(29 मार्च 1941 को लोहारू कांड पर विशेष)
लोहारू 1947 से पहले एक मुस्लिम रियासत थी।पंजाब प्रांत में हिसार, शेखावाटी और बीकानेर से घिरा हुआ है छोटा सा नवाबी राज्य लोहारु। लोहारू की स्थापना अहमदबक्शखां ने 1803 में की थी। अंग्रेजों ने उन्हें यह रियासत जाट राजा भरतपुर के विरोध में सहायता करने के लिए दी थी। सन् 1935 के मध्य महीनों में तमाम जनता की निगाह में आ गया जबकि यहां के तेजस्वी किसानों ने नवाब की तानाशाही के खिलाफ आवाज बुलंद की।
रियासत का नवाब अमीनूद्दीन अहमद खान (Amin ud-din Ahmad Khan) था। ठाकुर देशराज ने जाट जनसेवक 1949, पृष्ठ 499-500 में लिखा है-
एक सौ वर्ष तक नवाब अहमदबक्शखां और उसके वंशजों ने शांति के साथ राज्य किया किंतु इस अरसे में भी वे लगान में बढ़ोतरी करते रहे। जमीन के हक भी कम करते रहे। सन् 1909 में उन्होंने पहले पहल बंदोबस्त कराया जिसमें उनका एक विश्वेदारी का हिस्सा स्वीकार किया किंतु सन् 1923 में जो बंदोबस्त कराया उसमें उनके जमीन के हक़ विश्वेदारी को कम कर दिया और इस तरह की बातें जोड़ दी जिससे हक विरासत का सिलसिला भी खत्म होता था। लगान भी बढ़ाकर 70,000 से 94,000 कर दिया और एक नई लाग ऊंट टैक्स के नाम पर और लगा दी।
प्रजा के भोलेपन से जो भी लाभ उठाये जा सकते हैं, लुहारु के नवाब ने उठाए। वे एक फिजूल खर्च शासक थे। अपने बढे हुये खर्चों की पूर्ति के लिए उन्होंने अनेक टैक्स लगाए। जिनमें विधवा विवाह टेक्स भी था। चूंकि जाटों में विधवा विवाह का चलन है इसलिए उन्हें इस टैक्स से अच्छी आमदनी होती थी। टैक्स और ज्यादतियाँ दिन पर दिन बढ़ती जाती थी। फिर भी नवाब साहब के खर्चों का पूरा नहीं पड़ता था। इतनी छोटी सी रियासत के मालिक नवाब ने रंग बिरंगी की मोटरें खरीदी। यही क्यों हवाई जहाज भी खरीदा। गर्ज यह है कि उनके खरचों को पूरा करने में प्रजा के नाक में दम आ रहा था। नवाब साहब इतने पर भी आतंक के साथ हुकूमत करने के पक्षपाती थे। चाहे जिसे जेल में ठूंस देने, तंग करने, सबक सिखाने की बातें उनके लिए मामूली थी। देहात में शिक्षा का प्रबंध करना तो दूर उन्होंने किसानो द्वारा कायम की हुई पास पाठशालाओं को भी उठवा दिया।
सन् 1935 के आरंभ में वहां के किसानों ने आंदोलन आरम्भ कर दिया। आंदोलन कर कम करने और हिन्दुओं के अधिकारों में सरकारी हस्तक्षेप कम करने के लिए था। आंदोलनकारियों के विरुद्ध नवाब ने दमनचक्र शुरू कर दिया। नवाब ने चहड़ के नंबरदार रामनाथ जी और सदाराम जी सिंघाणी के तिरखाराम और सरदाराराम जी तथा उदमीराम जी पहाड़ी को गिरफ्तार कर लिया।
