एक दिन मैंने देखा –
सभी मुझसे रुष्ट है ,
सभी मुझसे असंतुष्ट है ‘
सभी मुझसे नाराज है,
हर काम में कमी निकालते हैं,
सिर्फ सिखाते और ज्ञान देते रहते हैं।
तब मैंने सोचा-
अगर मैं किसी के लिए उपयोगी नहीं,
तो मेरे दिल में भी कोई नहीं।
कोई मुझसे प्यार नहीं करता ,तो
मैं भी किसी से प्यार नहीं करूंगा।
कोई मुझसे संतुष्ट नहीं है-
तो मुझे किसने संतुष्ट किया?
कोई मुझ से खुश नही है ,
तो मै भी सबसे नाखुश हूँ।।
तब मै ही क्यों ?
सबके पीछे भागूँ,
अपना समय बर्वाद करू,
सबके पीछे मरुँ,
सबको खुश और संतुष्ट करूं।
नही करूँगा,
किसी के लिए,
कोई काम,
नही करना है।।
बस मुझे भी अपने मन का,
करना है,
अब अपने तरीके से जीना है।
और करने भी लगा,
मन की मन से,
दिल की दिल से,
पूरी शिद्दत से,
खुशी से,अपनी वाली,
करू भी क्यों न?
सभी को दिखाना भी तो था।
और करना शुरु किया—
दिया जमाने को जमकर,
धन, समय, इज्जत और प्रेम ,
बदले में हमको भी बहुत मिला,
प्रेम,सम्मान और वाह -वाही ।।
आगे बढ़ता गया ,
कारवाँ बनता गया
और किसी की याद न आई,
लेकिन एक दिन आई ,
मेरी माई ।।
बुलाने नहीं,
कोई काम के लिए नहीं,
लेने को अंतिम विदाई,
और चली गयी ,
लेकिन दिखा गयी ,
हकीकत का आईना,
मैं कहां था?
पर जहां था,
वहां अकेला खड़ा था।
सब मेरे पास थे,पर मैं
किसी को देख नहीं पा रहा था।।
मैं अकेला खड़ा था ,पर स्तब्ध,शांत,मूक और
ठगा सा,
आंखों से मृग मरीचिका की बंधी पट्टी उतर गई थी ,
दरवाजे पर मां की लाश पड़ी थी।
जो झकझोर कर कहने लगी,
तेरे लिए,
बदला तो कभी कुछ नही था , बस तेरा ही,
नजरिया बदल गया था ।।
जो लगा , सोचा और देखा,
वैसा तो कभी कुछ था ही नहीं,
क्रोध आये तो थोड़ा रुक जाओ,
जरूरत पड़े तो थोड़ा झुक जाओ।
क्योंकि दिखने, लगने, सोचने और होने में
बड़ा फर्क होता है।।
तुमने सब कुछ बता दिया,
माई! पर …..
बड़ी देर हो गई !
जो मिला था सब खो गया ,
मेरा जीवन व्यर्थ गया ,
और मैं ?
फिर से अकेला हो गया ।
तुमने तो सब कुछ बताया था,
पर मुझसे ही देर हो गया,
बड़ा ही देर हो गया !!
डॉ सुनीता त्रिपाठी “जागृति ”
नई दिल्ली