Sunday, November 24, 2024
spot_img
Homeखबरेंअनजान सुख की यह कैसी अंधी दौड़?

अनजान सुख की यह कैसी अंधी दौड़?

इस संसार में ज्यादातर लोगों का जीवन एक अंधी दौड की तरह है, जो अनजान सुख के लिये लगातार दौड़ रहे हैं। जिसका अंत कहीं नहीं हैं। हर व्यक्ति इसी दौड-धूप में लगा रहता है कि किस तरह ज्यादा से ज्यादा धन इकट्ठा किया जाये, सुख-सुविधाओं का विस्तार किया जाये, जमीन-जायदाद खरीदी जाये, नाम-शोहरत कमाई जाये, राज्य-सत्ता हासिल की जाये। इसी धन सम्पत्ति को बढ़ाने में ही व्यक्ति का पूरा जीवन खप जाता है। विडम्बना ही है कि व्यक्ति की पहचान उसके रहन-सहन, पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, अनुभव-कौशल एवं व्यावसायिक धरातल के आधार पर होने लगी है जबकि व्यक्ति की वास्तविक पहचान का आधार भौतिकता नहीं आध्यात्मिकता है। किसका आध्यात्मिक बल कितना सुदृढ़ है? उसकी अंतरंग संपदा कैसी है? उसमें कितनी पवित्रता एवं संवेदनशीलता है? इसकी जानकारी करने के लिए यह जानना जरूरी है कि उसमें सकारात्मकता कितनी है? जीवन के प्रति उसका नजरिया कैसा है? रिचर्ड सील ने आत्मशक्ति की ताकत को इन शब्दों में बयां किया है कि आत्मशक्ति इतनी दृढ़ और गतिशील है कि इससे दुनिया को टुकड़ों में तोड़कर सिंहासन गढ़े जा सकते हैं। फिर भी हम क्योंकि मूल सम्पदा को लगातार नजरअंदाज किये जा रहे हैं।

अल्बर्ट आइंस्टाइन ने एक बार कहा था कि कभी कोई इंसान बहुत आसानी से बहुत कुछ पा जाता है, जबकि किसी और को उतना ही पाने में बहुत कुछ देना पड़ता है। यही गणित समझना सार्थक जीवन की अनिवार्यता है। जो लोग केवल भौतिक पदार्थ इकट्ठा करने के लिये जीते हैं, उन्हें जीवन में शांति और संतोष कभी नहीं मिल पाता। यह दुनिया भी एक दौड़ की तरह है। कुछ लोग इसे चूहा-दौड़ भी कहते हैं। हम एक दायरे में तेजी से दौड़ते हैं, लेकिन कहीं पहुंचते नहीं है। इससे पहले कि हमें इसका आभास हो, सीटी बज जाती है और दौड़ का समय समाप्त हो जाता है। जबकि बहुत कम लोगों को यह अहसास होता है कि शांति और संतोष पाने के लिये हमें कहीं नहीं जाना, किसी दौड़ में शामिल नहीं होना है। वे तो हमारे भीतर हैं। यदि हम शांत होकर अपने अन्तर में जाये ंतो हमें वह खजाना मिल सकता है जो दुनिया की दौलत से कहीं बढ़कर है। उसे पाने के लिये बस स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार करना होता है। इसीलिये मूर ने कहा भी है कि अच्छे काम के लिए धन की कम आवश्यकता पड़ती है, पर अच्छे हृदय और संकल्प की अधिक।
जब हम भीतर की यात्रा करते हैं, स्वयं से स्वयं का संवाद करते हैं तो जीवन व्यवहार में शांति, संतोष, उदारता, शालीनता, शुभ्रता, संयम और सज्जनता का समावेश होने लगता है। यही सफल एवं सार्थक जीवन की वास्तविक सम्पदा है। टोबाबेटा ने कहा है कि दुनिया का कोई धर्म पीड़ा से मुक्ति की गारंटी नहीं दे सकता, लेकिन प्रेम, विश्वास, ज्ञान और संकल्प ये गारंटी देते हैं।

भले ही व्यक्ति भौतिक सम्पदा के बलबूते पर दूसरों को अधीनस्थ कर सकता है, उन पर कुछ समय के लिए अधिकार जमाए रख सकता है किंतु किसी के आदर, सद्भावना और श्रद्धा को किसी भी शर्त पर नहीं खरीद सकता। संपन्न व्यक्ति साधन सामग्री से सुविधाओं का लाभ स्वयं लेता है और अपवादस्वरूप दूसरों को भी दे सकता है किंतु तृप्ति, तुष्टि, संतोष और आत्म-शांति की अनुभूति मात्र धन-वैभव के सहारे नहीं हो सकती। इमर्सन का मार्मिक कथन है कि इतिहास और पुराण साक्षी है कि मनुष्य के संकल्प के सम्मुख देव, दानव सभी पराजित होते हैं। मनुष्य चाहे तो और उसका संकल्प दृढ़ हो तो वह वास्तविक आनन्द को पा सकता है। सुखी परिवार की कल्पना को आकार देने वाले संत गणि राजेन्द्र विजय कहते हैं कि आज भी जीवन-विकास का बुनियादी पक्ष है पैसा। पैसा है तो सबकुछ है मगर पैसे के साथ जुड़ी चरित्रनिष्ठा और पवित्रता ही व्यक्ति को नैतिक परिवेश में आदर्श पहचान देती है और ऐसे लोग अपने जीवन को सार्थक बनाने के साथ-साथ सबके लिये प्रेरणा भी बनते हैं।

