Monday, November 25, 2024
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500 रुपये की रिश्वत नहीं देना कैफी आज़मी को बहुत भारी पड़ा

जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यूँ उन्हें छेड़े जा रहे हो

– कैफ़ी आज़मी

लेकिन जाने क्यों यह वाकया बताने को मन कर रहा है।

सत्तर के दशक में मशहूर शायर और फ़िल्म गीतकार कैफ़ी आज़मी को लगा कि वह आजमगढ़ स्थित अपने गांव मिजवां के लिए भी कुछ करें। मुंबई में तमाम शोहरत और दौलत कमाने के बाद उन का मूल नाम अख़्तर हुसैन रिज़वी शायद उन के भीतर ठाट मारने लगा था। वह अपने गांव आने-जाने लगे। आज़मगढ़ से उन के गांव जाने के लिए लेकिन कोई सड़क नहीं थी। तो दिक़्क़त होती थी। वह उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री राम नरेश यादव से लखनऊ में मिले , गांव तक सड़क बनाने की फ़रियाद ले कर। रामनरेश यादव भी आजमगढ़ के रहने वाले थे। कैफ़ी की कैफ़ियत और उन की शोहरत से वाकिफ़ थे। सहर्ष तैयार हो गए। पर काफी समय बीत जाने पर भी जब सड़क पर काम नहीं शुरु हुआ तो कैफ़ी फिर लखनऊ आए। मिले रामनरेश यादव से। अपनी शिकायत दर्ज करवाई कि सड़क पर अभी तक तो कोई काम शुरु ही नहीं हुआ है। राम नरेश यादव कैफ़ी पर कुपित होते हुए बोले , आप मेरे ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने के लिए ज़मीन बना रहे हैं और चाहते हैं कि आप की मदद भी करुं ? नहीं हो सकता। रामनरेश यादव की इस तंगदिली के बाबत कोलकाता से तब प्रकाशित पत्रिका रविवार में एक लंबे इंटरव्यू में कैफ़ी आज़मी ने बहुत डिटेल में बात की थी। कैफ़ी ने इस इंटरव्यू में कहा था कि रामनरेश यादव को इस के लिए वह कभी माफ़ नहीं कर पाएंगे। हुआ यह था कि कैफ़ी आज़मी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता थे। पार्टी के कार्ड होल्डर थे। तो किसी ने रामनरेश यादव के कान भर दिए कि कैफ़ी चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे। कैफ़ी ने रामनरेश यादव को सफाई भी दी थी कि वह कोई चुनाव , कहीं से भी नहीं लड़ने जा रहे। कभी लड़ने का इरादा भी नहीं है। अपने लिखने-पढ़ने की दुनिया में खुश हूं। पर रामनरेश यादव ने उन की एक न सुनी। सड़क नहीं बनवाई तो नहीं बनवाई। फूलपुर पवई विधान सभा क्षेत्र में आता है कैफ़ी का गांव मिजवां।

लेकिन कैफ़ी ने रामनरेश यादव की इस तंगदिली से हार नहीं मानी। लौटे मुंबई। फ़िल्म इंडस्ट्री के लोगों में अपने गांव मिजवां तक सड़क बनवाने के लिए मदद करने की अपील की। लोगों ने दिल खोल कर मदद की। पर्याप्त पैसा मिल जाने के बाद कैफ़ी ने आजमगढ़ से मिजवां तक श्रमदान के रास्ते सड़क भी बनवा दिया। फ़िल्म इंडस्ट्री की तरह क्षेत्र के लोगों ने भी खुल कर मदद की। अब जब सड़क बन गई तो कैफ़ी अपने गांव अकसर आने-जाने लगे। गांव में लड़कियों के लिए स्कूल भी खुलवाया। पोस्ट आफिस खुलवाया। बैंक भी खुल गया। अपने रहने के लिए बढ़िया सा घर भी बनवा लिया कैफ़ी आज़मी ने। अब पत्नी शौक़त कैफ़ी और शबाना आज़मी को भी गांव लाने लगे। शबाना आज़मी उन दिनों स्टार थीं। कैफ़ी की क़ैफ़ियत अब उन के गांव की तरक़्क़ी से भी वाबस्ता हो गई। कैफ़ी ने धीरे-धीरे अपने घर को और बढ़िया बनवा दिया। बड़ा बना दिया। लेकिन गांव में मुसलसल नहीं रहते थे। कभी-कभार आते थे। अब गांव में उन के पट्टीदार ही उन के घर की देखरेख करते थे। पर देखरेख करते-करते पट्टीदार लोग उन के घर पर काबिज होने लगे। कैफ़ी जब कभी गांव जाते तो अपने ही घर में शरणार्थी हो जाते। पट्टीदार लोग इतना परेशान कर देते ताकि कैफ़ी फिर दुबारा गांव न आएं। पट्टीदार लोग कहते कि जो करना था , गांव के लिए , आप कर चुके। अब मुंबई में ही रहिए। क्या करने यहां चले आते हैं। बात तू-तू , मैं-मैं से होते हुए हाथापाई पर आने लगी। कैफ़ी आज़मी परेशान हो गए।

