा रह जाता है। इन संग्रहालयों का अपना वजूद,इतिहास और नायाब संग्रह हैं।
सवाई मानसिंह संग्रहालय
देश के संग्रहालयों में राजस्थान के जयपुर स्थित सिटी पैलेस में सवाई मानसिंह संग्रहालय रियासतकालीन अनूठी और दुर्लभ सामग्री का एक बेहतरीन संग्रहालय है। खास बात यह है कि संग्रहालय के साथ-साथ विभिन्न महलों की आश्चर्यजनक स्थापत्य कला, सज्जा, भित्ति चित्र आदि भी आकर्षण का केंद्र हैं। इसकी स्थापना 1959 ई. में पूर्व शासक मानसिंह द्वारा पोथीखाना तथा सिलेहखाना से कुछ दुर्लभ सामग्री एकत्र कर की गई थी। यहाँ पोथीखाना की 93 पांडुलिपियां तथा चित्र युक्त बीस पाण्डुलिपियां सुरक्षित हैं। आगे चल कर 179 पाण्डुलिपियां विविध स्थानों से खरीद कर यहां प्रदर्शित की गई। ये सभी पाण्डुलिपियां बहुमूल्य हैं। खगोल विद्या के अध्ययन, अन्वेषण के लिये सवाई जयसिंह ने दुनिया भर से संस्कृत, अरबी, फारसी तथा लेटिन भाषाओं के ग्रंथ मंगवाये थे, वे भी इस संग्रहालय में मौजूद हैं। शालिग्राम के 146 स्वरूपों का दर्शन कराने वाली दुलर्भ पांडुलिपि तथा उबेद के फारसी ग्रंथ ’मशन्वा-गोरहब’ में मुगल कालीन सत्रहवीं शती के चित्र भी दर्शनीय हैं।
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र्जाराजा जयसिंह (प्रथम) हीरात, लाहौर, आगरा तथा अन्य स्थानों से अनेक कालीन खरीद कर लाये थे जो इस संग्रहालय की शोभा बढ़ाते हैं। ये कालीन इस कक्ष की दीवारों पर प्रदर्शित किए गए हैं। हेरात का विशाल कालीन 57 फुट 5 इंच लम्बा एवं 16 फुट 2 इंच चैड़ा है। फूलों एवं पत्तियों की बुनाई वाला पश्मीनी का कालीन जिसे 1997-98 ई.में न्यूयार्क के मैट्रोपोलिटन म्यूजियम द्वारा आयोजित प्रदर्शनी ’फ्लाॅवर अण्डर फुट’ में प्रदर्शित किया गया था को भी प्रदर्शित किया गया है। यहाँ सोने-चांदी व अन्य सामग्री के बने हाथी के हौदे, तख्ते-खां, अम्बाबाड़ी, पालकी, रानी की बग्घी भी प्रदर्शित किये गये हैं। यहाँ की कला दीर्घा में ढूंढाड़, आम्बेर तथा जयपुर शैली के उत्कृष्ट चित्र प्रदर्शित किये गये हैं। इन चित्रों के साथ ही मुगल शैली , दक्खिनी शैली, मालवा, बीकानेर, बून्दी, कोटा, मारवाड़ तथा किशनगढ़ शैली के चित्र भी पर्याप्त संख्या में प्रदर्शित किये गये हैं। किशनगढ़ शैली का अठारहवीं शताब्दी का राधा-कृष्ण का एक बड़ा चित्र उल्लेखनीय है। इसी कक्ष में संस्कृत, अरबी एवं फारसी भाषाओं में लिखित तथा जयपुर के चित्रकारों द्वारा चित्रित ग्रंथ भी प्रदर्शित हैं। चित्रित पुस्तक कवर, ताड़पत्र, कागज पर हस्तलिखित ग्रंथ, पुरानी मुद्रित पुस्तकें, हस्तलिखित ग्रंथों को लिखने के साधन आदि भी प्रदर्शित हैं।
