ब्रिटिश अफसर विलियम स्लीमन ने उत्तर भारत खोजे थे कई वुल्फ बॉय-
कतरनिया घाट में मिली वन दुर्गा ही नहीं है अकेली, जानवरों संग पले मानव-बच्चों के दर्जनों है उदाहरण-
उत्तर भारत में मोगली के कई किस्से, मौजूदा दुधवा टाइगर रिजर्व के जंगलों में भी मिले वुल्फ ब्वाय
बात ईस्ट इंडिया कम्पनी सरकार के दिनों की है, जब एक युवा ब्रिटिश आफीसर बंगाल आर्मी में एक सैनिक के तौर
पर नियुक्त हुआ, उसका नाम था विलियम स्लीमैन, बाद में इन्होने 1914 में नेपाल वार में बहादुरी से हिस्सा लिया, नतीजतन इन्हे कैप्टन का ओहदा हासिल हुआ, बाद में इन्हे मध्य भारत में ठगों के विशाल गिरोह को ख़त्म करने के लिए भेजा गया, जहां इन्होने भारत के उन सभी दुर्दांत ठगों को ख़त्म कर दिया जिन्होंने अपने जीवन में हज़ारों हत्याएं, लूट और डकैतियां की थी, स्लीमैन का ओहदा अब लेफ्टिनेंट कर्नल का था, जब विलियम स्लीमैन मध्य भारत में थे तब जबलपुर के आसपास के इलाकों में ओटेहीटी गन्ने की बुआई शुरू करवाई, गन्ने की इस खेती का परिचय मध्यभारत में सर्व प्रथम विलियम स्लीमैन को जाता है, इस विषय पर कभी और चर्चा, फिलहाल स्ली
मैन को गवर्नर जरनल की तरफ से सन्देश आया की उन्हें अवध रियासत का रेजिडेंट आफिसर बनाया जाता है, और यह वक्त था सन 1939 का, विलियम स्लीमैन ने पूरे उत्तर भारत की यात्रा की और यहाँ की परम्पराओं, धर्म, जातियों, बोलियों और कहानियों का अध्ययन किया, उन्हीं कहानियों में से कुछ कहानियों हैं मोगली की, जी हाँ यह वही मोगली की कहानी है जिसे रुडयार्ड किपलिंग ने अपनी किताब जंगल बुक के जरिए पूरी दुनिया को सुना डाली, यहाँ एक गौरतलब बात यह है की रुडयार्ड ने जिन भारतीय जंगलों का जिक्र किया है वह जबलपुर के आस-पास, खासतौर से पचमढ़ी और सेवनी के हैं और इस जगह रूडयार्ड कभी नहीं आये, विलियम स्लीमैन ने इन मध्य प्रदेश के जंगलों का भी विस्तृत ब्यौरा दिया है, चलिए अब हम बात करते हैं अवध की यानी आज का उत्तर प्रदेश, जहां विलियम स्लीमैन ने गोमती और घाघरा के किनारे के जंगलों में कई मोगली खोजे जो उनकी किताबों और शोध पत्रों में प्रकाशित हुए.
सबसे हम चलते हैं उस वक्त की सुल्तानपुर से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर गोमती के किनारे, जहाँ रियासत का एक सिपाही अपने घोड़े पर सवार उस
इलाके से गुजर रहा था तभी अचानक उसने एक बच्चे को भेड़िए के बच्चों के साथ नदी में पानी पीते देखा, वह बच्चा भी भेड़ियों की तरह पानी पी रहा था, जब घुड़सवार उनके नजदीक बढ़ा तो वह बच्चा और भेड़िए के तीन बच्चे एक साथ भाग पड़े, घुड़सवार अभी तक यह सोच रहा था की वह बच्चे को बचा ले नहीं तो दूर खड़ी भेड़िए के बच्चों की मां उसे मार डालेगी, लेकिन जब वह बच्चा भागा तो वह अपने हाथो का इस्तेमाल चौपाया जानवरों की तरह अगले पैरों की तरह कर रहा था, और वह भेड़िए के बच्चों के साथ, मांद में घुस गया, उस सैनिक ने गाँव वालों को इकट्ठा किया, और उस मांद की खुदाई शुरू करवाई तकरीबन आठ फ़ीट गहरी मांद थी, खुदाई और शोर मचाने से वे भेड़िए के बच्चे के साथ वह मानव बच्चा भी बाहर निकलकर