बात लगभग 10 बजे रात की है, रात का खाना खाने से पहले अनायास ही लगा कि अपने शहर का एक राउंड लगाकर आया जाये। शहर में अलाव जल रहे हैं या नहीं, कोई मुसाफिर या बेघर व्यक्ति खुले आसमान के नीचे तो नहीं सो रहा है, यही सब देखने के लिए अपनी निजी गाड़ी से अपने छोटे भाई के साथ सुनसान शहर में एक राउंड गश्त किया। इसी दौरान घंटाघर के निकट जलते अलाव के पास 2 मिनट रुक कर आग तापी, अलाव ताप रहे दो रिक्शा चालकों को एक एक गर्म टोपी दी और वापस घर की ओर लौटने लगा। इतने में अंबेडकर तिराहे के पास यात्री शेड के नीचे अंधेरे में कुछ लोगों के बैठे होने का अंदेशा हुआ, गाड़ी रोकी, उतरकर देखा कि वहां लगभग 25 साल की एक बहन अपने दुधमुंहे बच्चे को गोद में लिए, अपने श्वसुर के साथ कंपकंपाती ठंड में शायद किसी अप्रत्याशित वाहन का इंतजार कर रही थी।
पूछने पर पता चला कि वे लोग रांची से उस छोटे बच्चे का इलाज करा कर वापस अपने गांव जा रहे हैं किंतु जिस बस में रांची से बैठे थे वह बस यहीं तक थी, आगे के गंतव्य वाली किसी अज्ञात बस की प्रतीक्षा में है। मैंने उन्हें बताया कि अब 10:00 बजे से ज्यादा का टाइम हो गया है अब शायद उन्हें कोई बस नहीं मिलेगी इसलिए उन से अनुरोध किया कि वे हमारे सरकारी रैन बसेरे में चलें वहां उनकी सुरक्षित रात कट जाएगी और सुबह अपने गंतव्य को निकल जाएंगे। किंतु वे शायद रैन बसेरे की व्यवस्था से अनभिज्ञ थे या मुझ पर अविश्वास कर रहे थे, उन्होंने साफ मना कर दिया कि वे कहीं नहीं जाएंगे। मुझे चिंता हो रही थी कि इस सुनसान शहर में एक बहन, एक बुजुर्ग तथा एक दुधमुंहे बीमार बच्चे की पूरी रात शीतलहरी में कैसे गुजरेगी।
इतने में एक वातानुकूलित बस निकली जिसे रुकवाने का प्रयास किया किंतु वह नहीं रुकी, इस पर उस बच्चे के दादा जी ने मुझसे कहा कि सर अगर मेरी मदद करनी है तो अपनी गाड़ी में बैठा कर इस बस को ओवरटेक करके रुकवा दीजिए, इसी बस से हम आगे चले जायेंगे। मैंने उन लोगों को अपनी गाड़ी में बैठा लिया, सामान रखवा लिया और बस का पीछा किया। बस को ओवरटेक करने में लगभग 4 किलोमीटर गाड़ी चलानी पड़ी किंतु ओवरटेक करने के बाद बस को रुकवा कर पता चला कि वह बस तो सिर्फ 1 किलोमीटर ही आगे और जाएगी। दरअसल वह स्थानीय मालिक की कोई बस थी जो रात में पार्क होने के लिए जा रही थी। वे लोग उदास हो गए। अब मेरे सामने भी प्रश्न खड़ा हो गया कि अब मैं इनको वापस उसी यात्रीशेड में छोड़ूं या रैन बसेरे में या उनके गंतव्य तक छोड़ दूं। मैंने उनसे आग्रह किया कि कृपया वे बताएं कि उनका गंतव्य यहां से कितने किलोमीटर दूर है, मैं उनको वहां तक पहुंचा दूंगा चाहे कितनी भी दूरी पर क्यों न हो।
उन्होंने बताया कि सिर्फ 28-30 किलोमीटर दूर है। मैंने खुशी खुशी कहा कि मैं छोड़ देता हूं, इस पर शायद वो लोग थोड़ा सशंकित हुए (जैसा मुझे लगा) कि मैं छोड़ने के नाम पर इतना खुश क्यों हो रहा हूं। खैर अब हम लोग आगे बढ़ चुके थे, गाड़ी चल रही थी। इस बीच मैं उनसे बातें भी करता जा रहा था ताकि चुपचाप रहने से उनको अनावश्यक कोई संशय न हो, बातचीत में पता चला कि वे साहू जी हैं, तथा अपने पोते की बीमारी का इलाज कराकर रांची से आ रहे हैं। मैंने उनसे कहा कि वे अपने घर वालों को फोन करके बता दें कि वे किसी के साथ कार में लिफ्ट लेकर आ रहे हैं, ताकि वे लोग मुख्य सड़क तक आ जाएं और मुझे गांव की गलियों तक न जाना पड़े ताकि मैं भी उन्हें छोड़कर जल्दी वापस हो जाऊं। इतने में वे अपने गांव घर में फोन लगाने लगे, शायद 10:30 से अधिक समय हो गया था, लोग सो गए होंगे, किंतु उनके थोड़े प्रयास के बाद फोन से गांव के किसी रिश्ते के भतीजे से सड़क तक आने की उनकी बात हो गयी। लगभग 11 बजे के आसपास हमारी कार उनके गांव के मोड़ तक पहुंच गयी जहां उनका भतीजा बाइक से उनका इंतजार कर रहा था।
जब उसने इन्हें बाइक में बैठा लिया और बाइक चल दी तब जाकर मुझे अपनी उस जिम्मेदारी की पूर्णता का अनुभव हुआ जो लगभग 50 मिनट पहले उन्हें देखने के बाद एक अधिकारी के रूप में ही नहीं बल्कि एक आम नागरिक के रूप में मुझे अपनी नैतिक जिम्मेदारी का एहसास हुआ था कि इनको इस हाल में तो नहीं छोड़ा जा सकता, बल्कि हर हाल में इन्हें सुरक्षित गंतव्य तक पहुंचाना है। हां जाते जाते एहतियातन उस बच्चे की बीमारी के दस्तावेज, उनके आधार कार्ड तथा उन सभी के साथ एक दो फोटो मेरे छोटे भाई (मेरे साथ मौजूद थे) ने ले लिये। ताकि बाद में यह प्रमाण रहे कि उन लोगों को किसके साथ बाइक में भेजा। लौटकर लगभग 12:00 बजे मध्यरात्रि हम लोग घर पहुंचे और तब हमने आत्मसंतुष्टि के भाव के साथ भरपेट भोजन किया।
(ठीक दो वर्ष पहले का संस्मरण)
(लेखक झारखंड में प्रशासनिक सेवा में हैं और सोशल मीडिया पर संवेदनशील मुद्दों पर निरंतर लेखन करते रहते हैं)
साभार- https://twitter.com/dc_sanjay_jas/