सचमुच। पंकज सुबीर की दस कहानियों का ताजा संकलन ‘हमेशा देर कर देता हूँ मैं’ मुझे मिला, तो एक-दो दिन तक इसे अपने टेबुल पर पड़ा रहने दिया, जैसे कोई देव विग्रह हो। फिर पढ़ना शुरू किया तो नियम बनाया कि एक दिन में बस एक कहानी पढ़ूँगा। वजह यह कि लगा, दस ही तो कहानियाँ है, दस दिनों में खत्म हो जाएँगी, तो फिर क्या पढूँगा ? खैर। किताब पूरी हुई। कुछ दिनों तक इन कहानियों का नशा तारी रहा। सोचता रहा, इस पर लिखना तो है। इसी बीच सीधे हिमालय से बरास्ता दिल्ली आती हुई प्राणलेवा शीतलहर। बकौल एक भोजपुरी उक्ति ठंड का कहना है कि वह वरिष्ठ नागरिकों को छोड़ेगा नहीं, चाहे वे कितनी भी रजाइयाँ ओढ़ लें। इस छह पाँच में दिन निकलते गए और मैंने पाया, इस कहानी संकलन पर लोगों की समीक्षाएँ आ गई हैं, यानी आनी शुरू हो गई है और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। सच, हमेशा देर कर देता हूँ मैं भी।
बहरहाल, हम पंकज सुबीर की कहानियों में घटनाओं का सिलसिता, चाहे वे छोटी छोटी गतिविधियाँ ही हों देखने-पढ़ने के आदी रहे हैं। मुझको लगता है कि इधर पंकज सुबीर की कहानियों में नरेशन-विवरण बढ़ता गया है। गो फिर भी सुबीर टच तो इन कहानियों में है ही। सुबीर- टच यों कि या तो प्रसंग ऐसे होंगे जो आपके जाने सुने नहीं होंगे। या परिचित प्रसंगों के भी जिस निष्कर्ष पर पहुंचने का अनुमान आप लगा रहे होंगे वे गलत साबित होंगे। पंकज सुबीर इसीलिए पंकज सुबीर हैं। पहली ही कहानी, जिसके शीर्षक को ही पुस्तक का नाम दिया गया है, उसके प्रसंग प्रायः जाने सुने हैं। लंबी चाची की भूख भी अस्वाभाविक नहीं लगती। कोई भी कच्चा कहानीकार लंबी चाची की भूख को मन्नी से शांत करा देता। ऐसे दृश्य सिरजने का अपना मजा था। लेकिन अपराध-बोध से ग्रसित लंबी चाची ने बंधान में कूदकर जान दे दी है। अपराध-बोध? इससे तो भर गया है मन्नी। ज़फर के परामर्श पर हिम्मत बाँधता है मन्नी, पर देर हो चुकी है। मुनीर नियाजी की ग़ज़ल की पंक्तियाँ एक अजीब से कलात्मक काव्यात्मक अवसाद में डुबो देती हैं कहानी को, और जो कहानी एक साधारण सी यौन कथा होती वह असाधारण मनोवैज्ञानिक कहानी बन जाती है। यही हैं पंकज सुबीर।
दूसरी कहानी ‘बेताल का जीवन कितना एकाकी’ को पढ़ते हुए सन साठ के दशक का दौर याद आ जाता है जब राजा निरबंसिया’ जैसी कहानियाँ लिखी जा रही थी, दो दो कहानियाँ एक साथ एक दूसरे से टकराती, अलग होती और अंततः एक समग्र प्रभाव छोड़ती। बूढे की कहानी में दो कहानियाँ है, कुछ-कुछ फंतासी शैली में रचित, और जो कह जाता है कहानीकार वह है आज के जीवन का त्रास बाल बच्चे पढ़ लिखकर विदेश में सेटल हो जाते हैं और रह जाता है पिता या रह जाते हैं पिता माता, अकेले बिसूरने को। बेटे बेटियों की जिंदगी में वे क्यों दखल दें? और अपनी ज़िंदगी अपने ढंग से जी चुके बुजुर्गों को अपने परिवेश से कट कर जीना रास भी आएगा क्या। विदेश ही नहीं, स्वदेश में भी उच्च पदस्थ बेटे-बेटियों के बड़े शहरों में अपनी दुनिया बसा लेने पर बिसूरना ही शेष रह जाता है माता-पिता के जीवन में। आज की जिंदगी की यह त्रासद तसवीर यों फंतासी की शैली में पंकज सुबीर ही लिख सकते हैं शायद।
