काबुल के सरदार जब नादिर शाह के दूत के साथ उसका सन्देश लेकर दिल्ली के लिए निकले, तो रास्ते में जलालाबाद के गवर्नर मीर अब्बास ने उसे मार डाला। मीर अब्बास को इसका खामियाजा नादिर शाह के हमले के रूप में भुगतना पड़ा, जिसमें उसकी हत्या कर दी गई और उसके परिवार को जंजीरों में जकड़ कर नादिर शाह के सामने पेश किया गया।
ईरान में 18वीं शताब्दी के मध्य से पहले एक ऐसा शासक हुआ, जिसकी क्रूरता की कहानियाँ आज तक उन लोगों के रूह कँपा देती है, जहाँ-जहाँ उसने आक्रमण किए। पर्शिया के उस मुस्लिम शासक का नाम था नादिर शाह, जो अफ़्शारिद राजवंश का संस्थापक था। दिल्ली पर हमले के दौरान उसने भयानक कत्लेआम मचाया था। तब कमजोर मुग़ल शासन को पूरा अफगानिस्तान उसे सौंपना पड़ा था। उसे इतिहासकार ‘पर्शिया का नेपोलियन’ भी कहते हैं, उसकी सैन्य सफलताओं के कारण।
नादिर शाह की प्रेरणा थे तैमूर और चंगेज खान, मध्य एशिया के दो सबसे क्रूर शासक जिन्होंने दूर-दूर तक कत्लेआम मचाया। 1736 से 1747 में अपनी हत्या तक ईरान पर शासन करने वाले नादिर शाह ने होताकी पश्तूनों की बगावत का फायदा उठा कर तत्कालीन शासक सुल्तान हुसैन को अपदस्थ कर सत्ता हासिल की थी। उसका साम्राज्य अपने उच्चतम समय में अमेरनिया, अजरबैजान, जॉर्जिया, उत्तरी कॉक्सस, इराक, तुर्की, तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान, पाकिस्तान, बहरीन और ओमान तक फैला हुआ था।
नादिर शाह का भारत आक्रमण, दिल्ली में मचाई तबाही
नादिर शाह ने दिल्ली के मुग़ल शासक मुहम्मद शाह के पास अपना एक सन्देश भेजा। उस समय वो अफगानिस्तान में अपना युद्ध अभियान चला रहा था और उसने मुगलों से स्पष्ट कह दिया कि वहाँ के किसी भी भगोड़े को मुग़ल साम्राज्य में शरण नहीं मिलनी चाहिए। कंधार पर नादिर शाह के कब्जे के बाद वहाँ के कई लोग काबुल की तरफ भाग खड़े हुए थे। मुगलों ने पर्शियन शासक को आश्वासन दिया कि उनके कहे अनुसार ही चीजें होंगी।
लेकिन, जब कई अफगानों ने मुग़ल सत्ता के अंदर शरण ली और नादिर शाह को इस बात का पता चला तो उसने इसे धोखे के रूप में लिया। नादिर शाह ने इसके बाद तीसरी बार अपने एक दूत को दिल्ली भेजा और अधिकतम 40 दिन रह कर लौटने को कहा। हालाँकि, वहाँ मुगलों ने उसे कोई भाव नहीं और वापस जाने से भी रोक दिया। जब एक वर्ष बीत गए, तब नादिर शाह ने उसे आदेश भेजा कि वो वापस आए, मुगलों का जवाब मिले या नहीं। नादिर शाह का दिल्ली की तरफ जाने का कोई इरादा नहीं था, लेकिन इस अपमान को वो सह नहीं पाया।
नादिर शाह को काबुल तक पहुँचने में कोई परेशानी नहीं हुई, क्योंकि रास्ते में कोई भी उसे रोकने की हिमाकत नहीं कर सका और डर के मारे उसे रास्ता दिया जाता रहा। काबुल में जरूर हल्का-फुल्का युद्ध हुआ, लेकिन वहाँ की मुग़ल फ़ौज को आत्मसमर्पण करना पड़ा। सन् 1738 की गर्मी तक पर्शियन फ़ौज काबुल से आगे बढ़ चुकी थी। रास्ते में वो मारकाट मचाते चला और अफगानों में से जो हट्टे-कट्टे थे, उन्हें अपनी फ़ौज में भर्ती कर लेता था।
काबुल के सरदार जब नादिर शाह के दूत के साथ उसका सन्देश लेकर दिल्ली के लिए निकले, तो रास्ते में जलालाबाद के गवर्नर मीर अब्बास ने उसे मार डाला। मीर अब्बास को इसका खामियाजा नादिर शाह के हमले के रूप में भुगतना पड़ा, जिसमें उसकी हत्या कर दी गई और उसके परिवार को जंजीरों में जकड़ कर नादिर शाह के सामने पेश किया गया। ये भी जानने लायक बात है कि नादिर शाह जब दिल्ली पहुँचा, तब औरंगजेब की मौत को 32 साल हो चुके थे।
