Monday, November 25, 2024
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कमजोर कांग्रेस और मोदी की मजबूती का कमाल

कांग्रेस हार गई। इस हार के बाद बहुत लोग बोलते लगे हैं। शरद पवार भी बोले। पवार सही बोले। किसी भी देश को नेता तो मजबूत ही चाहिए। क्या गलत कहा। मजबूती नहीं थी, इसीलिए राजस्थान में कांग्रेस अपनी ऐतिहासिक हार भुगत रही है। एक सौ उन्तीस साल पुरानी कांग्रेस राजस्थान में सिर्फ 21 सीटों पर सिमट कर रह गई  है। वैसे, देखा जाए तो ये विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों प थे ही नहीं। नरेंद्र मोदी ने अपने पराक्रम से विधानसभा के इन राज्यों के चुनावों को भी किसी राष्ट्रीय चुनाव की तस्वीर बख्श दी।

हकीकत में यह सत्ता का सेमी फाइनल था। फिर भी   राजस्थान के इतिहास में यह पहला मौका है, जब कांग्रेस को इस तरह की शर्मनाक और सबसे खराब स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। देश में जनता पार्टी के उदय के मौके पर 1977 में कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका लगा था, उस  दौरान भी राजस्थान में कांग्रेस को कुल 41 सीटें मिली थी। लेकिन इस बार उससे भी 20 सीटें कम मिलना कांग्रेस के सबसे बुरे समय की तस्वीर है। देने को इस दुर्गति का सारा दोष सीएम अशोक गहलोत को दिया जा रहा है। मुखिया होने के नाते जिम्मेदारी और जवाबदेही दोनों उन्हीं की है। लेकिन अकेले गहलोत क्या करते। इस बार पूरे प्रदेश में कोई था ही नहीं, जो कांग्रेस के समूचे चुनाव अभियान को संचालित करता। कांग्रेस ने बीजेपी की तरह थोड़ी सी भी एकता दिखाई होती तो लाख सत्ता विरोधी लहर होने के बावजूद कांग्रेस की कम से कम ऐसी दुर्गति नहीं होती, जो हुई है।

जो लोग मान रहे हैं कि सरकार में रहने के कारण सामान्य तौर पर जो कांग्रेस विरोधी वातावरण बनता है, उसकी वजह से कांग्रेस हारी। लेकिन ऐसा तो नहीं है कि गहलोत दिल्ली की शीला दीक्षित की तरह 15 साल से राज कर रहे थे। गहलोत तो पिछली बार भी अल्पमत को बहुमत में बदलने का करिश्मा करके पांच साल से सरकार में थे। जुगाड़ की जादूगरी करके भी उनने सरकार कोई बहुत बुरी नहीं चलाई। फिर ऐसा भी नहीं है कि अशोक गहलोत सरकार ने देश की किसी बी सरकार के मुकाबले खराब काम किया। और ऐसा भी नहीं है कि पेंशन, स्कूल फीस, मुफ्त दवा,  मुफ्त डाक्टरी जांच, बुजुर्ग सम्मान, तीर्थ यात्रा, जननी सुरक्षा सहित कई अन्य सरकारी योजनाओं से आम जनता को फायदा नहीं हुआ। फायदा हुआ, लेकिन पता नहीं क्यों काग्रेस को यह समझ में नहीं आया कि बाहर नरेंद्र मोदी जो माहौल बना रहे हैं, उससे सत्ता विरोधी लहर अचानक लहलहाने लगी है। और अंत तक कांग्रेस मोदी की उस लहर को ही सिरे से खारिज करने की बेवकूफी करती रही।  

देश में बेतहाशा बढ़ती महंगाई के कारण केंद्र सरकार के प्रति और खासकर कांग्रेस के खिलाफ लोगों में जबरदस्त गुस्सा था। बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने इस गुस्से को समझा, उसे हवा दी और उसे धधकती ज्वाला में परिवर्तित किया। जबकि कांग्रेस ने तो उसे समझने की ही कोशिश नहीं की। तो फिर वह उस ज्वाला का शमन करने के प्रयास क्या करती। यह एक खास किस्म का ज्वार है, जो अगले लोकसभा चुनावों तक जिंदा रखे रहने के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन कांग्रेस है कि हाथ पर हाथ धरे बैठी है। सोनिया गांधी ने चुनाव के नतीजों पर फट से कह तो दिया है कि वे हताश है, और युवराज राहुल गांधी ने भी कह दिया है कि हमें ‘आप’ से सीखने की जरूरत है। लेकिन आखिर कब तक सीखते ही रहेंगे, यह भी खयाल में रखना होगा। जहाज उड़ाने के अति महत्वपूर्ण अवसर पर भी सीखने की ललक नासमझी से ज्यादा कुछ नहीं होती।  