समीप ही दीवाने खास के प्रांगण में रखे दो लोटे (कलश) को पर्यटक अपलक निहारते रहते हैं। ये चांदी से बने हैं और इनका वजन 680 किलोग्राम हैं। बड़े कलश की ऊंचाई 5 फीट 3 इंच है और इसकी गोलाई है 14 फीट 10 इंच है। इसे 345 किलोग्राम चांदी से बनाया गया है। अपनी खूबसूरती और कलाकारी के चलते इस कलश का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्डस में दर्ज है। शायद ही किसी ने इतने बड़े कलश को अपनी जिंदगी में देखा होगा। ऐसा कहा जाता है कि महाराजा सवाई माधो सिंह की इच्छा को पूरा करने के लिए 1894 ई. में उनके शाही खजाने से करीब 14000 चांदी के सिक्कों को आग में पिघलाकर उसकी एक बड़ी सी शीट बनाई गई। इसके बाद चांदी की इस शीट को लकड़ी के एक कलशनुमा सांचे के साथ पीट-पीटकर उसे कलश का आकार दे दिया गया। इन्हें बनाने में दो वर्ष का समय लगा। ये गंगाजली कलश 1902 ई. में दुनिया की नजर में उस वक्त आए जब इसे इंडिया से ब्रिटेन ले जाया गया था।
पास ही मुबारक महल में भी सिलेहखाने में दुर्लभ अस्त्र-शस्त्र प्रदर्शित किये गये हैं। भारत, फारस तथा अन्य देशों में मध्य पूर्वकाल, मध्यकाल तथा बाद के काल में बनी बहुत सी तलवारें यहां प्रदर्शित हैं, जिनकी बनावट, मूठों की कारीगरी तथा मयानों की आकृतियाँ- सज्जा देखते ही बनती हैं। कुछ तलवारों की मूठ पर तो हीरे-जवाहरात भी जड़े हुए हैं। आकर्षक कारीगरी से युक्त कवच तथा शिरस्त्राण, हाथीदांत, चांदी, क्रिस्टल तथा जस्ते से बने तलवारों के दस्ते भी प्रदर्शित हैं। लोहे से बना 17वीं शती का एक धनुष भी रखा है जिस पर कोफ्तगिरि का कार्य किया गया है। इस संग्रह की कुछ तलवारें 17वीं शताब्दी में बनी थी जिन्हें शाहजहाँनी कहा जाता है। वस्तुतः ये ईरान में बनी हुई तलवारें हैं जिन्हें शाहजहाँ ने मिर्जा राजा जयसिंह को भेंट की थी। हाथी दांत, सोने और चांदी की मूठ वाले खमवा, चाकू, छुरे तथा कटारें, सींग तथा शंखों से बनी बारूददानी पात्र, तरह-तरह की बन्दूकें, राइफल और पिस्तौलें, धनुष, बाण, ढाल, गुर्ज, बाघनख, जिरेह बख्तर, लाठियां तथा बेंत बड़ी संख्या में प्रदर्शित हैं। राजा मानसिंह (प्रथम) का भारी भरकम खाण्डा इस संग्रहालय का विशेष आकर्षण है।
मुबारक महल के ऊपरी खण्ड में आकर्षक वस्त्र प्रदर्शनी में विविध प्रकार के वस्त्र प्रदर्शित किये गये हैं। यहाँ प्रदर्शित सवाई माधोसिंह (प्रथम) का विशाल आतमसुख दर्शकों का ध्यान आकर्शित करता है। रेशम के कपड़े से बने हुए सुनहरी जरी के काम का यह एक ढीला-ढाला, सर्दी में पहना जाने वाला वस्त्र है। इसमें हल्के पीले रंग के सूती कपड़े का अस्तर लगाया गया है। पतले सिल्क में बारीक किनारे लगाई गई है। बनारसी किमखाब की बनी सर्दियों की इस भारी पोशाक में रूई भरी हुई है। मुख्य कपड़े की लम्बाई 198.5 सेंटीमीटर तथा बाहों की लम्बाई 91 सेंटीमीटर है। सीना 355 सेंटीमीटर एवं कमर 681 सेंटीमीटर है। इसी से अनुमान लगता है कि वे लंबे और अच्छी कद काठी के थे। प्रदर्शित वस्त्रों में महाराजा सवाई प्रतापसिंह के विवाह पर पहना गया 320 कली का विशाल घेर वाला लाल सूती 129 सेंटीमीटर लंबा जामे की सज्जा जयपुरी गोटे से की गई है।
