बीते रविवार को कश्मीर पंडितों के विभिन्न् संगठनों ने दिल्ली में प्रदर्शन कर पुन: पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है। यह अलगाववाद और आतंक की विचारधारा का ही नतीजा है कि विस्थापित कश्मीरी पंडितों के जम्मू-कश्मीर में पुनर्वास की लड़ाई एक महत्वपूर्ण मोड़ पर पहुंच गई है। जाहिर है, कुछ नई चुनौतियां उभर आई हैं। ये चुनौतियां हर तरह की धारणाओं को बहा ले जाने का खतरा पैदा कर रही हैं। कितना दु:खद है कि कश्मीरी पंडितों का विरोध करने वाली मानसिकता ने कश्मीरी मुस्लिमों को पूरी तरह अपने प्रभाव में ले लिया है। आश्चर्य नहीं कि यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे अपना दायरा भी बढ़ाती नजर आ रही है। ज्यादा चिंतनीय यह है कि मुख्यधारा की राजनीति भी इस मानसिकता की बंदी बन गई है और उसे नहीं सूझ रहा है कि कश्मीरी पंडितों को फिर से बसाने के फैसले का किस तरह बचाव किया जाए और कैसे अपने उन लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए, जो पिछले पच्चीस वर्षों से खानाबदोश जिंदगी जीने के लिए विवश हैं।
राजनीतिक दलों की इस दुविधा ने ही उन लोगों के दुस्साहस को बढ़ाने का काम किया है जो अपनी कश्मीरी पंडित विरोधी मानसिकता के लिए जाने जाते हैं। ऐसे तत्व राजनीतिक दलों के रूप में भी हैं और आतंकवादी समूहों के रूप में भी। विडंबना यह है कि ऐसे तत्वों की कश्मीर के राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में गहरी घुसपैठ भी हो चुकी है। इस पृष्ठभूमि के साथ यह अच्छी तरह समझा जा सकता है कि विस्थापित कश्मीरी पंडितों की वापसी का विरोध कर रही ताकतों ने किस तरह इस घोषणा मात्र पर आसमान सिर पर उठा लिया है कि कश्मीरी पंडितों को फिर से बसाया जाएगा।
हर समुदाय को सह-अस्तित्व का अधिकार देने से इनकार ही कुछ लोगों के लिए सबसे बड़ी प्रेरणा बन गया है। यह एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है जिसने हाल के वर्षों में न केवल अपनी जड़ें मजबूत की हैं, बल्कि कश्मीर के राजनीतिक और सामाजिक तंत्र को निर्देशित करने का भी काम किया है। राजनीति के हर अहम क्षेत्र में इसकी छाया पड़ी है। वर्षों से इस मानसिकता का मुकाबला करने की कोशिश की जा रही है, लेकिन अभी तक नाकामी ही मिली है। अलगाववादियों की दबदबे वाली कश्मीरी राजनीति ने बड़े पैमाने पर जो विषवमन किया है, उसने ही निर्वासित अल्पसंख्यकों यानी कश्मीरी पंडितों के खिलाफ एक तरह के गृहयुद्ध को जन्म दिया है। इस पूरी प्रक्रिया के केंद्र में मुस्लिम एजेंडा है और इस पटकथा के लेखक ही संयोग से शासक बन गए।
अलगाववादी नेताओं के बारे में तमाम कश्मीरी मुसलमानों की धारणा यही है कि वे जो कुछ सोचते हैं, वही सही है और अपने रास्ते में आने वाली किसी भी चीज की वे परवाह करने वाले नहीं हैं। यह आश्चर्यजनक है कि हमारी बातों को अनसुना किया जा रहा है। देश के राजनीतिक वर्ग की इस मामले में प्रतिक्रिया बहुत विचित्र है। यदि ऐसा नहीं होता तो यह किस तरह संभव है कि कश्मीर में एक के बाद एक सरकारें बार-बार एक ही समझौते