इधर, हारे हुए सीएम अशोक गहलोत अब भले ही मन को समझाने के लिए यह कहते रहें कि वसुंधरा राजे ने झूठा प्रचार किया और अफवाहें फैलाई, इसलिए वे जीती। लेकिन इतना तो वे भी जानते हैं कि झूठ और अफवाहों पर इतने डरावने अंदाज में चुनाव नहीं जीते जीते। दरअसल, उनके अपने ही साथियों सीपी जोशी की सभी तरह से असफल प्रयास करके सीएम बनने की अतृप्त आकांक्षा और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जैसे गरिमामयी पद पर बिराजमान होने के बावजूद डॉ. चंद्रभान की विधायक सा सामान्य पद पाने की लालसा में पार्टी का जो कबाड़ा हुआ, उस पर गहलोत पता नहीं नहीं क्यूं कुछ नहीं बोल रहे हैं। वैसे गहलोत समझदार राजनेता हैं और जब जो बोलना होता है, वही बोलते हैं। शायद इसीलिए वे राहुल गांधी के सीपी जोशी को अनावश्यक प्रोत्साहन पर भी मौन हैं। क्योंकि राजनीति में किसी को भी देर सबेर बहुत कुछ अपने आप समझ में आ जाता है। और न भी समझ में आए तो किसी को क्या फर्क पड़ता है।

कांग्रेस को यह समझना चाहिए कि प्रदेश में पूरी बीजेपी वसुंधरा राजे के साथ खड़ी थी। यहां तक कि उनके परम पराक्रमी विरोधी घनश्याम तिवाड़ी भी संपूर्ण शरणागत भाव से पार्टी के सिपाही बनकर मैदान में आ गए थे और वसुंधरा की नीतियों के मुखर आलोचक गुलाबचंद कटारिया भी अपनी कटार को कमान में रखकर पार्टी को जिताने में लग गए थे। कांग्रेस में इस चुनाव के दौरान ऐसा कहीं नहीं और कभी नहीं दिखाई दिया। इस चुनाव में गहलोत अकेले थे। उनके साथ के बड़े नेता कहीं परिदृश्य में भी नहीं थे। नरेंदेर मोदी ने प्रद्श में जितनी सभाएं की, उससे माहौल बना। कांग्रेस ने उसे रोकने के लिए तो कोई प्रयास नहीं किए, यह तो ठीक। मगर अपने हालात सुधारने के लिए की गई सोनिया गांधी और राहुल गांधी की न तो सभाएं ज्यादा कराई और न ही उनमें भीड़ बढ़ाई। फिर सबसे बड़ी बात यह भी है कि गहलोत एक हद तक यह समझने में भी असफल रहे कि वे जिस पिछड़े वर्ग के प्रदेश मे सबसे बड़े नेता है, वह पिछड़ा वर्ग और उनका अपना माली समाज ही मोदी का मुरीद बनता जा रहा है।

गहलोत को थोड़ी बहुत भी राजनीतिक सहुलियत मिलती, तो वे भी अपने पिछड़े होने को केंद्र में रखकर जनता के समर्थन में इजाफा कर सकते थे। लेकिन कांग्रेस, कांग्रेसियों और पार्टी के अंदरूनी हालात ने उनको ऐसा अकेला कर दिया कि उनको यह सब समझने का मौका ही नहीं मिला। राजनीति में इसी नासमझी का लाभ सामने वाले को मिलता नरेंद्र मोदी और वसुंधरा राजे को भरपूर मिला। फिर गहलोत सरकार ने प्रमोशन में आरक्षण का समर्थन किया था। इस कोशिश का विरोध हुआ तो गहलोत सरकार ने इस आंदोलन को ही कुचलने की कोशिश करके अपने नुकसान का इंतजाम कर लिया और इससे अगड़ी जातियों में कांग्रेसी मतदाताओं में यह संदेश गया कि असोक गहलोत अगड़ी जातियों के विरोधी हैं। ऐसे में पिछड़ी जातियों से तो गहलोत हाथ धो ही बैठे थे, कांग्रेस के साथ की बची खुची अगड़ी जातियां भी कांग्रेस के विरोध में खड़ी हो गई। चुनाव के ऐन पहले मीणा वोटों के जरिए बीजेपी को नुकसान पहुंचाने की किरोड़ी कोशिश का वार भी काली गया। गोपालगढ़ के दंगों के बाद मुसलमानों के घावों पर मरहम लगाने की कोशिश में अल्पसंख्यकों को कई सारी बड़ी सौगातें बख्शकर भी गहलोत ने बाकी लोगों को अपने से खो दिया।

