नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर कवि कुंवर नारायण का 90 साल की उम्र में बुधवार को निधन हो गया. मूलरूप से फैजाबाद के रहने वाले कुंवर तकरीबन 51 साल से साहित्य में सक्रिय थे. वह अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा सप्तक (1959) के प्रमुख कवियों में रहे हैं. कुंवर नारायण को अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के जरिए, वर्तमान को देखने के लिए जाना जाता है. कुंवर नारायण की मूल विधा कविता रही है लेकिन इसके साथ ही उन्होंने कहानी, लेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमा, रंगमंच में भी अहम योगदान दिया. उनकी कविताओं-कहानियों का कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है. 2005 में कुंवर नारायण को साहित्य जगत के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
लखनऊ विश्वविद्यालय से अंगरेज़ी साहित्य में एम.ए. । आरम्भ से ही कविता के साथ-साथ चिन्तनपरक लेख, साहित्य समीक्षा,कहानियाँ भी लिखते रहे हैं । फिल्म समीक्षा तथा अन्य कलाओं पर भी उनके लेख नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं । अनेक अन्य भाषाओं के कवियों का हिन्दी में अनुवाद किया है, और उनकी स्वयं की कविताओं और कहानियों के कई अनुवाद विभिन्न भारतीय और विदेशी भाषाओं और कहानियों के कई भाषाओं में छपे हैं । ‘आत्मजयी’ का 1989 में इतालवी अनुवाद रोम से प्रकाशित हुआ । ‘युगचेतना’ ‘नया प्रतीक’ तथा ‘छायानट’ के संपादक-मण्डल में रहे हैं। उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के उपाध्यक्ष तथा भारतेन्दु नाट्य अकादमी के अध्यक्ष रह चुके हैं ।
साहित्य सेवा के लिए उन्हें कई पुरस्कार मिले जिनमें 1971 में हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, 1973 में प्रेमचंद पुरस्कार,1982 में मध्य प्रदेश के तुलसी पुरस्कार और केरल के कुमारन् पुरस्कार तथा 1988 में हिन्दी साहित्य में विशेष योगदान के लिए हिन्दी संस्थान (उ.प्र.) द्वारा किया गया सम्मान प्रमुख हैं।
उनकी प्रमुख प्रकाशित काव्य कृतियाँ हैं- चक्रव्यूह(1956), तीसरा सप्तक(1959), परिवेश : हम-तुम(1961), आत्मजयी/ प्रबन्ध काव्य(1965), अपने सामने(1979) । आकारों के आसपास(1971) उनका चर्चित कहानी संग्रह है । उन्होंने कॉन्सटैन्टीन कवाफ़ी तथा ख़ोर्खे-लुई बोर्खेस की कविताओं के अनुवाद(1986,1987) किया है ।
कवि कुंवर नारायण वर्तमान में दिल्ली के सीआर पार्क इलाके में पत्नी और बेटे के साथ रहते थे. उनकी पहली किताब ‘चक्रव्यूह’ साल 1956 में आई थी. साल 1995 में उन्हें साहित्य अकादमी और साल 2009 में उन्हें पद्म भूषण सम्मान भी मिला था. वह आचार्य कृपलानी, आचार्य नरेंद्र देव और सत्यजीत रे काफी प्रभावित रहे.
उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में स्नातकोत्तर किया था. पढ़ाई के तुरंत बाद उन्होंने ऑटोमोबाइल कारोबार में काम करना शुरू कर दिया था, जो उनका पुश्तैनी कारोबार था. बाद में उनका रुझान लेखन की ओर हुआ और उन्होंने इसमें नया मुकाम हासिल किया.
चक्रव्यूह के अलावा उनकी प्रमुख कृतियों में तीसरा सप्तक- 1959, परिवेश: हम-तुम- 1961, आत्मजयी- प्रबंध काव्य- 1965, आकारों के आसपास- 1971, अपने सामने- 1979 शामिल हैं.
कुंवर नारायण की कुछ कविताएं
हे राम
हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य !
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर – लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है.
इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है !
हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहां यह नेता-युग !
सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुरान – किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्नीक….
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक !
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आवाज़ें
लोहे की चट्टानों पर
चुम्बक के जूते पहन कर
दौड़ने की आवाज़ नहीं है
यह कोलाहल और चिल्लाहटें
दो सेनाओं के टकराने की आवाज़ है,
चट्टानों के टूटने की भी नहीं है
घुटनों के टूटने की आवाज़ है
जो लड़ कर पाना चाहते थे शान्ति
यह कराह उनकी निराशा की आवाज़ है,
जो कभी एक बसी बसाई बस्ती थी
यह उजाड़ उसकी सहमी हुई आवाज़ है,
बधाई उन्हें जो सो रहे बेख़बर नींद
और देख रहे कोई मीठा सपना,
यह आवाज़ उनके खर्राटों की आवाज़ है,
कुछ आवाज़ें जिनसे बनते हैं
हमारे अन्त:करण
इतनी सांकेतिक और आंतरिक होती है
कि उनके न रहने पर ही
हम जान पाते हैं कि वे थीं
सूक्ष्म कड़ियों की तरह
आदमी से आदमी को जोड़ती हुई
अदृश्य शृंखलाएँ
जब वे नहीं रहतीं तो भरी भीड़ में भी
आदमी अकेला होता चला जाता है
मेरे अन्दर की यह बेचैनी
ऐसी ही किसी मूल्यवान कड़ी के टूटने की
आवाज़ तो नहीं?