पुलिस ने बड़ी बेरहमी के साथ लाठीचार्ज किया और सैकड़ों आदमी जमीन पर बिछा दिए। इसके बाद गांव की लूट की गई। सामान मोटरों पर लादकर लोहारू को भेजा जाने लगा! चौधरी सहीराम और अर्जुन सिंह के मकानों में पुलिस ने घुसकर नादिरशाही ढंग से लूट की। स्त्रियों को भी बेइज्जत किया। फर्श खोद डाले गए। छत्ते तोड़ दी गई। सवेरे के 9 बजे से लेकर शाम के 6 बजे तक यह लूटपाट जारी रही। उसके बाद पचासों आदमियों को गिरफ्तार किया गया। उसके बाद तारीख 7 अगस्त 1935 को सिंघाणी पर नवाब ने हमला कराया। यहां फायर किया गया जिसे सैंकड़ों आदमी घायल हुए और पचासों मरणासन्न हो गए। गोली चलने का दृश्य बड़ा मार्मिक था। सिंहाणी गोलीकांड में जिन लोगों ने गोली खाकर बलि दी थी उनकी नामावली ‘गणेश’ अखबार के 6 सितंबर सन 1935 के अंक में इस प्रकार प्रकाशित हुई थी।
शहीद-1. लालजी वल्द कमला अग्रवाल वैश्य, 2. श्योबक्स हैंड वल्द धर्मा अग्रवाल वैश्य, 3. दुलाराम वल्द पातीराम जाट, 4. रामनाथ वल्द बस्तीराम जाट, 5. पीरु वल्द जीरान जाट, 6. भोला वल्द बहादुर जाट, 7. शिवचंद वल्द रामलाल जाट, 8. बानी वल्द मामचंद जाट, 9. अमीलाल वर्ल्ड सरदार जाट, 10. गुटीराम वल्द मोहरा जाट, 11. शिवचंद वल्द खूबी धानक सिंघानी के, 12. पूरन वल्द चेता जाट, 13. हीरा वल्द नानगा जाट, 14. कमला वल्द गोमा जाट जगनाऊ के, 15. धनिया जाट, 16. रामस्वरुप जाट का लड़का गोठरा के, 17. अमी लाल पीपली माम्चन्द वल्द गोधा खाती सिंघानी, 18. सुंदरी वल्द झंडू जाट सिंघानी, 19. माला वल्द झादू सिंघानी आदि।
इस अत्याचार की सुचना आर्यसमाज के शीर्घ नेता स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तक पहुंची। उन्होंने आर्यसमाज के कार्य को लोहारू में गति देने का निर्णय लिया।
आर्यसमाज का जब प्रचार कार्य लोहारू में आरम्भ हुआ तो मुस्लिम नवाब को यह असहनीय हो गया कि आर्यसमाज उसके रहते कैसे समाज सुधार करने की सोच कैसे सकता है। लोहारू में समाज सुधार के लिए आर्यसमाज की स्थापना हेतु आर्यसमाज के प्रधान सेनानी स्वामी स्वतंत्रानन्द जी लोहारू पधारे। उनके साथ स्वामी ईशानन्द, न्योननंद सिंह (स्वामी नित्यानंद), स्वामी कर्मानन्द,भरत सिंह शास्त्री, ठाकुर भगवंत सिंह आदि प्रमुख आर्य सज्जन थे। 29-30 मार्च सन 1941 को आप सभी जुलुस निकालते हुए लोहारू की गलियों से निकले। नवाब ने अपने मुस्लिम गुंडों द्वारा जुलुस पर आक्रमण करवा दिया। स्वामी स्वतंत्रानन्द के सर पर कुल्हाड़े से हमला किया गया। उनका सर फट गया। बाद में रोहतक जाकर दिल्ली के ट्रैन मैं बैठकर उन्होंने टांकें लगवाये। अनेक आर्यों को शारीरिक हानि हुई। मगर जुलुस अपने गंतव्य तक पंहुचा।
सम्पूर्ण लोहारू में आर्यों पर हुए अत्याचार को लेकर नवाब की घोर आलोचना हुई। आर्यसमाज की विधिवत स्थापना हुई। आर्यसमाज के सत्यवादी एवं पक्षपात रहित आचरण से नवाब प्रभावित हुआ। नवाब ने स्वामी स्वतंत्रानन्द को अपने महल में बुलाकर क्षमा मांगी। समाज सुधार के लिए आर्यसमाज ने लोहारू और उसके समीप विभिन्न विभिन्न ग्रामों में पाठशाला की स्थापना करी। यह पाठशालाएं आर्यों के महान परिश्रम का