सितंबर का महीना आ रहा है। हिंदी की धूम मचेगी। सब अचानक हिंदी की सोचने लगेंगें। सरकारी विभागों में हिंदी पखवाड़े और हिंदी सप्ताह की चर्चा रहेगी। सब हिंदीमय और हिंदीपन से भरा हुआ। इतना हिंदी प्रेम देखकर आंखें भर आएंगी। वाह हिंदी और हम हिंदी वाले। लेकिन सितंबर बीतेगा और फिर वही चाल जहां हिंदी के बैनर हटेंगें और अंग्रेजी का फिर बोलबाला होगा। इस बीच भोपाल में विश्व हिंदी सम्मेलन भी होना है। यहां भी दुनिया भर से हिंदी प्रेमी जुटेगें और हिंदी के उत्थान-विकास की बातें होगीं। ऐसे में यह जरूरी है कि हम हिंदी की विकास बाधा पर भी बात करें। सोचें कि आखिर हिंदी की विकास बाधाएं क्या हैं?
एक तो यह बात मान लेनी चाहिए कि हिंदी अपने स्वाभाविक तरीके से, सहजता के नाते जितनी बढ़नी थी, बढ़ चुकी है। अब उसे जो कुछ चाहिए वह इस तरह के कर्मकांडों से नहीं होगा। अब उसे जो कुछ दे सकती है सत्ता दे सकती है, राजनीतिक इच्छाशक्ति और संकल्प दे सकते हैं। पर क्या हमारी राजनीतिक,प्रशासनिक और न्यायिक संस्थाएं हिंदी को उसका हक देने के लिए तैयार हैं? यही सवाल भारत की सभी भाषाओं के सामने है। अगर सत्ता हक देना चाहती है, तो उसे किसने रोक रखा है? क्या वे अनंतकाल तक किसी शुभ मूहूर्त की प्रतीक्षा में ही रहेंगी या वे आगे बढ़कर हिंदी को, भारतीय भाषाओं को सम्मान दिलाने का फैसला करेंगीं। हिंदी और भारतीय भाषाओं में भारतीय नागरिकों को न्याय सुलभ होना चाहिए, आखिर इस फैसले पर किसे आपत्ति हो सकती है। पर है और बहुत गहरी आपत्ति है। न्याय भी हमें एक विदेशी भाषा में मिलता है,पर हम विवश हैं। इस विवशता में जो कुछ छिपा हुआ है उसे समझने की जरूरत है। इसी तरह हमारी उच्चशिक्षा का माध्यम भी कमोबेश एक विदेशी भाषा है। ज्यादातर भारत को इस तरह अज्ञानी रखने का षडयंत्र समझ से परे है। सत्ता आती है, जाती है किंतु हिंदी का सवाल वहीं का वहीं है। देश हिंदी में बोलता है, सोचता है, सांसें लेता है, सपने देखता है, अपने आंदोलन-संघर्ष करता है। किंतु अध्ययन-अध्यापन-रोजगार में सफलता की गारंटी तभी है जब आप अंग्रेजीदां भी हों। यहां किसी भाषा का विरोध या समर्थन का भाव नहीं है बल्कि अपनी भाषा के लिए आदर का भाव है। अगर भारतीय भाषाएं रोजी-रोजगार और शिक्षा की भाषा नहीं बन सकीं तो इसका जिम्मेदार कौन है? राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से लेकर आजादी के आंदोलन के सभी सिपाहियों ने अगर हिंदी को आजादी के आंदोलन की भाषा माना और कहा कि यही भाषा देश को एक सूत्र में बांध सकती है तो आजादी के बाद ऐसा क्या हुआ कि हिंदी उपेक्षिता हो गयी? सही मायने में अतिलोकतंत्र और सुनियोजित साजिशों ने हिंदी को उसके स्थान से गिराया और जनभावनाओं की उपेक्षा की।
