सात दिवसीय गुण्डीचा महोत्सव मनाकर भगवान जगन्नाथ आगामी 15 जुलाई को लक्ष्मी-नारायण रूप में अपने रथ नंदीघोष रथ पर रथारुढ़ होकर अपने जन्मवेदी से अपने रत्नवेदी वापस लौटेंगे। गुण्डीचा मंदिर को गुण्डीचा घर, ब्रह्मलोक, सुंदराचल तथा जनकपुरी भी कहा जाता है। यह मंदिर कुल लगभग 5 एकड़ भू-भाग पर निर्मित है। मंदिर के चारों तरफ अतिमोहक बाग-बगीचे हैं जो मंदिर की छटा को और अधिक आकर्षक बना देते हैं। इस मंदिर का निर्माण भी जगन्नाथ पुरी के मुख्य जगन्नाथ मंदिर (श्रीमंदिर) की तरह ही किया गया है। इसका पिछला हिस्सा विमान कहलाता है। उसके अंदर का भाग है जगमोहन। उसके बाद नाट्यमण्डप और उसके बाद है भोगमण्डप।
गुण्डीचा मंदिर का निर्माण मालवा नरेश इन्द्रद्युम्न ने अपनी महारानी गुण्डीचा के नाम पर भगवान विश्वकर्मा द्वारा वहां की महावेदी पर करवाया था। गुण्डीचा मंदिर की रत्नवेदी चार फीट ऊंची तथा 19 फीट लंबी है। मंदिर के आसपास का क्षेत्र श्रद्धाबाली कहलाता है जहां की बालुकाराशि के कण-कण में श्रद्धा का निवास है। पहली बार यहीं पर राजा इन्द्रद्युम्न ने एक हजार अश्वमेध यज्ञ किया था। गुण्डीचा मंदिर भी जगन्नाथ मंदिर पुरी की तरह ही उत्कलीय स्थापत्य एवं मूर्तिकला का बेजोड़ उदाहरण है। गुण्डीचा मंदिर का भी निर्माण हल्के भूरे रंग के सुंदर कलेवर में किया गया है। यह मंदिर भी जगन्नाथ मंदिर की तरह देश-विदेश से पुरी आनेवाले समस्त जगन्नाथ भक्तों को अपनी सुंदरता तथा सुरम्य परिवेश को लेकर लुभाता है।
गौरतलब है कि प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को रथयात्रा के दिन श्रीमंदिर से पहण्डी विजय कराकर तथा उनके अपने-अपने रथों पर रथारुढ़ कराकर चतुर्धा देवविग्रहों को गुण्डीचा लाते हैं जहां पर वे सात दिनों तक निवास करते हैं। उस दिन गुण्डीचा मंदिर में चतुर्धा देवविग्रहों की मंगल आरती होती है। मयलम होता है। तडपलागी, रोसडा भोग होता है। अवकाश, सूर्यपूजा, द्वारपाल पूजा, शेषवेश आदि श्रीमंदिर के निर्धारित विधि-विधान के तहत ही संपन्न होता है। उस दिन चतुर्धा देवविग्रहों को गोपालवल्लव भोग (खिचडी भोग) निवेदित कराकर देवविग्रहों को एक-एक कर पहण्डी विजय कराकर उनके सुनिश्चित रथों पर आरुढ़ किया जाता है।
उस दिन भगवान जगन्नाथ का दिव्य रुप लक्ष्मी-नारायण रुप होता है जिसके दर्शन की लालसा देश-विदेश के समस्त जगन्नाथ भक्तों की रहती है। भगवान जगन्नाथ के प्रथम सेवक पुरी के गजपति महाराजा श्री श्री दिव्यसिंहदेवजी महाराजा अपने राजमहल श्रीनाहर से पालकी में पधारकर तीनों रथों पर चंदनमिश्रित पवित्र जल छिडककर छेरापंहरा करते हैं। उसके उपरांत तीनों रथों पर लगीं नारियल की सीढियों को हटा दिया जाता है तथा रथों को उनके घोड़ों से जोड़ दिया जाता है।
तीनों रथों क्रमशः तालध्वज, देवदलन तथा नंदिघोष को समस्त जगन्नाथ भक्तगण जय जगन्नाथ तथा हरिबोल के जयघोष के साथ खींचकर श्रीमंदिर के सिंहद्वार के समीप लाते हैं। रथ पर ही चतुर्धा देवविग्रहों का अगले दिन सोना वेष होगा जिसमें श्रीमंदिर के रत्नभण्डार से कुल बारह हजार तोले के सोने के अनेक आभूषण, हीरे-जवाहरात आदि से चतुर्धा देवविग्रों को नख से लेकर मस्तक तक सुशोभित किया जाता है। उसके अगले दिन चतुर्धा देवविग्रहों का अधरपडा होगा और उसके अगले दिन नीलाद्रि विजय कर भगवान जगन्नाथ अपने रत्नवेदी पर आरुढ़ होंगे।
नीलाद्रि विजय की सबसे रोचक बात यह होती है कि तीन देवविग्रहों को देवी लक्ष्मीजी तो रत्नवेदी पर पुनः आरुढ़ होने की अनुमति तो दे देती हैं लेकिन जगन्नाथजी को रोक देती हैं क्योंकि जगन्नाथजी जब रथयात्रा पर गुण्डीचा मंदिर गये थे तो अपने बड़े भाई बलभद्रजी को, लाडली बहन सुभद्राजी को तथा सुदर्शन जी को साथ लेकर गये थे और उनको श्रीमंदिर में अकेले ही छोड़ दिये थे। इस वर्ष भी हेरापंचमी के दिन देवी लक्ष्मीजी जब जगन्नाथजी से मिलने के लिए स्वतंत्र पालकी में विराजमान होकर श्रीमंदिर से गुण्डीचा मंदिर गईं तो जगन्नाथजी के सेवायतगण उनको जगन्नाथजी से मिलने से रोक दिये।
कहते हैं कि जगन्नाथजी देवी लक्ष्मीजी को मनाने में जब सफल हो जाते हैं तो वे उन्हें रसगुल्ला भोग खिलाकर ही उन्हें प्रसन्न करते हैं। इस प्रकार, आगामी 19 जुलाई को नीलाद्रि विजय कर तथा अपने रत्नवेदी पर पुनः आरुढ़ होकर भगवान जगन्नाथ चतुर्धा देवविग्रह रूप में अपने भक्तों को पुनः नित्य दर्शन देंगे।
– अशोक पाण्डेय