भागा, लेकिन सिपाही ने उसे पकड़ लिया और गाँव ले आया… जहाँ उसे देखकर भीड़ इकट्ठा हुई, वह रस्सियों से बंधा था बावजूद इसके वह जंगली आवाजें निकालता और छुड़ाने की कोशिश करता, कोई आदमी नजदीक आता तो चौकन्ना हो पीछे हट जाता, और यदि बच्चा सामने आ जाता तो कुत्ते की तरह गुर्राता और उसपर हमला कर देता, उसे खाने के लिए रोटी दी गयी नहीं खाया, बल्कि कच्चा मांस देने पर वह जमीन में झुककर अपने दोनों हाथ जमीन पर टिकाकर उस मांस को खाने लगता, यदि खाते वक्त कोई इंसान उसके नज़दीक आ जाता तो वह गुर्रा पड़ता किन्तु जब कोई कुत्ता आ जाता तो वह कतई प्रतिकार नहीं करता और उसे अपने साथ खा लेने देता, बाद में उस सिपाही ने उस वुल्फ ब्वाय को राजा हसनपुर के हवाले किया, राजा साहब ने अपने एक नौकर को उस जंगली बच्चे की जिम्मेदारी सौंप दी, लेकिन वह बच्चा न तो कपडे पहनता, लाख कोशिशों के बाद वह कुछ भी नहीं बोलता, कपड़ों को फाड़कर उन्हें खाने की कोशिश करता, स्लीमैन लिखते है की दूध या छांछ वह बिना श्वांस लिए पी जाता, बाद में राजा हसनपुर ने इस बच्चे को सुल्तानपुर मिलेट्री कैम्प में कैप्टन निकोलस के पास भेज दिया, यह बच्चा इंसान के बजाए कुत्ता, सियार आदि चौपाओं के साथ खेलना पसंद करता।
कुछ वर्ष पहले सुल्तानपुर के एक गाँव चुपरा का एक किसान अपने परिवार के साथ खेतों में काम कर रहा था, तभी जंगलों से निकलकर एक भेड़िया आया और खेत में एक जगह सोते हुए तीन साल के बच्चे को उठा ले गया, उसकी माँ और पिता दोनों उस जानवर के पीछे दौड़े लेकिन घने जंगलों में बच्चे का कोई नामोनिशान नहीं मिला, यह वाकया मार्च 1843 का है, इसके छह साल बाद फरवरी 1850 में सिंगरामऊ के पास दो सिपाहियों ने एक स्थानीय नदी में तीन भेड़ियों के साथ एक बच्चे को देखा जो नदी में कुत्ते की तरह पानी पी रहा था, और उन सिपाहियों ने बच्चे को पकड़ लिया जो लगभग 9 साल का रहा होगा, सिपाही उसे कोइलीपुर बाज़ार ले आये और वहां भीड़ ने इस वुल्फ ब्वाय को देखा, बहुत लोगों ने उसे खिलाने की कोशिश की, वह बच्चा कई दिन तक बाजार में रहा लोग उसे देखते चिढ़ाते, कुछ खाने को देते, तभी छपरा गाँव के एक आदमी ने उस बच्चे को देखा, और गाँव जाकर उसने इस बात की चर्चा की, गाँव की वह किसान बुढ़िया ने भी यह बात सुनी तो दौड़कर उस आदमी के पास आई और उससे बच्चे का हुलिया पूछा साथ यह भी पूछा की क्या उस बच्चे के दाहिने हाथ पर कोई काला दाग है, जो जन्म से था, बात सही निकली आदमी ने उस दाग की तस्दीक़ की, बुढ़िया का पति तब तक मर चुका था वह अकेले कोइलीपुर बाज़ार पहुंची और उस बच्चे को अपने साथ लिवा लाई, लेकिन वह बच्चा कोहनी और घुटनों के बल ही चलता, जिससे वहां की खाल सख्त और काली पड़ चुकी थी, कच्चा मांस ही खाता जिस कारण उसके पूरे शरीर से बदबू आती, बावजूद इसके माँ की ममता उसे पालती रही, गाँव वालों का सहयोग भी मिला, किन्तु रात होते ही वह बच्चा जंगल में भाग जाता, माँ के पास आता तो सिर्फ इसलिए की खाने को कुछ मिल सके, उसे कोई लगाव या आत्मीयता नहीं थी उस बूढी माँ से… यह घटना भी स्थानीय जमींदार, अफसरों द्वारा पुष्ट है.
