Saturday, November 23, 2024
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इंद्राणी की खबरों ने चैनलों का दिमागी दिवालियापन उजागर किया

सबसे सनसनीखेज अपराध कथाओं के चर्चा में रहने का ग्राफ देखें तो लगता यही है कि शीना-बोरा-इंद्राणी मुखर्जी की कहानी अब चर्चा से बाहर होने के चरण में है। यदि आप इन दिनों न्यूज़ वेल्यू के अंतिम मानक ट्रेंडिंग चार्ट को देखें, जो गायब न भी हुआ हो, गिर तो रहा है। जल्दी ही इसकी जगह कोई और खबर ले लेगी। हमें अचानक फिर याद आएगा कि नियंत्रण-रेखा पर गोलाबारी हो रही है, पूर्व सैनिकों की ‘समान रैंक, समान पेंशन’ की लड़ाई जारी है और आमरण अनशन कर रहे पूर्व सैनिक सेहत बिगड़ने के साथ लगातार अस्पताल पहुंच रहे हैं और आखिर में बिहार चुनाव होगा। लेकिन यह खबर सुर्खियों से भले ही हट जाएं, गायब नहीं होगी। लंबी कानूनी प्रक्रिया को देखते हुए तो शायद दशकों तक गायब नहीं होगी।

मामला अदालत में जाएगा, मुकदमा चलेगा और कौन जानता है कि कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद एक और किताब आ जाएगी कि फैसले में क्या खराबी है और कैसे जज ने गलती की है। क्योंकि अविरूक सेन की किताब ‘आरूषि’ ने यही चलन स्थापित कर दिया है। इसलिए अब बहस के बिंदु अपराध क्षेत्र में नहीं हैं। इनका संबंध हम से है एक समाज, लोकतंत्र, वित्तीय दिग्गजों के कामकाज और हमारे समाचार माध्यमों की दशा से है। आइए शुरुआत समाचार माध्यमों से करें। हम सब टीवी चैनलों के घटिया हो जाने की शिकायत करते रहे हैं। यहां भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के चैनल ज्यादा बदनाम हैं। शीना-इंद्राणी प्रकरण में टीवी की दो ‘ब्रेक्रिंग न्यूज़’ सुर्खियां अलग ही नज़र आती हैं और वे सोशल मीडिया पर सस्तेपन के उदाहरण के रूप में वायरल हो गईं।

पहली में कहा गया, ‘पुलिस हिरासत में इंद्राणी मुखर्जी ने सैंडविच खाया’ और दूसरी में सलाखों के पीछे मुस्कराती इंद्राणी का मॉर्फ किया यानी कृत्रिम रूप से बनाया फोटो इस ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ सुर्खी के साथ दिखाया गया, ‘पिंजरे में परी।’ दोनों का इस्तेमाल यह रेखांकित करने के लिए किया गया है कि हमारे समाचार माध्यम कितने गिर गए हैं। इससे एक परिवार में हुई त्रासदी, फिर वह चाहे कितनी ही जटिल और चकराने वाली क्यों न हो, लतीफे की तरह नज़र आने लगी और वह पारिवारिक मनोरंजन का विषय बन गई। इसके बावजूद मुझे नहीं लगता कि मुखर्जी इसे लेकर ज्यादा शिकायत कर सकते हैं। इंद्राणी के परिदृश्य में आने के बहुत पहले पीटर मुखर्जी ने हिंदी में स्टार टीवी न्यूज़ चैनल शुरू करने का निर्णय लिया था। एनडीटीवी के साथ समाचार सामग्री की भागीदारी टूटने का यह परिणाम था। एनडीटीवी ने तब अपना चैनल शुरू करने का निर्णय लिया था (मेरा एनडीटीवी के साथ करीब 15 वर्षों से पेशेवर रिश्ता रहा है)। उन्होंने रवीना राज कोहली को हिंदी समाचार चैनल का सीईओ नियुक्त किया और दोनों मुझसे भी मिले यह पूछने के लिए कि क्या उनके साथ मिलकर, ज्यादा नहीं तो कम से कम एक शो करने में मेरी रुचि है।

वे गंभीर, वरिष्ठ भारतीय संपादकों में से ‘सितारे’ इकट्‌ठा करना चाहते थे। सारे अंग्रेजी दुनिया से पर उन्हें पेश होना था उनके हिंदी चैनल पर। मेरे सामने इंटरव्यू आधारित कार्यक्रम ‘शेखर के शिखर’ की पेशकश रखी गई। उनके राडार पर अन्य दो अंग्रेजी के संपादक थे एमजे अकबर और वीर संघवी, जिनके सामने जैसा कि अनुमान था क्रमश: ‘अकबर का दरबार’ और ‘वीर के तीर’ का प्रस्ताव रखा गया। मैंने कहा कि ये तो बहुत ही साधारण शो लगते हैं। हम उबाऊ संपादकों को इकट्‌ठा कर ऐसे कार्यक्रम पेश करने का मतलब ही क्या हैं, जो मनोरंजक नज़र आते हैं? मुझे बताया गया कि यह तो ब्रैंडिंग है, ध्यान खींचने के लिए थोड़ा स्तर गिराना पड़ता है। मुझे सलाह दी गई, ‘ग्रो यंगर, शेखर डियर।’ मुझसे यह भी कहा गया कि सुर्खियां, ब्रैंड दर्शकों को आकर्षित करने के लिए यहां-वहां थोड़ी तोड़-मरोड़ कोई सस्तापन नहीं है, बल्कि आवश्यक है। रवीना ने मुझे झिड़की के स्वर में कहा, ‘इसीलिए तो तेरा अखबार नहीं बिकता। हमारे साथ काम शुरू करो और फिर देख तू।’