आदर्श को जीवन रथ का पहिये मानने वाले लोग समय की कद्र करते हैं। वे वर्तमान में जीते हैं। जबकि अमूमन आदमी भूत और भावी के चक्रव्यूह में उलझकर वर्तमान को विस्मृत कर देता है। याद रहे कि वर्तमान काल का मूल्यवान मोती स्मृतियों और कल्पनाओं के दरिये में खोने वाला मानव जिंदगी के हर मोड़ पर असफलता का दंश झेलने को विवश हो जाता है। टाल्सटाॅय ने कहा है कि किसी चीज को पाकर खुश हो जाना ही अच्छा नहीं है। यह भी जानना जरूरी है कि उसे पाया किस तरह गया है। हमारे जीवन की यह बड़ी सच्चाई है कि मनुष्य अपने विवेक के बल पर सांसारिक जीवन जीते हुए भी शील, सदाचार और प्रज्ञा का जीवन जी सकता है और आध्यात्मिक ऊंचाइयों को प्राप्त कर सकता है।

निराशा, अकर्मण्यता, असफलता और उदासीनता के अंधकार को मात्र एक आत्मसंतोष एवं आत्म-साक्षात्कार रूपी दीप से पराजित किया जा सकता है। निश्चय के धरातल पर खड़े होकर अवलोकन करने पर ऐसा अहसास होता है कि वास्तव में वैभव संपन्न वह है, जो सज्जनता से ओतप्रोत है, जो हर परिस्थिति में संतुलित रह सकता है, जो अपनी जबान से कभी कटु शब्दों का प्रयोग नहीं करता और किसी के साथ तुच्छता व अधमता का बर्ताव-व्यवहार नहीं करता। जिसने इन गुणरूपी रत्नों से अपने भंडार को भर लिया उसका आत्म-गौरव और आत्म-संतोष चिरंजीवी रहेगा। अनुभवियों का यह कथन है कि यद्यपि अन्न, जल, हवा के सहारे व्यक्ति का शरीर टिका हुआ है किंतु आत्मा की गरिमा को जीवंत रखने के लिए तो आत्मिक गुणों का विकास करना ही होगा। क्लिंट फास्टवुड ने जीवन के सत्य को उद्घाटित करते हुए कहा है कभी-कभी जब आप अच्छा पाने के लिए बदलाव चाहते हैं तो चीजें आपको अपने हाथ में लेनी पड़ती हैं।

अक्सर देखने में आता है कि महानता, सहिष्णुता और नैतिकता के पथ पर चलते हुए भी सफलता के दर्शन नहीं होते हैं तो भी धैर्य नहीं खोना चाहिए। क्योंकि हमारी आत्मा पूर्व के अनेक जन्मों के संस्कारों को अपने साथ लिए हुए चल रही है। पूर्वार्जित दुष्कर्मों के कारण ही जो प्रगति होनी चाहिए, वह नहीं हो रही है, तब भी संतोष रखना अपेक्षित है क्योंकि चिरसंचिता कर्म संस्कार अपना निज का उपार्जन और संग्रह है किंतु इसमें हेरफेर करना संभव नहीं है, यह धारणा पुष्ट न हो जाए, यह ध्यान रखना जरूरी है। हेनरी वार्ड बीचर ने मार्मिक कहा है कि ईश्वर से जब हमें परेशानियंा मिलती हैं, तब दरअसल वह हमें किसी अच्छी चीज के लिए तैयार कर रहा होता है।

यह सच है कि कर्म का फल निश्चित है किंतु उसकी दिशा व धारा को मोड़ा जा सकता है। परिणाम की मंदता एवं तीव्रता में परिवर्तन किया जा सकता है। कुछ अंशों में निराकरण और समाधान भी हो सकता है। यह प्रत्यक्षतः देखा जा रहा है कि विष खा लेने पर भी जब उपचार द्वारा व्यक्ति को बचाया जा सकता है तो संकटों और परेशानियों से भरे जीवन में परिवर्तन क्यों नहीं हो सकता। अशुभ कर्म-संस्कारों के द्वारा उत्पन्न होने वाली विषम-संभावनाओं का व्यक्ति अपनी सकारात्मक सोच और पवित्र चिंतन-धारा के द्वारा निराकरण कर सकता है, संभावित विपत्तियों से प्रयत्नपूर्वक बच सकता है। अगर व्यक्ति के भाव शुद्ध हैं तो वह प्रत्येक परिस्थिति पर विजय पा सकता है। एली वाइजेला का कहा जीवन के मर्म को उजागर करता है कि लोगों को याद रखना चाहिए कि शांति ईश्वर प्रदत्त नहीं होती। यह वह भेंट है, जिसे मनुष्य को एक-दूसरे को देते हैं।

वस्तुतः आत्म-संयम और मन की पवित्रता ही वह चाबी है जिससे प्रत्येक ताले को खोला जा सकता है। उदारता, कर्तव्यनिष्ठा वह दीपक है, जो जीवन की हर डगर को आलोकित कर देता है। इस अंतरंग संपदा से स्वयं के जीवन को आभूषित करके नया पथ प्राप्त किया जा सकता है। प्रेषकः

ललित गर्ग
ई-253, सरस्वती कुँज अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
मो. 09811051133

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -

वार त्यौहार