कश्मीर में जो कुछ हो रहा है उसे देखकर नहीं लगता कि आग जल्दी बुझेगी। राजनीतिक नेतृत्व की नाकामियों के बीच, सेना के भरोसे बैठे देश से आखिर आप क्या उम्मीद पाल सकते हैं? भारत के साथ रहने की ‘कीमत’ कश्मीर घाटी के नेताओं को चाहिए और मिल भी रही है, पर क्या वे पत्थर उठाए हाथों पर नैतिक नियंत्रण रखते हैं यह एक बड़ा सवाल है। भारतीय सुरक्षाबलों के बंदूक थामे हाथ सहमे से खड़े हैं और पत्थरबाज ज्यादा ताकतवर दिखने लगे हैं।
यह वक्त ही है कि कश्मीर को ठीक कर देने और इतिहास की गलतियों के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराने वाले आज सत्ता में हैं। प्रदेश और देश में भाजपा की सरकार है, पर हालात बेकाबू हैं। समय का चक्र घूम चुका है। “जहां हुए बलिदान मुखर्जी वह कश्मीर हमारा है” का नारा लगाती भाजपा देश की केंद्रीय सत्ता में काबिज हो चुकी है। प्रदेश में भी वह लगभग बराबर की पार्टनर है। लेकिन कांग्रेस कहां है? इतिहास की इस करवट में कांग्रेस की प्रतिक्रियाएं भी नदारद हैं। फारूख अब्दुल्ला को ये पत्थरबाज देशभक्त दिख रहे हैं। आखिर इस देश की राजनीति इतनी बेबस और लाचार क्यों है। क्यों हम साफ्ट स्टेट का तमगा लगाए अपने सीने को छलनी होने दे रहे हैं।
कश्मीर में भारत के विलय को ना मानने वाली ताकतें, भारतीय संविधान और देश की अस्मिता को निरंतर चुनौती दे रही हैं और हम इन घटनाओं को सामान्य घटनाएं मानकर चुप हैं। जम्मू, लद्दाख, लेह के लोगों की राष्ट्रनिष्ठा पर, घाटी के चंद पाकिस्तानपरस्तों की आवाज ऊंची और भारी है। भारतीय मीडिया भी उन्हीं की सुन रहा है, जिनके हाथों में पत्थर है। उसे लेह-लद्दाख और जम्मू के दर्द की खबर नहीं है। अपनी जिंदगी को जोखिम में डालकर देश के लिए पग-पग पर खड़े जवान ही पत्थरबाजों का निशाना हैं। ये पत्थरबाज तब कहां गायब हो जाते हैं, जब आपदाएं आती हैं, बाढ़ आती है। भारतीय सेना की उदारता और उसके धीरज को चुनौती देते ये युवा गुमराह हैं या एक बड़ी साजिश के उत्पाद, कहना कठिन है। दरअसल हम कश्मीर में सिर्फ आजादी के दीवानों से मुकाबिल नहीं हैं बल्कि हमारी जंग उस वैश्विक इस्लामी आतंकवाद से भी जिसकी शिकार आज पूरी दुनिया है।
हमें कहते हुए दर्द होता है पर यह स्वीकारना पड़ेगा कि कश्मीर के इस्लामीकरण के चलते यह संकट गहरा हुआ है। यह जंग सिर्फ कश्मीर के युवाओं की बेरोजगारी, उनकी शिक्षा को लेकर नहीं है-यह लड़ाई उस भारतीय राज्य और उसकी हिंदू आबादी से भी है। अगर ऐसा नहीं होता कि कश्मीरी पंडित निशाने पर नहीं होते। उन्हें घाटी छोड़ने के लिए विवश करना किस कश्मीरियत की जंग थी? क्या वे किसी कश्मीरी मुसलमान से कश्मीरी थे? लेकिन उनकी पूजा-पद्धति अलग थी? वे कश्मीर को एक इस्लामी राज्य बनने के लिए बड़ी बाधा थे। इसलिए इलाके का पिछड़ापन, बेरोजगारी, शिक्षा जैसे सवालों से अलग भी एक बहस है जो निष्कर्ष पर पहुंचनी चाहिए। क्या संख्या में कम होने पर किसी अलग समाज को किसी खास इलाके में रहने का हक नहीं होना चाहिए?
दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में मानवाधिकारों और बराबरी के हक की बात करने वाले इस्लाम मतावलंबियों को यह सोचना होगा कि उनके इस्लामी राज में किसी अन्य विचार के लिए कितनी जगह है? कश्मीर इस बात का उदाहरण है कि कैसे अन्य मतावलंबियों को वहां से साजिशन बाहर किया गया। यह देश की धर्मनिरपेक्षता, उसके सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करने की साजिश है। कश्मीर का भारत के साथ होना दरअसल द्विराष्ट्रवाद की थ्यौरी को गलत साबित करता है। अगर हिंदुस्तान के मुसलमान पहले भारतीय हैं, तो उन्हें हर कीमत पर इस जंग में भारतीय पक्ष में दिखना होगा। हिंदुस्तानी मुसलमान इस बात को जानते हैं कि एक नयी और बेहतर दुनिया के सपने के साथ बना पाकिस्तान आज कहां खड़ा है। वहां के नागरिकों की जिंदगी किस तरह हिंदुस्तानियों से अलग है। जाहिर तौर पर हमें पाकिस्तान की विफलता से सीखना है। हमें एक ऐसा हिंदुस्तान बनाना है, जहां उसका संविधान सर्वोच्च और बाकी पहचानें उसके बाद होगीं। एक पांथिक राज्य में होना दरअसल मनुष्यता के तल से बहुत नीचे गिर जाना है।
कश्मीर को एक पांथिक राज में बदलने में लगी ताकतों का संघर्ष दरअसल मानवता से भी है। यह जंग मानवता और पंथ-राज्य के बीच है। भारत के साथ होना दरअसल एक वैश्विक मानवीय परंपरा के साथ होना है। उस विचार के साथ होना है जो मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं करती, भले उसकी पूजा-पद्धति कुछ भी हो। कश्मीर का दर्द दरअसल मानवता का भी दर्द है, लाखों विस्थापितों का दर्द है, जलावतन कश्मीरी पंडितों का दर्द है। कश्मीर की घरती पर रोज गिरता खून आचार्य अभिनव गुप्त और शैव आचार्यों की माटी को रोज प्रश्नों से घेरता है। सूफी विद्वानों की यह माटी आज अपने दर्द से बेजार है। दुनिया को रास्ता दिखाने वाले विद्वानों की धरती पर मचा कत्लेआम दरअसल एक सवाल की तरह सामने है। आजादी के सत्तर साल बाद भी हम एक नादान पड़ोसी की हरकतों के चलते अपने नौजवानों को रोज खो रहे हैं। दर्द बड़ा और पुराना हो चुका है। इस दर्द की दवा भी वक्त करेगा। किंतु राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना यह कब तक हो पाएगा, कहना कठिन है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
– संजय द्विवेदी,
अध्यक्षः जनसंचार विभाग,
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,
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