तीसरी कहानी ‘मर नासपीटी’। इस कहानी को दो कोणों से देखा जा सकता है। पहल तो यह कि एक हिंदू कथाकार मुसलमान चरित्रों को लेकर इतने मजे से कहानी सुना रहा है कि लगता है, यह सारा परिवार परिवेश उसका जाना सुना हो। आपसी सद्भाव जगाने बढ़ाने का एक तरीका यह भी है, जैसा रामचन्द्र शुक्ल ने कहा था, एक दूसरे की कहानियों को जानना-समझना। यह तो हुई एक बात। यहाँ हलीमा और ज़रीफ़ा की गोतियारो की लड़ाई का अंत जो दिखाया है कहानीकार ने वह अत्यंत कलात्मक काव्यात्मक है। नहीं, हलीमा और ज़रीफा एक दूसरे के बाल नहीं नोच रही …. हलीमा पागलों की तरह (मर नासपीटी, मर नासपीटी) कहती हुई टिन की छतों पर पत्थर फेंक रही है और ज़रीफ़ा उसके सामने घुटनों के बल बैठी रो रही है। इस काव्यात्मक कथा को आप स्वयं पढ़ें।
‘खोद खोद मरे ऊँदरा, बैठे आन भुजंग उर्फ भावांतर’ संकलन की चौथी कहानी। कुछ-कुछ लेखक के उपन्यास अकाल में उत्सव की याद दिलाती हुई। नहीं, कथा- साम्य नहीं है यहाँ, किंतु किसानों की बेचारगी की प्रामाणिक कथा है, कुछ वैसी ही प्रामाणिक। लंबे , और एक अर्थ में असमाप्त किसान आंदोलन को हम देख चुके हैं। जिन्हें किसानी का निकट का अनुभव नहीं है वे नहीं समझ पाएँगे इस रहस्य लोक को। हम तो लहर गिन कर भी पैसे कमाना जानते हैं। तुम डाल-डाल, हम पात-पात ! और यह कहानी आंचलिकता का स्वाद भी देती है, गो समस्या सार्वदेशिक ही है। मजदूर झोपड़ियों में ही रहते हैं, उनके बनाये महलों में अमीर बसते हैं। पुनः कथाकार की पीठ थपथपाने की इच्छा होती है, इसलिए भी कि उसका कथा-वितान कितना बहुआयामी है। और ‘मूंडवे वालों का जलवा’ खालिस किस्सागोई के अंदाज में कही गई कहानी और पैसों के फूहड़तम प्रदर्शन का रोमांचक आख्यान। इस कहानी का दर्द अपनी जगह, इसकी कथा-कथन की शैली बाँधती है। पैसे हैं तो दिखाना भी पड़ता है भाई ! बाप रहें कि जाएँ।
छठी कहानी ‘पत्थर की हौदें और अगनफूल’। पुनः इस कहानी की बुनावट भी खास है। प्रारंभ करते हुए लगता है कि यह कहानी जनजाति बहुल क्षेत्र में किसी अंदरूनी स्थान की प्रागैतिहासिक खोज कर रही है, फिर अंधविश्वास में फँसी भोली महिलाओं को शिकार बनाने वाले कथित संत-महात्मा का रहस्य खुलता है। सर्वाधिक आकर्षक है कहानी में व्यंजना-वृत्ति का प्रयोग, भूख पीताम्बर गुदेनिया में भी जगी है, लेकिन बड़ों की भूख पहले शांत होनी चाहिए। पहले पहुँच चुके हैं राकेश अस्थाना हार कर लौट रहे हैं पीताम्बर। शोषण की इस कथा की प्रस्तुति चौंकाती है। परिचित कथा को यों भी परोसा जा सकता है कि लगे कि सारा परिवेश अपरिचित है।
सातवी कहानी क़ैद पानी। ‘इलाहाबाद के पथ पर’ निराला को जो मजदूरनी पत्थर तोड़ती दिखी थी वह नए रूप में गाँव से दूर दबंग द्वारा ‘क़ैद किए गए पानी’ की मुक्ति की लड़ाई लड़ रही है। हाकिम तरुण विश्वकर्मा ‘ललकारते हैं’ और गाँव की उपेक्षिता पानी को कैद करने वाले ताले और सीकढ़ को तोड़ रही है। काश! सच में ऐसा होता। हम होंगे कामयाब एक दिन होंगे क्या?