परिणाम थी। नवाब के डर से आर्यों को न कोई सहयोग करता था। न भोजन देता था। चार-चार दिन भूखे रहकर उन्होंने श्रमदान दिया। तब कहीं जाकर पाठशालाएं स्थापित हुई। दरअसल लोहारू में उससे पहले केवल एक इस्लामिक मदरसा चलता था जिसमें केवल उर्दू पढ़ाई जाती थी। अधिकतर मुस्लिम बच्चे ही पढ़ते थे। एक आध हिन्दू बच्चा अगर पढ़ता भी था तो उसके ऊपर मौलवी इस्लाम स्वीकार करने का दबाव बनाते रहते थे। इसलिए हिन्दू जनता प्राय: अशिक्षित थी। आर्यसमाज द्वारा स्थापित पाठशाला में सवर्णों के साथ साथ दलितों को सभी को समान्तर शिक्षा दी जाती थी।
1947 के पश्चात नवाब जयपुर चला गया। एक बार स्वामी ईशानन्द उनसे किसी समारोह में मिले। स्वामी जी ने नवाब से पूछा की अपने आर्यों पर इतना अत्याचार क्यों किया जबकि वे तो उत्तम कार्य ही करने लोहारू आये थे। नवाब ने उत्तर दिया। अगर आर्यसमाज के प्रभाव से मेरी रियासत की जनता जागृत हो जाती तो मेरी सत्ता को खतरा पैदा हो जाता। अगर हिन्दू पढ़-लिख जाते तो मेरी नवाबशाही के विरोध में खड़े हो जाते। इसलिए मैंने आर्यसमाज का लोहारू में विरोध किया था।
पूर्व विधायक स्व. चन्द्रभान ओबरा कृत लोहारू बावनी का इतिहास नामक पुस्तक में उल्लेख मिलता है कि लोहारू रियासत 1803 ई में अपनी स्थापना से लेकर 23 फरवरी 1948 तक कथित रूप से नवाबी शासन अत्याचारों से त्रस्त रही तथा यहां के लोगों ने जोर जुल्म का हमेशा डट कर विरोध किया। पुस्तक के अनुसार नवाब द्वारा लगाए गए विभिन्न करों से लोगों में भारी रोष था। 1877 के भीषण अकाल के बाद मंढोली कलां गांव के एक बहादुर किसान बद्दा जाट द्वारा किया गया संघर्ष भी नवाब द्वारा उसे फांसी पर लटकाने के आदेश के बाद धूमिल हो गया। बद्दा जाट का बलिदान रंग लाया और रियासत के लोगों में विद्रोह की ज्वाला धधकने लगी। 6 अगस्त 1935 के दिन चैहड़कलां गांव में एकजुट हुए किंतु नवाब की मिलीभगत से अंग्रेजी सेना ने धावा बोलकर 50 से भी अधिक लोगों को गिरफ्तार कर उन्हे कैद में डाल दिया।
इस घटना के दो दिन बाद 8 अगस्त को आक्रोशित हजारों लोग रियासत के सिंघाणी गांव में एकत्रित हुए। शांतिपूर्वक सभा कर रहे लोगों पर गोलियों की बौछार करवा दी थी जिसमें तीन दर्जन से अधिक लोग काल के ग्रास बन गए थे। पुस्तक के अनुसार एक अप्रैल 1940 को स्वामी स्वतंत्रानंद के प्रयासों से लोहारू में आर्य समाज की नींव रखी गई तथा आर्य समाज से जुड़ने वाले लोग नवाबी शासन से मुक्ति के लिए एकजुट होने लगे। 29 मार्च 1941 में आर्य समाज के पहले वार्षिकोत्सव में जब स्वामी स्वतंत्रानंद और सैकड़ों आर्य समाजी सायंकाल को नगर कीर्तन कर रहे थे तब नवाब की सेना ने इन पर हमला बोल दिया। जिसमें स्वामी जी सहित काफी लोग घायल हुए। 