मुगल साम्राज्य लगातार कमजोर हो रहा था, क्योंकि मध्य भारत और पश्चिमी हिस्से में मराठाओं की शक्ति लगातार बढ़ते जा रही थी। मुगलों के अंतर्गत शासन करने वाले कई मुस्लिम सरदारों ने भी अपनी-अपनी आज़ादी का ऐलान कर दिया था। उत्तर में पश्तून बगावत पर उतर आए थे, जिस कारण अफगानिस्तान में मुग़ल शासन की क्षमता कमजोर हो गई थी। ऑटोमन और पर्शियन की तरह मुगलों की अमीरी भी दुनिया भर में प्रसिद्ध थी, तो नादिर शाह को भारी लूटपाट करने का भी मन था।
नादिर शाह सबसे पहले गजनी के दक्षिण में करारबाग में रुका, जहाँ से उसने मुग़ल शासन वाली जमीन पर प्रवेश किया। उसके बेटे नसरुल्लाह ने एक फ़ौज के साथ आगे बढ़ कर नसरुल्लाह और बामियान पर कब्ज़ा जमाया। गजनी का गवर्नर तो भाग खड़ा हुआ, लेकिन वहाँ के अन्य मुस्लिमों ने नादिर शाह का स्वागत किया। नादिर शाह ने काबुल से ही अफगानिस्तान को चलाना शुरू किया और अपने लोग नियुक्त किए। खैबर पास में मुगलों से उसका युद्ध हुआ और पेशावर पर नादिर शाह ने कब्ज़ा कर लिया।
फरवरी 1739 में नादिर शाह ने सिंधु नदी पर एक पुल बनवाया और उसके बाद करनाल के युद्ध में मुगलों को फिर हार झेलनी पड़ी। दिल्ली से 120 किलोमीटर दूर मुहम्मद शाह एक बड़ी फ़ौज के साथ पहुँचा था, जो 3 किलोमीटर की चौड़ाई और 25 किलोमीटर की लंबाई लेकर चल रही थी। पौने 4 लाख की फ़ौज के अलावा हजारों तोपें और हाथी भी उसमें थे, लेकिन अधिकतर सैनिक अप्रशिक्षित थे। ये नादिर शाह की चाल ही थी कि उसने मुहम्मद शाह को अपनी पसंद की जगह पर युद्ध करने को मजबूर कर दिया। उसने पहले ही पूरी रेकी कर रखी थी।
दिल्ली में पर्शियन फ़ौज ने मचाई भयंकर तबाही
नादिर शाह ने 20,000 मुग़ल फौजियों को मौत के घाट उतार दिया और मुहम्मद शाह को आत्मसमर्पण करना पड़ा। पर्शियन सेना में से 500 को भी मुग़ल नहीं मार पाए। मुहम्मद शाह को नादिर शाह के पास पेश होना पड़ा। जब नादिर शाह दिल्ली में घुसा, तब हारे हुए मुगलों ने तोपों और बंदूकों की फायरिंग से उसका स्वागत किया। पर्शियन नया साल ‘नवरोज’ उसने दिल्ली में ही मनाया। लेकिन, दिल्ली की जनता ने नादिर शाह के खिलाफ बगावत कर दिया।
इसे कुचलने के लिए वो भयानक क्रूरता पर उतर आया। पर्शियन सेना ने 6 घंटे के भीतर 30,000 लोगों को मार गिराया। यमुना नदी के किनारे ले जाकर कई लोगों का सिर कलम कर दिया गया। लोगों के घरों में घुस-घुस कर पर्शियन फ़ौज उन्हें मारने लगी। उसके बाद वो घरों को आग के हवाले कर देते। कई लोगों ने परिवार के साथ तो आत्महत्या कर ली, क्योंकि पर्शियन फ़ौज के हाथों मरने से उन्हें यही अच्छा लगा। दो मुग़ल सरदार सैयद नियाज़ खान और शाहनवाज खान बगावत में शामिल थे, उन्हें उनके सैकड़ों समर्थकों के साथ लाकर नादिर शाह के सामने मार डाला गया।
इसके बाद नादिर शाह ने दिल्ली के हर इलाके में टैक्स वसूलने के लिए अपने लोग भेजे। पर्शियन फ़ौज ने मुगलों के ‘पीकॉक थ्रोन’ को भी अपने कब्जे में ले लिया। कोहिनूर और दिया-ए-नूर हीरे भी नादिर शाह को पेश किए गए। शांति तभी हुई, जब मुगलों ने फटाफट नादिर शाह के सामने खुद ही अपने साम्राज्य का एक हिस्सा और धन पेश कर दिया। सिंधु नदी से पश्चिम की सारी जमीनें नादिर शाह के पर्शियन साम्राज्य का हिस्सा बन गईं।
मई 1739 की शुरुआत में नादिर शाह ने वापस पर्शिया जाने की तैयारी शुरू की। कहते हैं, उसने भारत से इतना धन लूटा था कि वापस जाने के बाद अपने मुल्क में उसे अगले तीन वर्षों तक टैक्स वसूलने की जरूरत ही नहीं पड़ी। हजारों हाथी, ऊँट और घोड़े भी वो अपने साथ ले गया। यही वो तबाही थी, जिसके बाद ब्रिटिश को भी मुगलों की कमजोरी का पता चला। अगर ये घटना नहीं होती, तो शायद अंग्रेज भी भारत पर इतनी जल्दी शासन नहीं कर पाते।
साभार- https://hindi.opindia.com/ से