वास्को-डी-गामा और नील नदी थोड़ी गझिन कहानी है। रूपकात्मक प्रतीकात्मक। वास्को- डी-गामा खोजने चला था कोई और देश, पहुँच गया कहीं और वास्को-डी-गामा है वासु कोहली और उनकी खोज है और नील नदी है नीलोफर। और दोनों की लाशें मोर्चरी में पड़ी है। इधर पंकज सुबीर की कहानियों की बुनावट सरल -रेखीय नहीं होती। लेखक को इस गझिन बुनावट के लिए जितना दिमाग लगाना होता है, कहानी को ‘डिसाइफर’ करने के लिए पाठक भी तो कुछ दिमाग लगाए। शुक्ल जी ने लिखा था- कविता कोई रसगुल्ला नहीं है कि मुँह में रखिए और हलक के पार हो जाए। कवि को जैसे कविता लिखने के लिए श्रम करना पड़ता है, कविता का पाठक भी उसका अर्थ समझने के लिए कुछ श्रम करे। कहानी भी सदैव मुँह में घुल जाने वाला रसगुल्ला नहीं होती। ‘चर्चे-ऐ-गुम’ संकलन की नौवीं कहानी, अपेक्षया सरल बुनावट वाली, फिर भी मुँह में घुल जाने वाले रसगुल्ले सरीखी नहीं है तो यह सीधी सी कहानी, हाकिमों को अनुकूल कर ऐसी जमीन को हड़प जाने वाली जिसका लंबे समय से कोई दावेदार नहीं है। किंतु पंकज सुबीर इस कहानी में एक धार्मिकता वाला पुट जोड़ते हैं। चर्च गुम नहीं हुआ है, उस जमीन पर शहर की सबसे मशहूर मिठाई की दुकान है। इस मिठाई की दुकान से शहर के हाकिम-हुक्काम सभी उपकृत हैं, तो भला अब चर्च की ज़मीन कहाँ और कैसे मिले। चर्च गुम हो गया है, जमीन सहित।
और संकलन की अंतिम कहानी, दसवीं ‘इलोई !इलोई! लामा सबाख्तानी’ यह कहानी ‘हंस’ में छपी थी। इस कहानी के शीर्षक को पढ़ कर दो विपरीत टिप्पणियाँ मुझको याद आई। एक तो यह कि कहानी का शीर्षक ऐसा हो जो पाठक के मन में कुतूहल जगाए। लोग ‘उसने कहा था’ की बात करते थे – किसने कहा था? क्या कहा था? यह कुतूहल जगाता है शीर्षक और इस कुतूहल के शमन की विकलता में पाठक कहानी पढ़ता जाता है। याने शीर्षक चौंकाने वाला हो। दूसरा प्रसंग याद आता है ‘बच्चन जी’ की प्रसिद्ध कविता ‘दो चट्टानें’ का। इसी नाम के संकलन पर बच्चन जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। कविता की प्रवेशिका में बच्चन जी ने लिखा है कि ‘पहले में इस कविता का शीर्षक ‘सिसिफस बरक्स हनुमान’ रखने जा रहा था, फिर मुझको लगा कि हिंदी के आम पाठकों का जो हाल है, वे कहेंगे या पूछेंगे – हनुमान तो हनुमान, यह सिसिफस क्या बला है? और पाठकों को चौंकाना मुझको उचित नहीं लगा, इसलिए मैंने सीधा-सा शीर्षक रख दिया दो चट्टानें। एक चट्टान वह जिसे श्री हनुमान आज भी हथेली पर उठाए घूम रहे हैं। (लोक कल्याणार्थ) और दूसरी चट्टान वह जिसे अहर्निश सिसिफस ठेल कर पर्वत पर चढ़ा रहा है। (करना ही यही है)। सिसिफस का सारा उद्यम व्यर्थ है। खैर- थोड़ा डायवर्शन हो गया। मूल बात यह कि कहानी का यह शीर्षक कुतूहल तो जगाता ही है, किन्तु कहानी लंबी इसलिए हो गई है कि इसे इतिहास-कथा जैसा विस्तार दिया गया है, किंतु कहानी जहाँ जाकर खत्म होती है, पाठक सन्न रह जाता है, एक प्रकार के अवसाद से भरा। कथाकार का कौशल इसमें है कि अंत का यौन प्रसंग जुगुत्सा नहीं जगाता, मजा नहीं देता, खिन्न कर देता है, पाठक को एक प्रकार के अवसाद से भर देता है। कहानी दादी नानी की कहानी की तरह चलती है और एक राज़ खोलती है। कहते हैं ईसा को सलीब पर चढ़ाया गया था, तो मृत्यु से ठीक पहले वह चिल्लाकर बोले थे इलोई, इलोई लामा सबाख्तानी याने ‘हे ईश्वर हे ईश्वर, तूने मुझे क्यों छोड़ दिया?’
इस कहानी को ही नहीं, संकलन की सभी दस कहानियों को आप स्वयं पढ़ें। पंकज सुबीर के कथा- लेखन का कौशल ही यह है कि वे सीधी-सादी कथा को भी यों प्रस्तुत करते हैं कि आप उसके तिलस्म में कुछ देर के लिए उलझे रह जाते हैं।
हमेशा देर कर देता हूँ (दस कहानियों का संकलन)
लेखक – पंकज सुबीर
प्रकाशक – राजपाल एंड संस, 1590, मदरसा रोड कश्मीरी गेट दिल्ली-110006
संस्करण प्रथम 2021, मूल्य ₹295 (पेपर बैक, डिमाई, 192 पृष्ठ)
( समीक्षक अशोक प्रियदर्शी लेखक समीक्षक एवँ वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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