रिवाल्वर के लाइसेंस के लिए एप्लिकेशन दे दी। जांच के लिए पुलिस का दारोग़ा आया। रवायत के मुताबिक़ उस ने कैफ़ी आज़मी से पक्ष में रिपोर्ट लगाने के लिए पांच सौ रुपए की रिश्वत मांग ली। अब कैफ़ी आज़मी ख़फ़ा हो गए , दारोग़ा पर। भड़कते हुए बोले , तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझ से रिश्वत मांगने की। तुम्हारी नौकरी खा जाऊंगा। आदि-इत्यादि। मैं यह हूं , वह हूं के विवरण भी दिए। दारोग़ा , बदस्तूर बेशर्म था। बोला , जब इतने बड़े आदमी हैं , इतनी बड़ी हीरोइन के अब्बा हैं तो आप पांच सौ क्या , पांच हज़ार दे दीजिए। आप को क्या फ़र्क़ पड़ता है। लेकिन कैफ़ी आज़मी को अपने ऊपर विशवास बहुत था। एक पैसा दारोग़ा को नहीं दिया। डांट-डपट कर दारोग़ा को भगा दिया। कुछ समय बाद वह फिर जब मुंबई से गांव लौटे तो पट्टीदारों ने फिर मुश्किलें खड़ी कीं। परेशान करना शुरु किया। हार कर , रिवाल्वर के अप्लीकेशन के बाबत पता किया तो पता चला कि दारोग़ा ने उन के ख़िलाफ़ रिपोर्ट लगा दी है। अब कैफ़ी आज़मी सीधे गोरखपुर पहुंचे। डी आई जी अहमद हसन से दारोग़ा की शिक़ायत करने। साथ में शबाना आज़मी को भी ले गए। अहमद हसन मुसलमान थे सो उन्हों ने उन्हीं से मिलना ठीक समझा। साथ में बेटी शबाना को लिया ताकि श्योर शॉट हो जाए। यह 1987-1988 का समय था। आजमगढ़ तब छोटा शहर था। अब तो कमिश्नरी है। पर तब गोरखपुर कमिश्नरी में आता था। पुलिस का परिक्षेत्र भी गोरखपुर में था तब।

अहमद हसन को जब उन के स्टॉफ ने ख़बर दी की शबाना आज़मी आई हैं , मिलने तो वह ख़ुद शबाना के इस्तक़बाल के लिए भाग कर बाहर आ गए। आए तो पाया कि कैफ़ी आज़मी भी हैं साथ। दोनों को वह घर के भीतर ले गए। चाय , नाश्ते के बाद पूछा अहमद हसन ने कि कैसे आना हुआ ? तो कैफ़ी आज़मी ने अपने रिवाल्वर के लाइसेंस की पूरी दास्तान और पट्टीदारी की फ़ज़ीहत बता दी। दारोग़ा के ख़िलाफ़ कार्रवाई की भी गुज़ारिश की। अहमद हसन ने कहा , बिलकुल करता हूं। अहमद हसन ने तुरंत आज़मगढ़ के एस पी को फ़ोन लगवाया। बात की। पूरी बात की। एस पी से दारोग़ा की रिपोर्ट भी फैक्स करने को कहा। थोड़ी देर में दारोग़ा की रिपोर्ट के साथ एस पी , आज़मगढ़ की आख्या फैक्स से आ गई। आख्या और रिपोर्ट देखते ही अहमद हसन ढीले पड़ गए। एक नज़र कैफ़ी आज़मी को पूरी तरह देखा और कहा कि , माफ़ कीजिए कैफ़ी साहब , दारोग़ा के ख़िलाफ़ हम कोई कार्रवाई नहीं कर सकते। लाइसेंस भी नहीं मिल सकता।

कैफ़ी ने पूछा , क्यों ?

अहमद हसन ने फैक्स उन के सामने रख दिया। दारोग़ा ने रिपोर्ट में लिखा था कि कैफ़ी आज़मी की देह का एक हिस्सा फालिज का शिकार है। छड़ी ले कर खड़े होते हैं। चलते हैं। बिना छड़ी या सहारे के लिए उन का खड़ा होना मुश्किल है। इस लिए वह कोई हथियार नहीं संभाल सकते। अगर इन को लाइसेंस दिया जाएगा तो कोई दूसरा व्यक्ति ही उस हथियार का इस्तेमाल करेगा। यह रिपोर्ट पढ़ कर कैफ़ी थोड़ी देर चुप रहे। फिर बोले , यह रिपोर्ट फाड़ कर फेंक दीजिए। दूसरी रिपोर्ट बनवा दीजिए। शबाना आज़मी ने भी कैफ़ी के सुर में सुर मिलाया। कहा कि अब यह हमारी प्रेस्टीज का सवाल है। लाइसेंस नहीं मिला तो गांव में बड़ी बेईज्ज़ती होगी। अहमद हसन ने हाथ जोड़ लिया। बोले , उस दारोगा ने ज़रुर इस रिपोर्ट की फ़ोटो कॉपी भी रख ली होगी। कई जगह फ़ाइल घूमी है। आप मशहूर आदमी हैं। रिपोर्ट बदलने से लाइसेंस तो मिल जाएगा पर भेद खुल जाने पर बड़ी फ़ज़ीहत होगी। मत लीजिए लाइसेंस। आप को पूरी सुरक्षा हम दे देते हैं। गांव में आप के घर पर पूरी गारत तैनात करवा देते हैं। आप जब भी कभी मुंबई से आएंगे , इंफार्म कर दिया कीजिए , गारत लगवाने का आदेश जारी करवा देते हैं। घर की सुरक्षा के लिए भी सिपाही लगा देंगे। कोई कब्जा नहीं कर पाएगा।

