(कर्नाटक में अपने अनुयायियों के बीच “जीवित भगवान” के रूप में लोकप्रिय और देश-दुनिया में प्रसिद्ध परम पूज्य संत सिद्धेश्वर स्वामी जी का गत सोमवार की रात 2 जनवरी को निधन हो गया। इस महान संत ने अपनी एक वसीयत छोड़ रखी थी। मूलतः कन्नड़ में लिखी इस वसीयत अर्थात अंतिम इच्छा का मुझे कल अंग्रेजी अनुवाद प्राप्त हुआ। इसका मैंने हिन्दी अनुवाद करने का प्रयास किया है। इसमें कोई त्रुटि रह गई हो तो उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूं।)
(क)
1. मेरी दृष्टि में जीवन अनुभवों की एक धारा है।
2. इसे दार्शनिक सोच और वैज्ञानिक ज्ञान से समृद्ध बनाना चाहिए।
3. इसे नफरत और ईर्ष्या, अहंकार और मोह से मुक्त रखते हुए अच्छी भावनाओं के साथ उदात्त और सुंदर होना चाहिए।
4. यह “साधना” है; अपने जीवन में हमें इन्हीं चीजों को प्राप्त करना चाहिए।
5. अपने उपयोगी और समृद्ध अनुभवों को दूसरों के साथ बांटना ही ‘धर्म’ है। इससे दूसरों का और स्वयं का भला होता है।
(ख)
1. प्रकृति, ईश्वर की कृपा से मुझे दशकों तक यहां रहने का अवसर मिला। मेरा सीधा-सादा जीवन रहा है। सौभाग्य से इसमें किसी भी तरह की लालसा के कारण कोई हलचल नहीं रही।
2. यह वास्तव में मेरे आध्यात्मिक गुरु हैं जिन्होंने मेरे जीवन को एक वांछित आकार दिया।
3. प्रकृति ने अपने सूर्य और ग्रहों, पहाड़ियों और घाटियों, नदियों और समुद्रों, मैदानों तथा वन्य प्रदेशों के साथ मेरे हृदय को शांत और शीतल रखा।
4. महान वैज्ञानिकों के निष्कर्षों ने मुझे ब्रह्मांड को उसके सही परिप्रेक्ष्य में समझने में मदद की।
5. विश्व के प्रमुख दार्शनिकों के ‘चिंतन’ ने मेरे भीतर सत्यान्वेषण की ललक पैदा की।
6. संतों और संन्यासियों की सुंदर बातों, खगोलविदों की विशिष्ट रचनाओं और कवियों तथा आध्यात्मिक गुरुओं के सुंदर लेखन को पढ़कर मुझे प्रशन्नता हुई। इसके अलावा, मैंने उन आम लोगों से भी बहुत कुछ सीखने की कोशिश की जो प्रकृति के बहुत करीब रहते हैं। मुझे परम पूज्य संतों, साधुओं, ज्ञान की इच्छा रखने वालों और शुभचिंतकों के साथ पवित्र संबंध रखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसलिए मैं इस अद्भुत दुनिया में हर किसी और हर चीज के लिए अत्यंत आभारी हूं।
(ग)
1. जीवन को एक दिन समाप्त होना है, और यह समाप्त हो जाता है। दीये की रोशनी की तरह वह बुझ जाता है; एक फूल की तरह यह मुरझा जाता है और एक बादल की तरह यह लुप्त हो जाता है!
2. देशकाल से प्रभावित और संबद्ध हुए बिना जो पीछे रह जाता है, वह है ‘शून्य’। यह गहन ‘मौन’ ही परम ‘सत्य’ है। यह बस ‘अनन्त’ और ‘असीम’ है। सत्यं ज्ञानं अनंतम्। अपने पूरे जीवन में मुझे यह सत्य बहुत प्रिय रहा है।
(घ)
1. देर-सबेर मेरा यह ‘भौतिक-मानिसक’ जीवन समाप्त हो जाएगा। अपने पार्थिव शरीर के बारे में मेरा एक छोटा सा निवेदन है।
2. इसके लिए किसी संस्कार की आवश्यकता नहीं है; कोई कर्मकांड नहीं! आप बस इसे अग्नि को समर्पित कर सकते हैं और राख को नदी या समुद्र में बहा सकते हैं। कृपया मेरी स्मृति में किसी प्रकार का स्मारक न बनाया जाए। मैं चाहता हूं कि लोग मुझे पूरी तरह भूल जाएं।
सभी के लिए मेरा अंतिम प्रणाम और अभिवादन।
गुरु पूर्णिमा 2014
(स्वामी सिद्धेश्वर)
साक्षी-
1. ए.एस. पचापुरे, न्यायाधीश, कर्नाटक उच्च न्यायालय, बंगलुरू
2.एस. सुल्तान पुरे, . न्यायाधीश, बीजापुर जिला न्यायालय
3. स्वामी अदृश्य काडसिद्धेश्वर, कनेरी मठ, कोल्हापुर, महाराष्ट्र