महाराजा सवाई रामसिंह द्वितीय की अंगरखी के किनारों पर घनी कशीदाकारी की गई है तथा जयपुर की महारानियों द्वारा दीपावली पर पहनी जाने वाली काली सूती पोशाक पर सुंदर गोटे का काम किया गया है, चुनरी पर पक्षियों का अलंकरण है, किनारे पर बेल तथा पल्ले पर कैरी की डोर बनी हुई है एवं इसमें ओढ़नी, लहंगा तथा कांचली शामिल हैं आकर्षित करती है। यहाँ कशीदा कार्य के काश्मीरी शाॅल, बनारस एवं सूरत के किमखाब, सांगानेर की ठप्पा छपाई के नमूने, जयपुरी बांधनी, जयपुर का गोटा तथा बंधेज से बनी स्त्री-पुरूषों की पोशाकें भी प्रदर्शित हैं। संग्रहालय में बेशकीमती रियासतकालीन वस्तुओं को विदेशी पर्यटक भी बहुत ही रुचि और कौतुक से निहारते हैं। संग्रहालय सुबह 9.30 बजे से सांय 5.00 बजे तक दर्षकों के लिए खुला रहता है।
एलबर्टल संग्रहालय
एलबर्टल संग्रहालय में प्रवेश करने से पूर्व ही भवन के गलियारों की दीवारों पर चित्रकला की विविध शैलियों के भित्ति चित्रों के साथ यूरोपीय, मिस्र, चीनी, ग्रीक और बेबीलोनियन सभ्यताओं के चित्रण और राजा-महाराजाओं के बड़े-बड़े चित्रों के साथ ही संग्रहालय दर्शन की यात्रा शुरू हो जाती है। इस संग्रहालय में विभिन्न मनोरंजक गैलरियों में उन्नीसवीं शताब्दी से प्राचीन काल तक की वस्तुओं का खजाना देखने को मिलता है। मिश्र की प्राचीन ममी संग्रहालय का विशिष्ठ संग्रह है ,जिसके साथ-साथ मिस्र की कलात्मक सामग्री दीर्घा को प्रथम तल पर प्रदर्शित किया गया है। इस संग्रहालय के लिये सामग्री का संकलन जयपुर के अंग्रेज चिकित्सा अधिकारी एवं कला विशेषज्ञ कर्नल हैण्डले ने किया था। संग्रहालय में इतिहास भूगर्भाशास्त्र, अर्थशास्त्र, विज्ञान और कला कौशल विषयों पर आधारित सामग्री ब्रिटेन, ईरान, मिश्र, बर्मा, लंका, जापान, तिब्बत, नेपाल आदि स्थानों से एकत्रित की गई है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद ई. 1959 में डाॅ. सत्यप्रकाश श्रीवास्तव के निर्देशन में इस संग्रहालय को नया रूप दिया गया।
दर्शक टिकट लेकर संग्रहालय के भूतल पर प्रवेश करता है तो प्रारम्भ में राजस्थान की जनजातियां राजपूत, मीणा, व्यापारी, भील, गाड़िया लुहार तथा उनकी स्त्रियों के मॉडल्स की झांकियाँ हैं। जिनकी रूपाकृति, वेशभूषा, आभूषण, उनसे सम्बन्धित कृत्रिम परिवेश निर्माण एवं किये जाने वाले सम्बन्धित कार्यों का पर्दशन आधुनिक शो केसों में किया गया है।
सांस्कृतिक कक्ष में संगीत वाद्य, होली, गणगौर, विवाह, कथक, घूमर, डांडिया नृत्य के दृश्य माॅडल्स द्वारा दर्शाए गये हैं, इनकी ध्वनियां और गीत सुनने के लिए स्वचालित ध्वनियंत्र लगाये गए हैं। इन माॅडल्स के माध्यम से देशी-विदेशी पर्यटकों को राजस्थान की जनजातियों, उनके नृत्य-गायन, सामाजिक तथा सांस्कृतिक गतिविधियों की जानकारी मिलती हैं। संगीत के शास्त्रीय और लोक वाद्य भी सजाए गये हैं। पत्थर की कुराई, सोने के गहनों पर मीने का काम, हाथी दांत की कुराई, बीकानेरी सुनहरी बर्तन, ऊंट के चमड़े के बर्तनों पर सुनहरी काम, लकड़ी की कुराई, पीतल की चिताई, थलाई, कुराई का काम, प्राचीन प्रतिमाओं, आयुधों व प्राचीन चित्रों का क्रमिक विकास प्रदर्शित किया गया है।