20 सितंबर 1946 को प्रजा-मंडल के गठन से आंदोलन में काफी तेजी आई। अनेक देशभक्तों के बलिदानों के दम पर देश ने 15 अगस्त 1947 को आजादी पाई तथा केंद्र में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में सरकार बन गई फिर भी लोहारू रियासत नवाबी शासन से आजादी की लड़ाई लड़ रही थी। जींद जिले के खोरड़ गांव में हुए प्रजामंडल के खुले अधिवेशन में एक प्रस्ताव पास करके बीकानेर के महाराजा को यह कहा गया कि लोहारू राज्य को बीकानेर राज्य में यहां के नवाब ने प्रजा की बिना राय लिए मिलाया है तथा वे किसी शर्त पर आपकी रियासत में मिलना नहीं चाहते। अत: आपको चाहिए कि प्रजा की इच्छाओं का आदर करते हुए लोहारू राज्य का शासन प्रबंध भारत सरकार को सौंप दें।
यदि आपने इस प्रस्ताव पर कोई ध्यान नहीं दिया तो हमें बाध्य होकर अस्थायी सरकार बनाकर आजादी के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। लोहारू के प्रथम विधायक भक्त बूजाराम, पूर्व विधायक चंद्रभान ओबरा सहित प्रजा मंडल के प्रतिनिधि रियासती प्रजामंडल के अध्यक्ष डा. पट्टाभि सितारमैया से दिल्ली में मिला तथा प्रजा की इच्छा से उन्हे अवगत करवाया। नवाब ने उनके समक्ष अपना पक्ष रखा। पूरी स्थिति से अवगत होने के पश्चात डा.सितारमैया ने प्रजामंडल प्रतिनिधियों को सौराष्ट्र के मुख्यमन्त्री यू.एन. देबर के पास भेजा। देबर ने बताया कि बीकानेर रियासत के साथ विलय के बाद उत्पन्न वैधानिक स्थिति को देखते हुए आप लोग अपनी रियासत के गांव गांव जाकर पंजाब में मिलाने के पक्ष में लोगों के हस्ताक्षर करवा कर लाएं।
सभी गांवों से शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करवाकर आजादी के दिवाने लोहारू के लोगों ने देबर की सलाह पर राजस्थान के मुख्यमन्त्री मोहनलाल सुखाड़िया तथा अकाली नेता तारासिंह से लिखित अनापत्ति प्राप्त की कि लोहारू को पंजाब के साथ मिलाने पर उन्हे कोई एतराज नही है।इसके पश्चात सांसद लाला अचितराम ने सिंघानी की जनसभा में स्वयं जाकर जनता की राय पूछी। सभी ने एक स्वर में पंजाब के साथ विलय की बात कही। अन्तत: लोहारू की जनता, प्रजामंडल और आर्य समाज के प्रयास रंग लाए तथा लोहारू 23 फरवरी 1948 को तत्कालीन पंजाब रियासत का अंग बन गया।
लोहारु के नवाबों की लिस्ट (https://www.jatland.com/home/Loharu)
Ahmad Baksh Khan: 1806-1827
Sams-ud-din Khan: 1827-1835 (eldest son)
Amin-ud-din Khan: 1935-1869 (step brother)
Alauddin Ahmed Khan: 1869-1884 (son)
Amir-ud-din Ahmad Khan, K.C.S.I: 1884-1920 (son)(abdicated)
Aizz-uddin Ahmad Khan:1920-1926 (second son)
Amin ud-din Ahmad Khan:1926-1947 (son) – (acceded to India)
पाठक समझ सकते है कि हिन्दू जनता पर मुस्लिम शासक कैसे इतने वर्षों से अत्याचार करते आ रहे है। इसीलिए स्वामी दयानंद ने स्वदेशी राजा होने का आवाहन किया था। आर्यसमाज का इतिहास ऐसे अनेक प्रेरणादायक संस्मरणों से भरा हुआ हैं।