भोपाल। बाल साहित्य सही मायने में बोधगम्य, रुचिपूर्ण, ज्ञानवर्धक, बाल मनोभावों से युक्त सरल शब्दों में रचा गया सृजनात्मक साहित्य है । ऐसा साहित्य बच्चों का मनोरंजन करने के साथ-साथ ही उनके संपूर्ण विकास में सहायक होता है। यह अटल सत्य है कि बच्चों में साहित्य का संस्कार सबसे पहले उसकी माँ द्वारा ही रोपित किया जाता है। माँ द्वारा गायी जाने वाली लोरी और शिशु गीत जन्म लेने वाले बालक के लिए सबसे पहला बाल साहित्य होता है और माँ सबसे पहली बाल साहित्यकार होती है। ऐसा साहित्य बच्चों के दिलों को छूता है और माँ और बच्चे के बीच एक आत्मीयतापूर्ण रिश्ता कायम करता है। आज यहाँ दसवें विश्व सम्मेलन के दूसरे दिन एलेक्सई पेत्रोविच वरान्निकोवा सभागार में ‘बाल साहित्य में हिन्दी’ विषय पर आयोजित सत्र में यह निष्कर्ष सामने आये। सत्र की अध्यक्षता बच्चों की अत्यंत लोकप्रिय पत्रिका ‘चंदा मामा’ के पूर्व संपादक बाल शौरी रेड्डी ने की। कार्यक्रम की संयोजक श्रीमती ऊषा पुरी थी।
श्री बाल शौरी रेड्डी ने कहा कि भारत में प्राचीन काल से ही पंचतंत्र, हितोपदेश और कथा सरित्सागर के रूप में बाल साहित्य की एक समृद्ध परंपरा रही है। इसके अलावा लोककथाओं और दंतकथाओं के रूप में भी बाल साहित्य का एक विपुल भण्डार है जो पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से हस्तांतरित होता चला आ रहा है। उन्होंने कहा कि ऐसे तमाम किस्से, कहानियाँ हैं जो गाँव-देहातों में आज भी बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ़ी हैं और आये दिन कहीं-सुनी जाती है। श्री रेड्डी ने कहा कि आज भी बड़ी संख्या में हमारे घरों में दादी, नानी अथवा माँ कहानी की इस वाचिक परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। वे इन कहानियों के माध्यम से बच्चों को सच्चाई और यथार्थवादी बातों की सीख देती हैं।
डॉ श्यामसिंह नेगी ने कहा कि अब उपदेश का नहीं विज्ञान कथाओं का समय आ गया है। विज्ञान कथाओं का प्रस्तुतिकरण भी परीकथाओं की तरह रोचक, सहज, सरल और सरस होना चाहिए। उन्होंने कहा कि वर्तमान में लोक साहित्य रचने के लिए आज के बच्चों का मनोविज्ञान समझना होगा। श्री नेगी ने कहा कि संस्कारों और मानवीय मूल्यों से युक्त स्वस्थ बाल साहित्य से बच्चों का सर्वांगीण विकास होगा।
डॉ. वीणा गौतम ने कहा कि लोरी और शिशु गीत बच्चों की संस्कार-यात्रा है। उन्होंने कहा कि बाल साहित्य शिलालेखों की तरह जीवन-पथ पर संस्कारों और मूल्यों के मार्ग पर चलने में दिशा-दर्शन करता है। श्रीमती गौतम ने कहा कि केवल साहित्य और संगीत ही नहीं, कला के विभिन्न प्रारूपों का ज्ञान किसी भी बच्चे को सबसे पहले अपनी माँ से प्राप्त होता है। उन्होंने कहा कि बाल साहित्य शिशु की पाठशाला की तरह है जहाँ वह जीवन और मानवीय मूल्यों की बारहखड़ी सीखता है।
बाल भवन दिल्ली की पूर्व निदेशक श्रीमती मधु पंत ने कहा कि बच्चों के मन में क्या और क्यों, की बहुत जिज्ञासा होती है। बाल साहित्य के जरिये तर्क और वैचारिकता की कसौटी पर जाँच कर उनकी जिज्ञासा को शांत किया जा सकता है। श्रीमती पंत ने कहा कि हमारी जातक कथाओं में भी वैज्ञानिक आधार छुपा हुआ है। अब जरूरत इस बात की है कि जातक और पंचतंत्र की कहानियों को वैज्ञानिक जामा पहनाया जाए।
श्रीमती ऊषा पुरी ने कहा कि बाल साहित्य समाज के विकास में एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हमारे पौराणिक चरित्रों को वर्तमान संदर्भ में नये और मनोरंजक रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।
जोधपुर विश्वविद्यालय के कला संकाय के पूर्व अध्यक्ष नंदलाल कल्ला ने कहा कि कार्टून के जरिये बाल साहित्य को न केवल रोचक बल्कि विचारोत्तेजक भी बनाया जा सकता है। सरलता से त्वरित प्रक्रिया कार्टून की विशेषता होती है।
सत्र के अंत में वक्ताओं ने श्रोताओं के प्रश्नों का उत्तर भी दिये। सत्र में महापौर श्री आलोक शर्मा भी उपस्थित थे।