संग्रहालय के भू-तल की दीर्घाओं में जहाँ राजस्थान के सांस्कृतिक पक्ष को दर्शाया गया है वहीं ऊपर की दीर्घा में दांई तरफ देश के विभिन्न प्रान्तों का कला-कौशल प्रदर्शित किया गया है। बीच के तीन बड़े कक्षों में प्राचीन लघु चित्रों देखे जा सकते हैं जिनमें लगभग सभी शैलियों के चित्र प्रदर्शित हैं। बायीं ओर की दीर्घा में भू-गर्भ शास्त्र, प्राणि शास्त्र विज्ञान एवं शरीर विज्ञान सम्बन्धी वस्तुएं आकर्षित करती है।
कालीन गैलरी में
दुनिया में फारसी उद्यान कालीनों का सबसे अच्छा उदाहरण है। जो 1632 ई में मिर्जा राजा जय सिंह के समय पर खरीदे गए थे जिनके कारपेट में फारसी उद्यान के दृश्य को दिखाया गया है। इसे चार भागों में विभाजित किया गया है जो कई वर्गों में उप-विभाजित हैं। विभिन्न रंगों का प्रत्येक भाग कालीन को शानदार बनाता है जिसमे मछलियों, पक्षियों, कछुओं और अन्य चीनी जानवरों को भी देखा जा सकता है। और यहाँ गैलरी में डोरमैट, मुगल और पुष्प पैटर्न के साथ गोलाकार कालीन भी देखे जा सकते हैं।
विविध गैलरियाँ
दिलचस्प सिक्का गैलरी में मुगलों और अंग्रेजों द्वारा उपयोग किए जाने वाले सिक्कों की एक विस्तृत श्रृंखला दिखाई देगी। पंच-मार्का सिक्कों को सिक्कों के इतिहास में सबसे प्राचीन काल माना जाता है। जहाँ अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब के शासनकाल से संबंधित कई मुगल काल के सिक्के राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में खोजे गए थे। अन्य दीर्घाओं में ज्वेलरी, क्ले आर्ट, वस्त्र, संगमरमर कला, मिट्टी के बर्तन, मूर्तियां, धातु कला, हथियार और कवच जैसी अन्य रोमांचक दीर्घाएँ भी दर्शनीय हैं।
जयपुर के राम निवास गार्डन के मध्य में स्थित जयपुर संग्रहालय भवन का शिलान्यास महाराजा रामसिंह द्वितीय के शासनकाल में 1876 ई. में प्रिंस एलबर्ट द्वारा किया गया जो आगे चलकर एडवर्ड सप्तम के नाम से इंग्लैण्ड का राजा हुआ। उसी के नाम पर इसका नाम एलबर्ट म्यूजियम रखा गया। यह भवन1886 ई. में बनकर तैयार हुआ। ई. 1887 में महाराजा माधोसिंह द्वितीय के शासनकाल में 1886 ई. में सर एडवर्ड ब्रेडफोर्ट ने इसका विधिवत् उद्घाटन किया। इस भवन का नक्शा इंजीनियर स्विन्टन जैकब ने तैयार किया था जबकि निर्माण कार्य जयपुर के चन्दर और तारा मिस्त्रियों ने किया। यह भवन इंडो-सरैसेनिक वास्तुकला का एक अच्छा उदाहरण है। संग्रहालय की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगता है कि जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरा गांधी, अरब के राष्ट्रपति कर्नल नासिर, नेपाल नरेश, ईरान के शाह, बंगलादेश के सांस्कृतिक मंत्री, भारत के राष्ट्रपति डाॅ. राधाकृष्णन तथा अनेक देशी-विदेशी व्यक्तियों ने इस संग्रहालयों का भ्रमण किया और संग्रहालयों के नवीन रूप की भूरि-भूरि प्रशंसा की। संग्रहालय दर्षकों के लिए प्रातः 9.30 से सांय 5.00 बजे तक खुला रहता है।
