लोक संस्कृति अत्यंत ही व्यापक अवधारणा है! अनेक तत्वों का बोध कराने वाली, जीवन की विविध प्रवृत्तियों से संबंधित है! अतः विविध अर्थो व भावों में उसका प्रयोग होता है! वास्तव में संस्कृति ब्रह्म की भांति अवर्णनीय है! मानव मन की बाह्य प्रवृत्ति मूलक प्रेरणा से जो कुछ विकास हुआ है उसे सभ्यता कहेंगे,और उनकी अंतर्मुखी प्रवृत्तियों से जो कुछ बना है उसे संस्कृति कहेंगे!
लोक संस्कृति दो शब्दों के योग से जानी जाती है “लोक” और “संस्कृति ” यानी लोक की संस्कृति! लोक संस्कृति, लोकगीतों लोक कथाओं तथा लोक साहित्य का वह संचित कोष है जिसमें ग्रामीण अंचल के हर उस चरित्र की आवाज है, जो दैनिक दिनचर्या में भूमिका निभाता है! पितृसत्तात्मक सत्ता से लेकर महिलाओं की स्थिति तक, राजा- महाराजाओं के शौर्य के यशोगान और चरित्र की प्रेरणाओं से लेकर भीरु, कायरों की निंदा तक, विषयों को बेबाक एवं बेधड़क भाव से गीतों में सहेजे हुए है!
कहना गलत ना होगा कि’ लोकगीतों का इतिहास यदि विशाल है, तो इसका श्रेय भी ग्रामीण अंचल की महिलाओं को जाता है जिन्होंने गीतों की रचना की, विभिन्न अवसरों पर उन्हें गाए और अपने आने वाली पीढियां को हस्तांतरित कर दिए!’ इन लोकगीतों में से ज्यादातर गीतों के वास्तविक रचनाकार किसी को पता नहीं है लेकिन उनके भाव बताते हैं कि उनमें महिलाओं ने अपना कलेजा निकाल कर रख दिया है! भाव की जो अभिव्यक्ति उन गीतों में है जो बड़े-बड़े संगीतज्ञों के नहीं होते! गीतों के लिखने से लेकर गाए जाने तक, भावों की अभिव्यक्ति इतनी मनोरम और वास्तविक होती है की सुनते ही रोम- रोम पुलकित हो उठते हैं! इतना ही नहीं, इन गीतों में समाज, धर्म, राष्ट्र, पितरों, पूर्वजों, तथा देवताओं के प्रति कर्तव्य-बोध भी प्रचुर मात्रा में भरा हुआ दिखाई पड़ता है! यही कारण है कि हमारी संस्कृतियों कभी गुलाम नहीं हुईं! भारत के एकता तथा अखंडता की जब भी बात की जाए, सांस्कृतिक चेतना मेरुदंड की भांति दिखाई देती है!
लोक संस्कृति कभी भी शिष्ट समाज की आश्रित नहीं रही है उल्टे शिष्ट समाज लोकसंस्कृति से प्रेरणा अवश्य ही प्राप्त करता रहा है! लोक संस्कृति की एक रूपरेखा हमें भावाभिव्यक्ति की शैलियों में भी मिलती है, जिसके द्वारा लोक मानस की मंगल भावना से ओत -प्रोत होना सिद्ध होता है! लोक में व्यक्तिवादी कथनों से अभिव्यक्ति नहीं होती बल्कि सदैव समूह की बात की जाती है! वहां कोई अपरिचित नहीं होता! सभी समुदाय वाले एक रिश्ते या संबंधों में अभिव्यक्त होते हैं इसीलिए समूह के कल्याण की बातें करते हैं!
