इन दिनों पढ़ने की आदत कम हो रही है। लेकिन फिर भी कुछ रौशनदान ऐसे हैं जो आशा बंधाते हैं। अनुपम मिश्र ऐसे ही गांधीवादी हैं। गर्भनाल में नीलम कुलश्रेष्ठ का लेख पढ़ा तो आंखें भर आईं। अनुपम ने अपनी एक किताब से हिन्दुस्तान में जो करिश्मा कर डाला है, वो बेमिसाल है। सोचता हूं कि आज भारत में किसी लेखक की किसी किताब की हजार डेढ़ हजार प्रतियां बिक जातीं हैं तो वो आसमान में उड़ने लगता है। लेकिन जिस किताब को अनुपम भाई ने रचा है, वो तो अद्भुत है। दस साल तक देश भर में घूमे, सारे देश के तालाबों का अध्ययन किया, उनकी बदहाली देखी, हमारी संस्कृति से उसका रिश्ता समझा और फिर उनकी कलम से निकली अनमोल कृति- आज भी खरे हैं तालाब।
सन 1993 में यह किताब छप कर पाठकों के हाथों में आई। मैंने इसे 1994 में पढ़ा। एक बार, दो बार, तीन बार। न जाने कितने बार। न यह बेस्ट सेलर श्रेणी में थी, न इसमें घटिया अश्लील भाषा थी और न चटखारे लेकर लिखी गई किसी की अंतरंग कहानियां। यह किताब एक सुबूत है कि गंभीर सरोकारों और पर्यावरण जैसे विषय पर आप समाज की चिंताओं के साथ खड़े हों तो समाज भी आपको सर पर बिठाता है। इस किंवदंती की एक झलक।
अब तक गांधी शान्ति प्रतिष्ठान दो लाख से ज्यादा प्रतियां बेच चुका है। करीब 18 साल तक हर साल एक लाख रूपए कमाने के बाद अब प्रतिष्ठान ने मुनाफे और कॉपीराइट से मुक्त कर दिया है क्यों कि मांग इतनी है कि आपूर्ति संभव नहीं। इसलिए पिछले पांच साल में अनगिनत प्रकाशकों ने इसे छापा है। जानकारी के मुताबिक इस तरह करीब दस लाख प्रतियां बिकीं हैं।
*नेशनल बुक ट्रस्ट और अन्य आठ प्रकाशन समूहों ने इसे आठ भाषाओं में अनुवाद कर प्रकाशित किया है।
* इस किताब का ब्रेल लिपि अनुवाद उपलब्ध है। आठ भाषाओं और ब्रेल के करीब 40 संस्करण बाजार में आ चुके हैं।
* इक्कीस आकाशवाणी केंद्रों ने इसे पूरा प्रसारित किया है। एक बार नहीं, दो बार नहीं, तीन बार नहीं। अनेक बार।
* उर्दू में यह एक ग्रन्थ की शक़्ल में आया। इसे संपादक शब्बीर कादरी ने प्रकाशित किया है।
* निरुपमा अधिकारी ने इसे बांग्लाभाषा में अनुवाद किया। बांगला में तो लोग इस पर टूट पड़े।
* सुहासिनी मुले ने इस किताब पर एक फिल्म नेचर टुडे बनाई। करीब एक दर्ज़न डाक्यूमेंट्री इस पर बन चुकीं हैं।
* दिल्ली विश्वविद्यालय ने अच्छी हिंदी के पाठ्यक्रम में इस किताब के अंश प्रकाशित किए हैं।
* मध्यप्रदेश सरकार ने इस किताब की 25 हजार किताबों का ऑर्डर किया। गांधी शान्ति प्रतिष्ठान इतनी संख्या में जब नहीं दे पाया तो सरकार ने अपने प्रेस में छपा कर किताबें गांव गांव बंटवाई।
* भारत ज्ञान विज्ञान परिषद् ने भी यही किया। इसकी 25 हजार प्रतियां खुद छपवाईं।
जिसे हम सक्सेस स्टोरी कहते हैं – इस किताब के आगे सारी सक्सेस स्टोरीज दम तोड़ जाती है। गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, कर्नाटक और न जाने कितने राज्यों के हजारों गांवों में किताब से प्रेरणा लेकर अनगिनत तालाब और छोटी छोटी नदियां जिंदा की गईं। गुजरात में सैकड़ों गांवों में अनुपम भाई की मौजूदगी में ये काम हुए। जब ढोल धमाकों के साथ अनुपम भाई का स्वागत होता तो बेचारे अनुपम भाई सकुचाते एक कौने में बैठ जाते। चिपको आंदोलन और राजेन्द्र सिंह के जल आंदोलन के वो स्तंभ रहे हैं।
* आज जब हर किताब में कॉपी राइट एक्ट के तहत सर्वाधिकार सुरक्षित मुद्रित होता है तो अनुपम भाई कहते हैं- इसका कोई कॉपीराइट नहीं है। इसका कोई भी इस्तेमाल कर सकता है। स्रोत दें तो अच्छा लगेगा। बताइए आप क्या गांधी या बिनोबा भावे का कोई 2016 का संस्करण नहीं देख रहे हैं। अनुपम हमारे असली भारत रत्न हैं।
सलाम ! अनुपम भाई
साभार- samachar4media.com से