हवामहल संग्रहालय
जयपुर के संग्रहालयों में बड़ी चैपड़ के समीप कारीगरी में अनुपम हवामहल में 1983 ई. में स्थापित संग्रहालय इस अंचल की पुरात्तत्व वस्तुओं, मुद्रा,अभिलेख,मूर्तिकला और हस्तशिल्प की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण संग्रहालय है। संग्रहालय में छः दीर्घाओं ढूंढार देश युगों-युगों में , मुद्रा कक्ष , अभिलेख कक्ष ,मूर्तिकक्ष ,जयपुर कला एवं हस्तशिल्प कक्ष में सामग्री का प्रदर्शन किया गया है।
’ढूंढार देश युगों-युगों में’ दीर्घा प्रताप मंदिर में स्थापित है। इसमें प्रागैतिहासिक युग से लेकर ऐतिहासिक युग तक ढूंढार प्रदेश की पुरातात्विक वस्तुओं का दर्शन कराया गया है। अंचल के बैराठ से प्राप्त आदि-मानव के प्रमाण के रूप में पाषाण उपकरण एवं ताम्रयुगीन सभ्यताओं में नीम का थाना, जिला सीकर के गणेश्वर एवं कोटपूतली, जिला जयपुर के जोधपुरा में की गई खुदाई से प्राप्त उन्नत व विभिन्न उपयोगों के कलात्मक ताम्र उपकरण प्रदर्शित हैं। ऐतिहासिक युग के बैराठ एवं सांभर ( जयपुर), रेढ (टोंक), नगर (टोंक) आदि के उत्खनन से प्राप्त लौह उपकरण, मृदृपात्र एवं मृण्मूर्तियां दर्शाई गई हैं। यहां प्रदर्शित मौर्य युग से गुप्त युग तक की मृण्मूर्तियों में नगर से प्राप्त महिषासुरमर्दिनी तथा कामदेव की मृण्मूर्तियां भी रखी गई हैं।
संग्रहालय की मुद्रा दीर्घा में ईसा से छः सौ वर्ष पहले से लेकर बीसवीं शताब्दी तक की मुद्रायें प्रदर्शित हैं जो मुद्रायें रैढ व नगर (जिला टौंक), बैराठ, सांभर और इस्माइल पुर (जिला जयपुर) से प्राप्त हुई हैं। इन मुद्राओं पर कोई लेख नहीं होकर जैसे-सूर्य, बोधि-वृक्ष, षड्चक्र, मेरू, चन्द्र आदि मिलते हैं। कुषाणों ने स्वर्ण मुद्राएं भी जारी की थी। जमुवारामगढ़ (जयपुर) से कुषाण कालीन ताम्र मुद्राएं करौली, बैढ़, सुखपुरा (जिला टोंक) से प्राप्त हुईं, जिनमें समुद्रगुप्त, काचगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय की स्वर्ण मुद्राएं मिली हैं। विभिन्न राजपूत वंशों विशेषतः चैहान कालीन नरेशों के सिक्के प्रचुर मात्रा में इस क्षेत्र से मिले हैं। ग्राम गांवली से पृथ्वीराज चैहान के सिक्कों की प्राप्ति उल्लेखनीय है। दिल्ली के सुल्तानों और मुगलिया हुकूमत के शासकों ने अपने सिक्के जारी किए जिन पर अरबी-फारसी भाषा में सुन्दर लेख उत्कीर्ण हैं। ढूंढार प्रदेश से ऐसे सिक्के (आमेर, फागी, दयारामपुरा, बैराठ बगरू, जयपुर, हर्ष, सीकर) बड़ी संख्या में मिले हैं। जयपुर नरेश सवाई जयसिंह, ईश्वरसिंह, माधोसिंह, प्रतापसिंह, रामसिंह एवं मानसिंह के सोने-चांदी व ताम्र सिक्के प्रचलित हुए। सवाई जयसिंह ने 1727 ई. में जयपुर में टकसाल की स्थापना की थी।
