कम्युनिस्टों की लगाई आग में ही 43 बरस से जल रहा है अफगानिस्तान। लेकिन लुटियन दिल्ली के वामपंथी सेक्युलर भांड़ गालियां अमेरिका को देते रहते हैं। कम्युनिस्ट गुंडों/हत्यारों के उन कुकर्मों को छुपाने के लिए ही लुटियन भांड़ एक सोची समझी खतरनाक साजिश/रणनीति के तहत अमेरिका के विरुद्ध हंगामा हुड़दंग करते रहते हैं। ऐसा क्यों कह रहा हूं, अब इसे समझिए।
ध्यान रहे कि अफगानिस्तान में अमेरिका चोरी छुपे नहीं आया था।अफगानिस्तान को सुधारने सजाने संवारने का ठेका लेकर भी वह नहीं आया था। न्यूयॉर्क में अपने ट्विन टॉवरों पर हुए हमलों में हुई लगभग 3000 निर्दोष अमेरिकी नागरिकों की मौत का बदला लेना का ऐलान डंके की चोट पर कर के अमेरिका 7 अक्टूबर 2001 को अफगानिस्तान में घुसा था। 20 साल तक वहां रहा। लगभग 60 हजार तालिबानी लफंगों को मौत के घाट उतारा।
यानि अमेरिका नेअपने 3 हजार नागरिकों की मौत का बदला हर साल 3 हजार तालिबानी लफंगों को मौत के घाट उतार कर लिया और लगातार 20 साल तक लिया। ओसामा बिन लादेन समेत तालिबानी लफंगों के दर्जनों सरगनाओं को भी निपटा कर गया। शोले फ़िल्म की शैली में तालिबानी लफंगों को अमेरिका यह संदेश देकर भी गया है कि तुम 1 मारोगे तो हम 20 मारेंगे। अतः अमेरिका अगर अफगानिस्तान से अब चला गया तो लुटियन दिल्ली के वामपंथी सेक्युलर भांड़ उसके विरुद्ध मातम क्यों कर रहे हैं, उसे गालियां क्यों बक रहे हैं.? इन भाड़ों को क्या याद नहीं है कि अफगानिस्तान में 43 साल से लगातार खेली जा रही खून की होली की शुरुआत अमेरिका ने नहीं की थी। 43 साल पहले 1978 में यह शुरुआत अफगानिस्तान के कम्युनिस्ट गुंडों/हत्यारों ने की थी। अमेरिका को कोस रहे गरिया रहे वामपंथी भांड़ सम्भवतः भूल गए हैं इसलिए उनको आज याद कराना जरूरी है कि अफगानिस्तान में खून की होली की शुरुआत वामपंथी हत्यारों/गुंडों ने 43 साल पहले कुछ इस तरह से की थी.
1978 में अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट गुंडों/हत्यारों के गिरोह “अफगानिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी” ने “अप्रैल क्रांति” नाम का खूनी राजनीतिक षड्यंत्र रचा था। उस षड्यंत्र के तहत 1978 में 27/28 अप्रैल की रात अफगानिस्तान के वामपंथी हत्यारों/गुंडों ने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति भवन पर हमला कर के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल मोहम्मद दाऊद खान और उसके पूरे परिवार को कत्ल कर दिया था और अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा कर लिया था। आज अफगानिस्तान में वही घृणित पाशविक राजनीतिक क्रूरता तालिबान भी दोहरा रहे हैं। इसके बाद अफगानिस्तान में शुरू हुआ था वामपंथ का पाखंड।
“लैंड रिफॉर्म्स” नाम की वामपंथी नौटंकी के बहाने अफगानिस्तान का सामाजिक धार्मिक राजनीतिक तानाबाना बदलने का कुकर्म शुरू हुआ था। अफगानिस्तान का पारंपरिक राष्ट्रीय ध्वज बदल कर सोवियत संघ के झंडे से मिलता जुलता कम्युनिस्टी लाल झंडा अफगानिस्तान का राष्ट्रीय ध्वज बना दिया गया था। नतीजा यह निकला था कि 6 महीने बाद ही उन कम्युनिस्ट गुंडों/हत्यारों की सरकार के खिलाफ जनता सड़कों पर उतर गयी थी। प्रचंड जनाक्रोश के समक्ष कम्युनिस्ट गुंडों/हत्यारों के पैर बुरी तरह उखड़ने लगे थे। तब 1979 में उन कम्युनिस्ट गुंडों के आका, तत्कालीन सोवियत संघ की फौज 1979 में अफगानिस्तान में घुस गयी थी। यह वह दौर था जब पाकिस्तानी सरकार और सेना के मुखिया अमेरिकी घुंघरू बांध कर अमेरिकी वेश्या की तरह नाचा करते थे। अतः उस सोवियत घुसपैठ के जवाब में ही पाकिस्तान के जरिए अमेरिका ने अफगानिस्तान में सोवियत विरोधी ताकतों को पैसा और हथियार देने प्रारम्भ किए थे।
1989 में सोवियत संघ खुद टूटकर 6-7 टुकड़ों में बंट जाने की कगार पर पहुंच चुका था। उसको अफगानिस्तान को छोड़ना पड़ा था। लेकिन कम्युनिस्ट गुंडों/हत्यारों द्वारा सुलगायी भड़कायी गयी गृहयुद्ध की उस भयानक आग में अफगानिस्तान 10 सालों तक धधकता दहकता रहा। यही वह कालखंड था जब अफगानिस्तान के जंगलों में 1400 साल पुराने कट्टर धर्मांध कायदे कानून परंपराओं के धर्मांध दायरे में कबीले बनाकर जानवरों की तरह जिंदगी गुजार रहे तालिबान नाम के जंगली हिंसक झुंड भी जंगलों से बाहर आकर सड़कों पर दिखने लगे थे।सोवियत संघ से लड़ने के लिए पाकिस्तान और उन तालिबानी लफंगों पर बरसी अमेरिकी दौलत का चस्का उन्हें लग चुका था। अतः सोवियत संघ की सेनाओं की अफगानिस्तान से वापसी के बाद भी तालिबानी लफंगे वापस अपने जंगलों में नहीं लौटे थे। उन्हें शासन करने का चस्का लग चुका था। 1995 में ये लफंगे अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज भी हो गए थे, जिसे 2001 में अमेरिका ने ही खत्म किया था।
उपरोक्त घटनाक्रम का यह संक्षिप्त विवरण चीख चीखकर यह गवाही देता है कि अफगानिस्तान में आज भी दहक रही गृहयुद्ध की आग को लगाने भड़काने का जिम्मेदार कोई और नहीं केवल और केवल वह कम्युनिस्ट गुंडे/हत्यारे ही थे, जिन्होंने 1978 में अफगानिस्तान की सत्ता पर जबरिया कब्जे की कोशिश की थी। यह अलग बात है कि लुटियन दिल्ली के वामपंथी सेक्युलर भांड़ इस तथ्य का कभी जिक्र नहीं करते। ना किसी और को करने देते हैं। लेकिन सोशल मीडिया के वर्तमान दौर में उनकी यह गुंडई अब खत्म हो चुकी है।
साभार- https://www.facebook.com/satishchandra.mishra2 से