लोक से अभिप्राय, उस सर्वसाधारण जनता से है,जिसकी व्यक्तिगत पहचान न होकर सामूहिक पहचान है! दिन-हीन, दलित, शोषित ,वंचित, पिछड़ी, जंगली जातियां, कोल -भील, गोंड, संथाल, नाग ,कीरात, हुड, शक, यवन, खस ,पुक्कस आदि समस्त समुदाय का मिला-जुला रूप “लोक ” कहलाता है और इन सभी समुदायों की मिली- जुली संस्कृति “लोक संस्कृति “कहलाती है ! यद्यपि देखने में सबके रहन-सहन, वेशभूषा, बोलचाल, खानपान, कला-कौशल आदि सब कुछ अलग-अलग दिखाई देते हैं किंतु एक ऐसा सूत्र है जिससे यह सभी एक माला में पिरोई हुई मणियों की भांति दिखाई देते हैं ! जो सभी एकजुट है,इन्हें अलग करना संभव नहीं है! इनकी पहचान भी संयुक्त रूप से होती है! इन सभी समुदायों की मिली-जुली संस्कृति लोक संस्कृति है!
लोक संस्कृति, लोक कल्याण की बात करती है,मानव कल्याण की नहीं !लोक उत्थान की बात करती है, व्यक्ति के विकास की नहीं! यही कारण है की लोकमानस मांगलिक भावना की बात करता है! वह दीपक के बुझने की कल्पना से ही सिहर उठता है इसीलिए वह दीपक बुझाने की बात नहीं करता बल्कि “दीपक बढ़ाने” को कहता है! इसी प्रकार वह दुकान बंद करने की कल्पना से सहम जाता है इसीलिए “दुकान बढ़ाने” को कहता है!
लोक जीवन की जैसी नैसर्गिक सरलतम अनुभूतिमई, अभिव्यंजना का चित्र लोकगीतों व लोक कथाओं में मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है! विडंबना यह है कि लोक संस्कृति का बहुतायत पक्ष आज भी अलिखित( मौखिक) ही है! यद्यपि की विभिन्न लोकगीतों, लोक कथाओं, लोक श्रुतियों को संचित करने का प्रयास आज किया जा रहा है, फिर भी ‘लोक साहित्य’ अभी भी न के बराबर या अल्प मात्रा में ही प्राप्त होता है!लोक साहित्य में लोक मानव का हृदय बोलता है! प्रकृति स्वयं गाती है! भंवरे गुनगुनाते हैं! चिड़ियां चहचहाती हैं! गायें रम्भाती हैं ! इस प्रकार लोक जीवन के पग- पग पर लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं! इसीलिए लोक साहित्य भी उतना ही पुराना है, जितना मानव का इतिहास!
जन जीवन की प्रत्येक अवस्था ,हर वर्ग ,हर समय और संपूर्ण प्रकृति , लोक साहित्य में सब कुछ समाहित है ! अतः आज लोक संस्कृतियों का चित्रण, श्रुतियों और कथाओं को, परंपराओं और रीति रिवाज को लिपिबद्ध करने की परम आवश्यकता है ! आने वाली पीढ़ी के लिए वास्तविक भारतीयता का बोध कराने के लिए लोक में व्याप्त त्याग की भावना और सामूहिक उत्थान की संस्कृतियों का प्रतिदर्श दिखाने की आवश्यकता है!लोक कथाओं में वर्णित एकजुटता,मानवप्रेम, त्याग और बंधुत्व का रूप प्रदान करने की अति आवश्यकता है जो राष्ट्रीय एकीकरण के प्राण तत्व है!लोक संस्कृतियों का वास्तविक दर्शन लोक में जाकर ही संभव है! उन्हें देखकर, सुनकर, समझकर सीखने की आवश्यकता है जो किताबों में नहीं देखी जा सकती है!
डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी एवं डॉक्टर सत्येंद्र ने लोक संस्कृतियों पर अपने-अपने विचार प्रदान किए हैं जिसका सर यह है कि-“” लोक संस्कृति, वह संस्कृति है जो अनुभवों, श्रुतियों ,परंपराओं तथा रीति-रिवाजों से चलती है! इसके ज्ञान का आधार पोथी नहीं होती! भारतीय लोक संस्कृति की आत्मा भारतीय साधारण जनता है ,जो नगरों से दूर गांवों तथा वन- प्रांतों में निवास करती है! ”
(लेखिका अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ, नई दिल्ली से जुड़ी हैं।)