अच्छा है जो अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने जम्मू कश्मीर में सरकार के मामले को सर्द बस्ते में डाला। पीडीपी की मेहबूबा मुफ्ती से अमित शाह और नरेंद्र मोदी नहीं मिले। वे खाली हाथ श्रीनगर लौटी। खबर है कि वे पीडीपी नेताओं की बैठक बुलाएगी। फिर प्रेस कांफ्रेस करके सरकार गठन के मामले में हाथ खड़े करेगी। पर क्या वे ऐसा कर सकेगी? इससे बड़ा सवाल है कि केंद्र की मोदी सरकार क्या बात को इतना टूटने देगी? एक हिसाब से टूटने देना चाहिए। इसलिए कि मेहबूबा मुफ्ती ने अपने पिता की मृत्यु की बाद एलायंस धर्म नहीं निभाया। घाटी के उग्रवादियों को खुश करने के लिए उन्होने फालतू में केंद्र सरकार पर दबाव बनाया कि पहले उनकी फलां-फंला शर्त मानी जाए तभी साझा सरकार संभव है। गड़बड़ मेहबूबा मुफ्ती ने की। सो अब उन्हंे ही झुकना चाहिए।
पर वे झुक जाए तब भी दिक्कत है। पिछले दो महिनों में ऐसा कुछ हुआ है जिससे भाजपा ने राष्ट्रवाद का झंडा उठा लिया है। जेएनयू में अफजल की बरसी और कश्मीर की आजादी के साथ भारत के टुकड़े का मूल जम्मू-कश्मीर की स्थिति है। इसका ऐसा अखिल भारतीय हल्ला हुआ कि अमित शाह और नरेंद्र मोदी के लिए उस पीडीपी पार्टी के साथ एलायंस बनाना मुश्किल है जो अफजल की सहानुभूति में रही है।
फिर मुफ्ती मोहम्मद और उनकी बेटी मेहबूबा मुफ्ती में फर्क है। मुफ्ती मोहम्मद की बुर्जुगियत, उनके अनुभव के प्रति आदर भाव था। उन्होने भाजपा के साथ साझा सरकार बनाने का साहस दिखा जम्मू-कश्मीर को बदलने का ख्याल बनाया था। उन्हे पता था कि कश्मीर घाटी में उनके कदम का स्वागत नहीं होगा। घाटी के उनके वोट विरोधी बनेगे। पर उन्होंने परवाह नहीं की। उनकी आक्समिक मृत्यु के बाद उनकी बेटी मेहबूबा को उनके अधूरे सपने, साझा सरकार की उनकी विरासत का सम्मान करना चाहिए था। मगर वे यह देख कर डरी कि मुफ्ती के अंतिम संस्कार के वक्त श्रीनगर में लोग नहीं उमड़े। तभी मेहबूबा मुफ्ती को आगे के राजनैतिक करियर की चिंता हुई। उन्होंने भाजपा के प्रति सख्त रूख अपनाया। अपनी शर्ते थौंपी। उनकी प्राथमिकता यह थी कि घाटी के उग्रवादी लोगों को वे किसी तरह खुश करें फिर भले इसके लिए केंद्र की भारत सरकार को झुकाना पड़े उसे अपनी शर्ते मानने को मजबूर करे।
एक वक्त लगा था कि मोदी सरकार और भाजपा सत्ता के लालच में शायद मेहबूबा मुफ्ती की मांगे मान ले। जैसे पॉवर प्रोजेक्ट प्रदेश सरकार को ट्रांसफर करने की बात है। कहने को यह मामूली बात है मगर संघीय व्यवस्था के हिसाब से बहुत गंभीर। तब कल बिहार से ले कर तमिलनाडु आदि तमाम प्रदेश के मुख्यमंत्री अपनी राजनीति चमकाने के लिए दबाव बनाने लगेगें कि उनके वहां लगे एनटीपीसी या एटमी पॉवर प्रोजेक्ट प्रदेश सरकार को सुपुर्द किए जाए। फालतू तर्क है कि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा है इसलिए उसे ऐसा मांगने का हक है।
