कानून सबके लिए कुछ इस तरह बराबर है कि किसी को केस लड़ने को वकील नहीं मिलता तो किसी को ज़मानत मिलने पर ज़मानत दार नहीं मिलता और किसी को 13 साल के मुकदमे के बाद चंद घंटों में ज़मानत मिल जाती है, लेकिन साहेबान याद रखें कानून सबके लिए बराबर है.
हो सकता है मेरा ये लिखना अदालत की अवमानना करना हो, लेकिन कोई तो लिखेगा ही…क्योंकि सलमान खान और तीस्ता सीतलवाड़ के मामले में हाईकोर्ट से यूँ चंद घंटों में ज़मानत मिलना हज़म नहीं हो सकता, हाँलाकि कानून सबके लिए बराबर है.
मै समझना चाहती हूँ आखिर वो कौन सा तरीका या कानून का नियम होता है जो सुबह से नंबर में लगे मुकदमों के आगे इन मामलों को तरजीह देता है वो भी ऐसे कि किसी को बड़े वकील कपिल सिब्बल के फोन पर जिरह मात्र से ज़मानत मिल जाती है तो किसी को कुछ घंटे सेशन्स कोर्ट में गुज़ार कर ज़मानत मुहैया करा दी जाती है.
जानना चाहती हूँ मै कि कानून की किताब के वह कौन से पन्ने हैं जिसके चलते जितने घंटे दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के एक आम आदमी को कोर्ट के किस कमरे में जाना है यह पता करने में लग जाते हैं उतने घंटे मे 13 साल के फ़ैसले पर ज़मानत मिल जाती है?
जवाब हो तो ज़रूर बताइएगा, क्योकि यह सवाल मेरे जैसे इस देश के कई सामन्य नागरिकों के हैं।
पश्यंति शुक्ला ऋता के फेसबुक पेज से