1843 में सुल्तानपुर जनपद के लगभग 30 किलोमीटर पश्चिम में घुटकरी में एक जंगली बच्चा देखा गया, वह भी अपने घुटनों और कोहनियों के सहारे चलता, आदमियों को देखकर गुर्राता, इस बच्चे को भी जंगल से एक चरवाहा लेकर आया जब वह एक भेड़िए के साथ जंगल में घूम रहा था, बाद में इस बालक को अवध लोकल इन्फैंट्री सुल्तानपुर के कमांडर कर्नल ग्रे ने अपने पास बुलवाया, जहाँ सेना के तमाम अफसरों और उनके परिवारों ने इस जंगली बच्चे को देखा, एक दिन चरवाहा अपनी भेड़ों को जंगल किनारे घास चरा रहा था, तभी उसे नींद आ गयी, और यह जंगली बच्चा जंगल में भाग गया, दुबारा इस बच्चे का पता लगा या नहीं यह रिकार्ड में दर्ज़ नहीं है.
सुलतानपुर में गोमती के किनारे के जंगलों और झुरमुटों में बहुत से मोगली बच्चे देखे गए, और उनकी पुष्टि ईस्ट इंडिया कम्पनी के अंग्रेज अफसरों, स्थानीय राजाओ और जमींदारों ने की, उत्तर प्रदेश में ऐसी बहुत सी रोचक घटनाए हैं जिनमे एक ऐतिहासिक घटना है बहराइच जनपद की, जहाँ अभी कुछ दिन पहले मंकी गर्ल या मोगली गर्ल मिली, यह जंगली इलाके में घाघरा जैसी विशाल नदी गुजरती है, और इन जंगलों का काफी बड़ा हिस्सा कतर्नियाघाट वन्य जीव विहार अब दुधवा टाइगर रिजर्व के अंतर्गत आता है, इसी बहराइच के जंगलों में सन 1841 के आसपास बूंदी या बमनौटी के करीब घाघरा नदी के बाईं ओर के जंगली इलाके में अवध सरकार के एक सैनिक ने एक बच्चे और दो भेड़ियों को एक साथ एक जंगली जलधारा में पानी पीते देखा, उसने बच्चे को दौड़कर पकड़ने की कोशिश की, वह बच्चा हाथ तो आया लेकिन उस सिपाही की वर्दी दाँतों से फाड़ डाली, और उसे कई जगह काट लिया, सैनिक ने उस बच्चे को घोड़े पर बिठाने की कोशिश की पर नाकाम रहा, आखिरकार उसने बच्चे के दोनों हाथ बाँध दिए और बूंदी ले आया जहां के राजा हरदत्त सिंह के सामने उस जंगली बच्चे को पेश किया, राजा ने उसे रस्स्सियों से बंधवाया, और खाने को कच्चा गोश्त दिया, वह राजा के पास तीन महीने तक रहा, इस बीच यह बच्चा रस्सी दाँतों से काटकर कई बार भागने की कोशिश कर चुका था, अंतत: राजा तंग आ चुका था और इस बच्चे को एक कश्मीरी भांड (हास्य-विनोद करने वाला पेशेवर) को सौंप दिया, यहाँ भी यह बालक तकरीबन छह महीने रहा, आखिरकार यह कश्मीरी भी तंग आ गया इस बच्चे से, तभी सनोअल्लाह नाम का कश्मीरी व्यापारी बूंदी के राजा हरदत्त सिंह के यहाँ आया कश्मीरी शाल बेंचने, उसे भी यह वाक़या बताया गया, सनोअल्लाह के पास कई खिदमतगार थे, उनमें से एक था जानू, जानू ने इस बच्चे की परवरिश का जिम्मा ले लिया, बच्चे को अपनी जिम्मेदारी में लेने का किस्सा भी बहुत मार्मिक है, वह कश्मीरी भाड़ जब तंग गया बच्चे से तो उसने उसे खुला छोड़ दिया, अब वह बूंदी बाज़ार में इधर उधर घूमता, लोगों के लिए यह कौतूहल का विषय था, कभी किसी गोश्त की दूकान से गोश्त का टुकड़ा उठाकर भागता तो कभी बनिए की दूकान से कोई भी सामान लेकर भाग जाता एक दिन एक बनिए ने इस बच्चे पर एक तीर चला दिया जो इसकी जांघ पर लगा, इसी वक्त वह कश्मीरी व्यापारी अपने नौकरों के साथ बाज़ार में घूम रहा था, इसके नौकर जानू ने जब बच्चे की यह दशा देखी तो उसने बच्चे को अपने साथ ले लिया, उसकी जांघ में लगे तीर को निकाला और उस घाव पर पट्टी की, इस बच्चे को जानू एक आम के पेड़ के