Tuesday, December 24, 2024
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कांच की “सान शिल्पकला” को संरक्षण की दरकार

रविवार 17 मार्च को कला दीर्घा में आयोजित हाड़ोती हस्तशिल्प मेले में जाना हुआ। वहां मेरे परम मित्र शिल्प कलाकार अखिलेश बेगडी से अचानक लंबे समय बाद मुलाकात से दोनों मित्र गदगद हो गए। इन्होंने भी अपनी कांच की शिल्प कृतियों का प्रदर्शन कर रखा था।

चर्चा के दौरान आपने बताया कि उनकी कृतियां अब तक करीब 40 से 45 विदेशी सैलानी ले जा चुके हैं। अमेरिका, फ्रांस आदि देशों में कई ड्राइंग रूम की शोभा बन रही हैं इनकी शिल्पकृतियां। डाकपन्नी की कला कृतियां बनाने में भी इनकी कोई सानी नहीं है। परंपरागत चित्रकला में भी आप पारंगत है। शांत स्वभाव वाले अखिलेश बताते हैं आपको पता है मैं तो किसी तरह का प्रचार नहीं करता हूं और अपनी ही धुन में शिल्प साधना में लगा रहता हूं।

अखिलेश बताते हैं सदियों से मानव समाज में आभूषणों के प्रति विशेष आकर्षण रहा है और यदि स्वर्ण रजत आभूषणों में बहुमूल्य रत्नों की जड़ाई हो जाए तो उसकी आभा में कई गुणा वृद्धि हो जाती है। सदियों से समाज का शासक वर्ग अर्थात सम्राट, राजा, महाराजा, नवाब और बादशाह अपने पास संसार की उत्कृष्ट वस्तुओं के संग्रह करने के शौकीन रहे हैं।

शासक अपने महल मंदिर और प्रसादों को उत्कृष्ट वास्तुकला में ढालने के शौकीन रहे हैं। वे अपने राजमहलों की दीवारों को चित्रकला और प्रस्तर शिल्प से सजाने संवारने की होड़ में रहते थे। इससे शिल्पकारों, कारीगरों, चित्रकारों और विभिन्न क्षेत्र के पारंगत कलाकारों का संरक्षण भी हो जाता था और कला निरंतर बेहतर रूप लेती रहती थी। वे चाहते थे कि उनके रत्न जड़ित स्वर्ण रजत आभूषणों की भांति उनके राजमहलों की दीवारें भी रत्नों की आभा से दमके! लेकिन बहुमूल्य, दुर्लभ और सीमित मात्रा में होने के कारण दीवारों पर रत्न जड़ाई संभव नहीं थी।

कालांतर में जब इंसान ने कांच ढालना सीखा और जब वह रंगीन शीशे ढालने लगा तो बर्तनों के साथ सजावट की नई वस्तु भी कलाकारों को आकर्षित करने लगी। इसी क्रम में जब रसायन क्रिया द्वारा कांचो पर सीसे, पारे और चांदी की कलई चढ़ाई जाने लगी तो शिल्पकारों को एक जादुई वस्तु प्राप्त हो गई। कांच की कई प्रकार की कलाएं विकसित होने लगीं।

रत्न तराशने वाले बेगड़ियों ने रंगीन शीशे तराशकर उन्हे हीरा, पन्ना, माणक, नीलम, गोमेद के बनिस्पत सस्ते प्रतिरूप तैयार कर दिए। चूंकि रंगीन शीशों का उत्पादन इंसान ही करता था तो कच्चा माल भी वांछित मात्रा में प्राप्त होने लगा। जिस सान पर रत्न तराशे जाते थे उसी *सान* पर अब कलात्मक रूप से शीशे तराशे जाने लगे। राजमहलों, मंदिरों की दीवारों को रत्नों जैसी आभा से सजाया जाने लगा। एक दौर ऐसा आया जब राजस्थान के सभी प्रमुख राज महलों में शीशमहल बनाए जा रहे थे। कोटा रियासत के राजमहलो में भी इस कला को संरक्षण मिला। जिसे आज भी देखा जा सकता है।

वह बताते हैं सान कला एक अत्यंत श्रमसाध्य कला है। अखिलेश बताते हैं कि इसमें पारंगत होने के लिए शिल्पकार को वर्षों तक अभ्यास करना पड़ता है। जिस प्रकार रत्न तराशे जाते हैं ठीक उसी प्रकार रंगीन कांच तराशे जाते हैं। इसके लिए शिल्पकार को चित्रकला, कांच ढालना, कांच काटना, तराशना, घिसना, कांच पर कथीर, पारे और चांदी की कलई चढ़ाने निपूर्ण बनना पड़ता है। इसके बाद तराशे हुए हिस्सों को वांछित आकार में दीवारों पर जड़ने में भी सिद्ध हस्त होना पड़ता है।

अखिलेश बताते हैं वर्तमान में सरकारों और संबंधित संस्थाओं की उपेक्षा के चलते और कच्चे माल की उपलब्धता की समस्या के चलते सान कला अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रही है। पिछले पच्चीस वर्षों से अखिलेश इस दुर्लभ शिल्प से कलाप्रेमियों को परिचित करवा रहे हैं। इस खुबसूरत पारंपरिक शिल्प को संरक्षण की आवश्यकता है। चूंकि बेगड़ी परिवार ही इस शिल्प निर्माण की प्रक्रिया तथा विवरण को गहराई से जनता है और इसे जानने वाली यह आखरी पीढ़ी हो सकती है इसलिए सरकार के हस्तशिल्प विभाग को इसके संरक्षण की दिशा में प्रयास करने की आवश्यकता है।

शासकों का समय गया, दीवार सजाने का काम सीमित हो कर मंदिरों तक सिमट गया और धीरे–धीरे यह भी लुप्त होने लगा। इस काम के शिल्पी भी अर्थोपार्जन के लिए अन्य व्यवसायों पर निर्भर हो गए। आज यह हाड़ोती में इस पारंपरिक कला के एक मात्र शिल्पी हैं जो इसे जिंदा रखने के लिए फ्रेम में जड़ित शिल्प कृतियां बनाते हैं जिनकी कद्र हमारे यहां आने वाले विदेशी मेहमान करते हैं। इसमें नए प्रयोग कर दैनिक उपयोग की कुछ अन्य वस्तुएं भी बनाई हैं।

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