ऐसे ही मेहबूबा ने सशस्त्र बल एक्ट याकि आफ्सपा को जिलों से हटवाने का दबाव बनाया। मतलब केंद्र सरकार अपनी समझ, अपनी चिंता में सशस्त्र बल की तैनातगी न करें और वह प्रदेश सरकार के कहे पर चले। सोच सकते है कि जिस बात को केंद्र की मनमोहन सरकार और कांग्रेस ने नहीं माना उन बातों को मेहबूबा मुफ्ती ने मोदी सरकार से मनवाना चाहा। ऐसा नहीं हुआ तो मेहबूबा मुफ्ती के लिए रास्ता यही बचा है कि पहले जो न्यूनतम सहमति का दस्तावेज बना है उसी को आधार मान वे भाजपा को मनाते हुए साझा सरकार बनाएँ।
पर क्या भाजपा और केंद्र सरकार को ऐसा करना चाहिए? कतई नहीं। इसलिए कि मेहबूबा मुफ्ती ने अपने को अस्थिर दिमाग का, घाटी की उग्रवादी जमात की चिंता करने वाला नेता प्रमाणित किया है। कोई गारंटी नहीं कि अभी वे भाजपा से समझौता करें और बाद में मौका आने पर उग्रवादियों में अपील करने वाले किसी मुद्दे को उछाल उसके हवाले भाजपा को लात मारे। मुफ्ती मोहम्मद पर भरोसा संभव था मेहबूबा पर नहीं।
तब मोदी सरकार क्या करें? उसे राष्ट्रपति शासन लगाए रख अपने एजेंडे पर काम करना चाहिए। इसमें एक दिक्कत है। श्रीनगर में सालों से एनएन वोरा राज्यपाल है। उनका घाटी में सम्मान है। तभी मोदी सरकार ने उन्हे निरंतर रखा हुआ है। मगर उनमें जगमोहन जैसी सोच, प्रशासनिक धमक और कुछ करने का जुनून नहीं है। इसलिए केंद्र सरकार राष्ट्रपति शासन के जरिए राज्य में कुछ ठोस, अपने एजेंडे के अनुसार कुछ कर सकें, इसके आसार नहीं बनते है। हिसाब से नरेंद्र मोदी ने कश्मीर में उदारता, सदभावना दिखाने में कोताही नहीं बरती है।
उन्होंने पीडीपी के साथ सरकार का प्रयोग किया। पर बदले में घाटी के लोगों के मनौविज्ञान पर रत्ती भर असर नहीं हुआ। जम्मू व लद्दाख क्षेत्र में भाजपा ने अपनी इमेज गंवाई है। इसलिए मोदी को अब भाजपा के कोर एजेंडे के अनुसार काम कराना चाहिए। भाजपा क्यों न जम्मू व लद्दाख को अलग प्रदेश बनाने की सोचती है? आखिर पिछले चुनाव से साबित हुआ कि तीनों क्षेत्र अलग-अलग सोचते है। चाहे तो राज्य के दायरे में ही अलग स्वायत्त शासन जैसी व्यवस्थाएं बने। गौरखालैंड जैसा प्रयोग जम्मू या लद्दाख के लिए क्यों न हो? इसके लिए यदि संसद की साझा बैठक बुला कर विधेयक बनवाना पडे तो उसमें हर्ज नहीं है। जेएनयू, अफजल, आजादी की तमाम बातों के बीच प्रदेश में नई पहल वक्त का तकाजा है। अन्यथा बार-बार ढाक के तीन पांत वाली स्थिति होती रहेगी। कुछ तो बुनियादी ठोस नया प्रयोग जम्मू-कश्मीर में हो। इतनी राजनैतिक इच्छा शक्ति तो नरेंद्र मोदी दिखा सकते है।
क्या नहीं?
साभार- http://www.nayaindia.com/ से