नीचे चारपाई पर लिटाता, मगर उसे चारपाई सहित पेड़ से बाँध देता ताकि यह भाग न पाए, इस बच्चे के जिस्म से बहुत दुर्गन्ध आती, जानू ने सरसों के तेल की मालिश शुरू की, लेकिन यह गंध तब भी ख़त्म नहीं हुई, कई हफ़्तों बाद जानू ने इस बच्चे को चावल दाल और रोटी खिलाने में सफलता प्राप्त कर ली, नतीजतन इसके शरीर से बदबू भी लगभग गायब हो गई, जानू इसके घुटनो और कोहनियों में खूब तेल रगड़ता जिससे इसके सख्त हो चुकी कोहनिया और घुटने मुलायम हो जाए, क्योंकि यह बच्चा अपने हाथों के भल ही चलता था, जानू की इस करुणाभरी सेवा ने बच्चे को अपने दो पैरों पर चलना भी सिखा दिया। जानू ने चार महीनों में इस बच्चे के मुहं से गर्राहट भरी आवाज़ के अतिरिक्त कुछ नहीं सुना बस एक दो बार यह इसने अबुदिया कहा? जी हाँ यह नाम था उस कश्मीरी भाड़ की लड़की का जहाँ पहले यह बालक छह महीने रहा था, लेकिन जानू ने इन चार महीनों में एक और सफलता पा ली थी अब यह बच्चा जानू से लगाव दर्शाने लगा था, और जानू के हुक्के में कोयले की आग भी भर लाता था.
इसी बीच एक और दिलचस्प वाक़या हुआ, आम के पेड़ के नीचे यह बच्चा लेटा हुआ था कुछ दूर पर जानू और कश्मीरी व्यापारी का सिपाही मीर अकबर अली भी सो रहे थे, तभी जानू को कुछ आहत सुनाई दी जानू ने उठकर देखा की दो भेड़िए उस बच्चे के साथ खेल रहे हैं, तभी अकबर अली भी उठ गए, और उन्होंने अपनी बन्दूक उठा ली लेकिन जब देखा की वह भेड़िए उस बच्चे को चाट रहे हैं, और उसके सिर पर अपने पंजे रख रहे हैं और तीनो मगन है इस खेल में तो उन्होंने अपनी बन्दूक रख दी और इस इंसानी बच्चे और भेड़ियों के स्नेह को एकटक देखते रहे, मगर यह सिलसिला ख़त्म नहीं हुआ दूसरी रात तीन भेड़िए आये और तीसरी रात चार ! यह सिलसिला चलता रहा और वह बच्चा हर रात उन्ही के साथ खेलता, बहुत खदेड़ने पर ये भेड़िए वापस जाते, दरअसल पहले दो भेड़िए वो रहे होंगे जब उस बच्चे को उस सैनिक ने नदी के किनारे से पकड़ा था, और तब भी उन भेड़ियों के बच्चों ने विरोध किया था उस सैनिक पर गुर्रा कर, अब यह बड़े हो चुके थे किन्तु बच्चे की गंध से इन्होने अपने बचपन के साथी को खोज निकाला था, अब यह खेल ख़त्म होने वाला था क्योंकि जानू का मालिक सनोअल्लाह अब लखनऊ जाने की तैयारी में था, सो एक दिन व्यापारी का यह दल यहाँ से लखनऊ की तरफ कूच कर दिया, जानू ने इस जंगली बच्चे को भी अपने साथ लिया और उसके सिर पर कपडे की गठरी रख दी, यह बच्चा जहाँ भी घने जंगल से गुजरता गठरी फेंक कर भागता, जानू और व्यापरी के नौकर उसे पकड़ कर लाते, उसकी पिटाई भी करते और दोबारा गठरी लेकर चलने को कहते लेकिन कुछ देर बाद वह बच्चा फिर गठरी फेंक देता और भागता, इसतरह बमुश्किल यह यात्रा लखनऊ आकर समाप्त हुई, जहाँ यह बच्चा व्यापारी के घर पर जानू के साथ रहता, जानू ने इसे कुछ कपडे पहनाना भी शुरू कर दिया था पर यह अब भी पतलून फाड़कर फेंक देता था, हाँ यहाँ स्नेह की एक मार्मिक बात रह गयी बताने को, जब बूंदी से सनोअल्लाह ने चलने का हुक्म दिया तो जानू ने इरादा कर लिया की अब वह व्यापारी की नौकरी छोड़ देगा, क्योंकि व्यापारी इस बच्चे को साथ ले चलने में आपत्ति कर सकता है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और सनोअल्लाह ने जानू को इस बच्चे को अपने साथ लाने की इजाजत दे दी.