यहां गौरतलब है कि अपने चैनल को लेकर उनका यह रवैया था और मैं उसमें बेवजह ही शिकार हो रहा था- हालांकि, मैं उस शो के लिए राजी नहीं हुआ (कभी-कभी आप उचित फैसले कर लेते हैं), स्टार न्यूज़ चैनल मेरे स्टाफ में से बहुत ही अच्छे युवा साथियों का समूह लुभाकर ले गया। जल्दी ही चैनल बैठ गया और वे सारे कहीं के नहीं रहे। संभव है भारत अभी उस तरह के सस्तेपन के लिए भी तैयार नहीं है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि चैनल को अवीक सरकार ने खरीद लिया, जिसे अब एबीपी न्यूज़ कहते हैं। यह बहुत सफल भी है। यह विडंबना ही है कि ‘पिंजरे में परी’ ब्रेकिंग न्यूज एबीपी न्यूज़ पर ही चली थी। अब बारी वित्तीय नियमन माहौल की। मुखर्जी के वेंचर में सबसे बड़ा निवेश जिस फंड ने किया था, उसके कई प्रमुख संस्थापक शेयर बाजार में धोखाधड़ी के आरोप में अमेरिकी जेलों में पहुंच गए। इनमें रजत गुप्ता और राजरत्नम शामिल हैं। अनिल कुमार को प्रोबेशन मिला और कम से कम दो अन्य जांच के घेरे में हैं। इस तरह इसके पहले कि आप कहें कि मुखर्जियों ने निवेशकों को लूटा, यह पूछें कि वित्तीय जगत की ये होशियार शख्सियतें क्या कर रही थीं? मर्डोक का ‘स्टार’ तब बड़ी खुशी से भारतीय नियमन तंत्र से खिलवाड़ कर रहा था। जहां समाचार माध्यमों के विदेशी स्वामित्व पर रोक थी, ये लोग स्वामित्व की कठपुतली रचनाएं और बेनामी बिचौलिए खड़े कर रहे थे। इंद्राणी की कहानी के वित्तीय पहलुओं की कोई भी जांच यहीं से शुरू होनी चाहिए।

और आखिर में, यह मामला हमारे समाज के बारे में क्या बताता है? हम अपने टीवी पर ऐसी सस्ती चीजें देखना पसंद करते हैं, लेकिन इस पर नाक-भौं भी सिकोड़ते हैं और जो पत्रकार हमारे लिए ये लाते हैं उनका मजाक उड़ाते हैं। ‘ऑनर किलिंग’ भी हमें विचलित नहीं करते, क्योंकि यह तो गरीब, ज़ाहिल, गांववाले, गणवार अपने बच्चों के साथ करते हैं। लेकिन हमारे जैसे लोग? नहीं, नहीं। यही वजह है कि आरुषि के पालकों ने कभी अपनी बच्ची को नहीं मारा होगा, फिर अदालत चाहे जो कहे। केवल हरियाणा व पश्चिमी उत्तरप्रदेश के जाट ‘सम्मान’ के लिए अपनी बेटियों की हत्या करते हैं। और इंद्राणी ने ऐसा किया है तो शायद इसलिए कि वे आकर्षक, लालची, सत्ता की भूखी, छोटे शहर की ऐसी लड़की हैं, जिसकी महत्वाकांक्षाएं बहुत ज्यादा हैं।

हमें यह समझना होगा कि जब किसी कमजोर क्षण में व्यक्ति अपराध करता है तो हर ऐसा व्यक्ति समान होता है : डरा हुआ, लालची, कमजोर, मूर्ख, घटिया, जातिहीन और दोषी। अपराध की गंभीरता कम करने वाले कोई तथ्य नहीं होते। T

‘ब्रेकिंग न्यूज़’ के दो उदाहरण बताते हैं कि हमारे समाचार माध्यम कितने गिर गए हैं। इससे एक परिवार में हुई त्रासदी लतीफे की तरह नज़र आने लगी और वह पारिवारिक मनोरंजन का विषय बन गई।

मुखर्जी के वेंचर में सबसे बड़ा निवेश जिस फंड ने किया था, उसके कई प्रमुख संस्थापक शेयर बाजार में धोखाधड़ी के आरोप में अमेरिकी जेलों में पहुंच गए।

हम अपने टीवी पर ऐसी सस्ती चीजें देखना पसंद करते हैं, लेकिन इस पर नाक-भौ भी सिकोड़ते हैं और जो पत्रकार हमारे लिए ये लाते हैं उनका मजाक उड़ाते हैं।

(श्री शेखर गुप्ता इंडिया टुडे समूह के संपादकीय सलाहकार हैं।)

साभार- दैनिक भास्कर से

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