कैफ़ी और शबाना बहुत कहते रहे लेकिन अहमद हसन जो हर किसी का काम कर ख़ुद को उपकृत समझते थे , इस मामले में हाथ खड़े कर बैठे। हाथ जोड़ कर मना करते रहे। अभी कल अहमद हसन का निधन हुआ तो सहसा यह घटना याद आ गई। कि कोई मदद करने वाला आदमी , कभी-कभार चाह कर भी मदद नहीं कर पाता। और कि गांव की पट्टीदारी का दंश , कैफ़ी आज़मी और शबाना आज़मी जैसों को भी रुला देता है। और वह बेबस हो कर देखते रह जाते हैं। गांव से जुड़े लोग यह बात बेहतर समझ सकते हैं। संयोग ही है कि गोरखपुर में अहमद हसन से मेरी भी मुलाक़ात पट्टीदारी से विवाद के बाबत ही हुई थी। तत्कालीन मुख्य मंत्री वीर बहादुर सिंह के निर्देश के बाद अहमद हसन ने मेरी ज़बरदस्त मदद की थी। अहमद हसन वीर बहादुर सिंह के प्रिय अफसरों में थे भी। लेकिन सोचिए कि पट्टीदारी के विवाद में मुझे मुख्य मंत्री तक तब जाना पड़ा था। वही दिन थे जब कैफ़ी आज़मी अहमद हसन से अपनी पट्टीदारी की व्यथा बता रहे थे। तभी यह क़िस्सा जान पाया। बहुत कम लोग इस क़िस्से से परिचित हैं।

बहरहाल , अच्छी बात यह है कि कैफ़ी आज़मी के विदा होने के बाद भी शबाना आज़मी और उन की मां शौक़त कैफ़ी के गांव मिजवां जाते रहे हैं। बीते 2019 में शबाना आज़मी की मां शौक़त का भी निधन हो गया। तो भी शबाना आज़मी अपने पिता कैफ़ी के गांव को भूली नहीं हैं। अभी दो-तीन महीने पहले कैफ़ी के मिजवां गांव में किसी चैनल की एक रिपोर्ट में शबाना आज़मी आई हुई दिखी थीं। सुना है , वह अकसर पिता के गांव आती रहती हैं और उन की विरासत को , उन के काम को आगे बढ़ाती रहती हैं। यह बहुत अच्छी बात है। बाक़ी कैफ़ी आज़मी की एक ग़ज़ल है :

हाथ आ कर लगा गया कोई
मेरा छप्पर उठा गया कोई

लग गया इक मशीन में मैं भी
शहर में ले के आ गया कोई

मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी
इश्तिहार इक लगा गया कोई

ये सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई

ऐसी महँगाई है कि चेहरा भी
बेच के अपना खा गया कोई

अब वो अरमान हैं न वो सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई

वो गए जब से ऐसा लगता है
छोटा मोटा ख़ुदा गया कोई

मेरा बचपन भी साथ ले आया
गाँव से जब भी आ गया कोई

अच्छा है कि शबाना आज़मी कैफ़ी आज़मी का बचपन खोजने मिजवां जाती रहती हैं। मिजवां वेलफेयर सोसाइटी बना कर लड़कियों और महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सिलाई-कढ़ाई एवं कंप्यूटर सेंटर स्थापित किया है। और भी कई सारे काम वह करती रहती हैं , मिजवां जा कर। पिता के जलाए दिए को बुझने नहीं दिया है , शबाना आज़मी ने। कैफ़ी आज़मी से मेरी भी दोस्ती थी कभी। इस लिए और भी अच्छा लगता है। एक समय था कि कैफ़ी आज़मी जब भी लखनऊ आते थे तो मुझे फ़ोन कर बताते कि लखनऊ आ गया हूं। फ़ुरसत से आइए। बहुत सी बातें और यादें हैं , लखनऊ में कैफ़ी आज़मी के साथ की। पर यह एक वाकया गोरखपुर का भी है।

 

 

 

 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं व किस्सागोई शैली में लिखने में उन्हें महारात हासिल है)
साभार-https://sarokarnama.blogspot.com/2022/02/blog-post_20.html से

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