अभिलेख कक्ष-इस कक्ष में ढूंढार प्रदेश के इतिहास एवं संस्कृति को ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से लेकर राजपूत काल तक के अभिलेखों के माध्यम से प्रस्तर खण्ड, मृण्मयी मूर्तियों एवं ताम्रपत्र के रूप में उजागर किया गया है। बैराठ से राजस्थान के प्राचीनतम लेख-अशोक के दो शिलालेख (ईस्वी पूर्व 272-32) प्राप्त हुए हैं, जिनमें अशोक की बुद्ध, धम्म और संघ में अगाध निष्ठा लक्षित होती है। ग्राम बरनाला लालसोट के समीप से प्राप्त दो यूप स्तम्भ प्रदर्शित हैं। बधाल (रींगस, जिला जयपुर) से प्राप्त (विक्रम) सम्वत् 872 का कुटिल लिपि में लिखित ताम्रपत्र प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय का एकमात्र ऐतिहासिक अभिलेख है। कछवाहों का विक्रम सम्वत् 1669 (ईस्वी 1612) का महत्वपूर्ण अभिलेख है।
मूर्ति कक्ष-इस कक्ष में ढूंढार प्रदेश की मूर्तिकला को दर्शाया गया है। यहां प्रतिहार कालीन (8-9वीं शती) नरहड़ (पिलानी, जिला झुंझुनूं) की जैन तीर्थंकर सुमतिनाथ तथा आभानेरी (बान्दीकुई, जिला जयपुर) की महिषासुरमर्दिनी, शिव सहित मातृका फलक तथा दशानन रावण द्वारा कैलाश पर्वत धारण आदि सुन्दर मूर्तियों के साथ-साथ चैहान कालीन (11-12वीं शती) सांभर-चाकसू, जयपुर की वामनावतार तथा विष्णु के विभिन्न अवतारों की मूर्तियों को प्रदर्शित किया गया है। इनके साथ ही 18वीं शताब्दी की सफेद मकराना की निर्मित वेणुधारी कृष्ण का भव्य अंकन भी प्रदर्शित है।
कला एवं हस्तशिल्प कक्ष में लघु चित्रों के माध्यम से जयपुर चित्र शैली के विकास एवं योगदान को दर्शाया गया है। जयपुर चित्र शैली में कलाकारों ने राजाओं के साथ-साथ कवियों, सन्तों, संगीतकारों को भी चित्रांकित किया है। राजसी वैभव, दरबार, शिकार के दृश्य, होली, तीज, गणगौर आदि त्यौहारों का चित्रण भी है। इसी शैली के राग-रागिनी एवं बारहमासा के चित्र भी हैं। हस्त-शिल्प के क्षेत्र में जयपुर की मीनाकारी, ब्ल्यू पाॅटरी, धातु की कलात्मक सामग्री, काष्ठकला, तथा अस्त्र-शस्त्र विश्वविख्यात हैं। यहां प्रदर्शित काष्ठ निर्मित झरोखे एवं गणपति की प्रतिमा, रामायण दृश्यावाली का धातु निर्मित विशाल थाल, ढाल, सवाई माधोसिंह द्वितीय की छतरी, ज्योतिष-विद्या सम्बन्धी यंत्रों की प्रतिकृतियां हस्तशिल्प के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। खगोल यंत्र का माॅडल तथा कशीदाकारी व मीनाकारी की हुई थाल भी प्रदर्शित की गई है जो ब्रिटेन में आयोजित भारत महोत्सव में दिखाने के लिए प्रतिनिधि पुरातात्विक सामग्री के रूप में चुने गए थे। शरद एवं रतन मंदिर में जयपुर की विभिन्न विभूर्तियों कछवाहा नरेशों, संगीतकारों, कलाकारों, विद्वानों, कवियों, स्वतंत्रता सैनानियों, नृत्याचार्यों आदि को दर्शाया गया है। पर्यटक जब हवामहल देखने जाते हैं तो इस संग्रहालय को भी अवश्य देखते हैं। संग्रहालय प्रतिदिन सुबह 10.00 से सांय 5.00 बजे तक दर्षकों के लिए खुला रहता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं व राजस्थान जनसंपर्क के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं )
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