को दोहराती रहतीं? सभी समझौते इस बात को स्पष्ट करते हैं कि किस तरह चतुर-चालाक कश्मीरी नेताओं ने राजनीतिक कुचक्रों के माध्यम से हमें ब्लैकमेल किया और केंद्र सरकार ने भी मानो इनके समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया अथवा उनकी बातों को स्वीकार कर लिया, लेकिन उसे इस बात का अहसास नहीं हुआ कि इससे कश्मीर की सेक्युलर राजनीति और वहां के स्थानीय अल्पसंख्यकों को कितने नुकसान उठाने होंगे।
आज स्थिति यह है कि कश्मीरी पंडितों को इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है और वे पीड़ित बने हुए हैं। सत्ता में आने वाले कश्मीरी नेताओं को भारत की तरफ से छूट पर छूट दी जाती रही है। यही कारण है कि वर्तमान समय में भी यह परंपरा बनी हुई है। दुर्भाग्य है कि कश्मीरियत की व्याख्या महज संकीर्ण धार्मिक आधारों पर की जाती है। इसी तरह की राजनीतिक यात्रा का परिणाम है कि हमें 1967 में परमेश्वरी प्रकरण जैसी स्थिति से गुजरना पड़ा और 1990 में यहां के अल्पसंख्यकों को निर्वासित होना पड़ा। इन कदमों ने बहुलताविरोधी व्यवस्था को मजबूत बनाने का काम किया। कश्मीर का इतिहास ऐसी घटनाओं के साथ और अधिक स्याह नजर आ रहा है।
कश्मीर पट्टी के एक बड़े हिस्से से अब कश्मीरी पंडित जा चुके हैं और वे एक प्रतीक के तौर पर ही जाने जाते हैं। कश्मीर में विस्थापित अल्पसंख्यकों के उचित अधिकारों की मांग से इनकार केवल पीड़ित अल्पसंख्यक समूहों की चिंताजनक स्थिति को ही बयां नहीं करता, बल्कि यह कश्मीर की संस्कृति और वहां के मूल्यों के प्रति अनादर भाव को भी दर्शाता है। अभी भी इस बात पर ध्यान दिए जाने की कोई संभावना नहीं है कि दु:खद और विकृत वास्तविकता के तहत कश्मीरी पंडितों पर होने वाले अत्याचार को रोका जाएगा और अनगिनत समस्याओं से उन्हें मुक्ति मिल सकेगी। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, सोशल मीडिया आदि सभी ने भारत के एक हिस्से में लोगों को अंधकार में रहने के लिए छोड़ रखा है और यहां रह रहे असहाय अल्पसंख्यक खुद को आतंकित महसूस कर रहे हैं। निर्वासित कश्मीरी पंडित तमाम तरह की हिंसा का सामना करने को विवश हैं। कश्मीरी लोग पूर्व की ऐतिहासिक गलती से बचना चाहते हैं, क्योंकि यह उन्हें आगे नहीं ले जाने वाला। लोग दुष्प्रचार के एक बड़े बोझ तले दबे हुए हैं और इसके कारण उन्हें अपने घरों के विनाश और तबाही का मंजर देखना पड़ा है।
यह तभी खत्म होगा जब दमनकारी और आक्रामक व्यवस्था का अंत हो और दया, प्रेम तथा उदारवादी मूल्यों की स्थापना हो। कश्मीर इतिहास की अस्पष्ट और विकृत परतों में दबा हुआ है। अलगाववादी घाटी में लौटने के इच्छुक कश्मीरी पंडितों के दमन के अपने इरादे को पूरा करने में सफल हो रहे हैं। कश्मीरी पंडित आज संघर्ष के प्रतीक बन गए हैं। तमाम बाधाओं के बीच भी कश्मीरी पंडितों ने अपने सामूहिक भाव को अभिव्यक्त किया है कि सब कुछ ठीक नहीं है, लेकिन वे अपने अधिकारों को छोड़ने वाले भी नहीं हैं।
-लेखक अखिल भारतीय कश्मीरी समाज के महासचिव हैं
साभार http://naidunia.jagran.com से