जो देश अपनी भाषा में शिक्षा न हासिल कर सके, राज न चला सके, न्याय न कर सके, न न्याय पा सके उसके बारे में क्या कहा जा सकता है? हिंदी की वैश्विक लोकप्रियता के बावजूद, उसके व्यापक आधार के बाद भी हिंदी आज भी देश की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी तो इसके कारणों पर विचार करना होगा। देश की आजादी के बाद आखिर क्या हमारी सोच, एकता और सद्भावना के सूत्र बदल गए हैं? क्या आज हम ज्यादा विभाजित हैं और अपनी क्षेत्रीय अस्मिताओं को प्रति ज्यादा आस्थावान हो गए हैं? राष्ट्रीयता का भाव और उसकी भावना कम हो रही है? अगर ऐसा हुआ है तो क्या इन आजादी के सालों में हमने अपनी जड़ों से दूर जाने का काम किया है। जड़ों से दूर होता समाज क्या अपने राष्ट्रीय कर्तव्यों को पूर्ण कर पाएगा? भाषा के सवाल पर आज जिस तरह हम बंटे हैं और निरंतर बांटे जा रहे हैं उससे लगता है कि अंग्रेजी लंबे समय तक राजरानी बनी बैठी रहेगी। हालात यह हैं कि आज अंग्रेजी समर्थकों की जमात आजादी की प्रप्ति के वर्ष से ज्यादा ताकतवर है। यह कितना बड़ा अन्याय है कि देश की सबसे लोकप्रिय भाषा (हिंदी) के स्थान पर अंग्रेजी का राज प्रकारांतर से कायम है। राज्यों में भारतीय भाषा और देश में हिंदी भाषा का प्रभाव होना था किंतु आज देश से लेकर प्रदेश की राजधानियों तक कामकाज की भाषा अंग्रेजी बनी हुयी है। एक विदेशी भाषा को अपनाते हुए हमें संकोच नहीं है, किंतु हम हिंदी के खिलाफ एक खास मानसिकता से ग्रस्त हैं। हिंदी की एक लंबी विरासत, उसकी बड़ी भौगोलिक उपस्थिति के बाद भी हमें हिंदी के प्रति दुर्भाव को रोकना के सचेतन प्रयास करने होंगें।
राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को खुद को साबित करने के लिए किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है। किंतु उसकी उपेक्षा के चलते वह इस रूप में खड़ी दिखती है। राजनीति के क्षेत्र में सभी राजनीतिक दल हिंदी में वोट मांगते हैं किंतु हिंदी के सवाल पर एकजुटता नहीं दिखाते। राज्यों में प्रांतीय भाषाएं और देश में हिंदी इस नारे के साथ हमें आगे आना होगा। सच कहें तो कोई भी राजनीतिक दल भाषा के सवाल पर ईमानदार नहीं है और बाबुओं की तो कहिए मत- इसी अकेली अंग्रेजी के दम पर उनका राज चल रहा है इसलिए वे भला क्यों चाहेंगे कि अंग्रेजी इस देश से विदा हो।
हिंदी के सम्मान की बहाली का काम अब राजनीति और संसद का ज्यादा है, जनता इसमें बहुत कुछ नहीं कर सकती। बड़ा खतरा यह है कि जिस तरह समाज अंग्रेजी शिक्षा के साथ अनूकूलित हो रहा है और सहजता से नई पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की ओर जा रही है, के चलते देर-सबरे हिंदी और भारतीय भाषाओं के सामने एक बड़ा बौद्धिक संकट खड़ा होगा। यह सवाल भी सामने खड़ा है कि क्या हिंदी और भारतीय भाषाएं सिर्फ वोट मांगने, मनोरंजन और विज्ञापन की भाषा बनकर रह जाएंगीं? हिंदी और भारतीय भाषाओं के सामने यह चुनौती भी है कि वे खुद को उच्चशिक्षा, शोध और अनुसंधान की भाषा के रूप में खुद को स्थापित करें। राजनीतिक नेतृत्व पर दबाव बनाने के लिए जनसंगठन और सामाजिक संगठन आगे आएं, हमारी भाषाएं इस बाजार की आंधी में तभी बचेंगी। यह भी आवश्यक है कि सभी भारतीय भाषाएं, अंग्रेजी और अंग्रजियत के इस मायाजाल के खिलाफ एकजुट हों।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
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