 

फिर सबसे बड़ी बात यह भी रही कि कांग्रेस और गहलोत, दोनों ने यह कतई नहीं समझा कि दुनिया अब बहुत समझदार हो गई है। वह हर किसी के भी हर हुलिए को हर हाल में समझना सीख गई है। इसलिए अब किसी पर भी किसी के भी एहसान करने और उसके मायने समझती है। भले ही चुनाव सर पर आने के मौके पर गहलोत सरकार ने दुनिया भर की योजनाएं लागू कीं, लैपटॉप का लालच दिया, पत्रकारों को प्लॉट बांटे,  टैबलेट , साडियां, कंबल, साइकिलें और दवाइयों का मुख्त वितरण किया।  लेकिन इस सबका आम आदमी में संदेश यह गया कि कांग्रेस हमको खैरात बांटकर खरीदना चाहती है। जब किसी समझदार आदमी को कोई बेवकूफ समझता है, तो वह समझदार आदमी उसका प्रतिवाद भी बहुत अजब ढंग से करता है। सरकार को सबक सिखाने का जनता का यही अजब ढंग कांग्रेस को राजस्थान में सिर्फ 21 सीटों पर समेट गया। इन 21 में से भी बहुत सारे तो मरते पड़ते चंद वोटों से चुनाव जीते। जबकि बीजेपी हर सीट पर औसत 20 से 25 हजार वोटों के आसपास जीती है।   

अब कांग्रेस इस सदमे से उबरकर आत्ममंथन करेगी, लेकिन दुनिया जानती है कि इस आत्ममंथन और चारित्रिक चिंतन में भी उसे अपने युवराज राहुल गांधी की कमजोरियां नहीं दिखाई देगी। देश को मोदी की मजबूती भाई, लेकिन राहुल गांधी का बांहें चढ़ाने का अंदाज किसी नौसिखिए की नौटंकी के रूप में लगा, यह कोई तुर्रमखां कांग्रेसी भी राहुल गांदी को नहीं बताएगा। ताजा चुनाव परिणामों पर शरद पवार ने गलत नहीं कहा कि देश को कमजोर नेतृत्व पसंद नहीं आता। राहुल गांधी से मोदी जैसी मजबूती की कल्पना किसी को नहीं करनी चाहिए, क्योंकि हर इंसान की अपनी अलग तासीर होती है। मगर, नरेंद्र मोदी का तोड़ तलाशने का वक्त कांग्रेस के हाथ से निकल गया है।

कांग्रेस को यह सबसे पहले समझना होगा कि संसद के गलियारों में जाने के रास्ते पंसारी की परचूनी की दूकान से शुरू होते हैं। विधान सभाओं में बहुमत पाने की पतवार सब्जी मंडियों की सांसों में समाई हुई होती है। इसीलिए देश का बजट सुधारने को कोशिश में हर घर का बजट बिगाड़ने का पराक्रम किसी भी सरकार को बहुत भारी पड़ता है। कांग्रेस की मनमोहन सरकार ने यही किया। जिसका परिणाम प्रदेशं में कांग्रेस को भुगतना पड़ा। अशोक गहलोत राजस्थान के सीएम थे, इस नाते प्रदेश मे हार का उनको चाहे कितना भी दोष दे दीजिए, लेकिन कांग्रेस का इस बार तो कमसे कम बचना संभव ही नही था। गलतियां प्रदेश की सरकार की भी हो सकती हैं। लेकिन कमरतोड़ महंगाई, सरकार में बैठे देश चलानेवाले लोगों का भ्रष्टाचार में गले तक डूब जाना, कांग्रेस का कमजोर नेतृत्व और नरेंद्र मोदी का मजबूत चेहरा कांग्रेस पर बुत भारी साबित हुए। समूची कांग्रेस जब इस हार के लिए जिम्मेदार हैं, तो अकेले गहलोत को दोष देने का क्या मतलब ?  

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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