कुछ दिनों बाद सनोअल्लाह ने जानू को दो दिन के लिए लखनऊ से दूर किसी व्यापारिक कार्य से भेज दिया और जब जानू वापस आया तो वहां वह बच्चा नहीं था, उसे बताया गया उसके जाने के बाद उसी रात वह कहीं चला गया, कहानी ने फिर एक दिलचस्प मोड़ लिया, बूंदी रियासत की एक महिला जो चुरैरोकोटरा की रहने वाली थी लखनऊ सनोअल्लाह के घर आई और साथ में राजा हरदत्त का पत्र भी, जिसमे लिखा था की जानू जिस जंगली बालक को अपने साथ ले गया है वह इस औरत का बेटा है, जो तब चार साल का था जिसे आज से पांच छह वर्ष पहले भेड़िया उठाकर ले गया था, शिनाख्त के लिए औरत के बताए निशान थे जो बालक के सीने पर और माथे पर थे, बात सच्ची निकली सभी ने यह निशान उस बच्चे के शरीर पर देखे थे, लेकिन अब वह बच्चा वहां नहीं था, वह औरत कुछ महीनों बाद फिर लखनऊ उस व्यापारी के घर गयी की शायद उसका खोया हुआ बेटा मिल जाए, पर उसे खाली हाथ लौटना पड़ा. जानू के साथ यह बच्चा कुल पांच महीने रहा, वह उसे पुत्रवत स्नेह करने लगा था,तमाम आदतों में भी परिवर्तन आया था, लेकिन कहीं भी खुजलाहट होने पर अभी भी वह बच्चा किसी पेड़ या दीवार से ही अपने शरीर को रगड़ता था. यह बच्चा लगभग दस वर्ष का था जब इसे उठाया गया तब इसकी उम्र चार बरस थी और इस बीच छह वर्षों में उस मादा भेड़िए ने पांच यह छह बार बच्चे दिए जिन सभी के साथ यह बच्चा रहा और इसी का नतीजा बनी उस बाग़ की घटना थी की वे भेड़िए के बच्चे जो अब बड़े हो चुके थे अपने साथी यानी इस इंसान के बच्चे को नहीं भूले जो उनकी माँ इन सभी के साथ इसे भी दूध पिलाती थी, शायद जानवर की फितरत में भूलना नहीं होता…
यहां यह बताना जरुरी हो जाता है की उत्तर प्रदेश खासतौर से अवध खेत्र में भेड़िए द्वारा पाले गए बच्चो की तादाद बहुत है, इसकी वजह हैं यहाँ के जंगल, झाड़ियाँ, मांद बनाने की उपयुक्त धरती और नदियों का सुन्दर जाल, इन वजहों से भेड़ियों की तादाद अवध प्रांत में सबसे अधिक थी, अक्सर मानव आबादी में भेड़ियों के घुसने के किस्से सुनने को मिलते हैं आज भी, उस वक्त भेड़िए बच्चे ही नहीं बकरी जैसे पालतू जानवरों को भी उठा ले जाते थे, गाँवों में खुले हुए घरों और झोपड़ियों में ये जंगली जानवर आसानी से घुस जाता था, आज भी उत्तर प्रदेश की तराई में मानव द्वारा किए गए शिकार और जंगलों की कटाई के बावजूद भेड़िए, सियार मौजूद हैं, इंसान ने तराई से वन-कुत्ते जरूर समाप्त कर दिए, और भी प्रजातियां संकट में है, मानव की बढ़ती आबादी और उसके प्राकृतिक दोहन के वीभत्स तरीकों से… खैर विलियम स्लीमैन लिखते हैं की जब मादा भेड़िए के बच्चे मर जाते है तो उसके दुग्धपान न होने से उसे पीड़ा होती है, और फिर वह किसी इंसानी बच्चे को उठा लाती है, वैसे इसके अतरिक्त भी कई कारण होते है जानवर इंसानी बच्चो को अमूनन नुक्सान नहीं पहुंचाते और उनमे मातृत्व भाव अत्यधिक होता है, भेड़िया मांड में इस बच्चे को रखता है, उसके अन्य बच्चो के साथ या फिर अगली पीढ़ी के बच्चो के साथ वह रहता है क्योंकि इंसानी बच्चे का विकास भेड़ियों के बच्चो के विकास से धीमा होता है इस लिए इंसानी बच्चा मादा भेड़िए के साथ कई वर्ष रहने पर अपने दर्जनों दूध के रिश्ते के भाइयों का साथी बन जाता है, लेकिन कभी किसी भेड़िया मानव का किस्सा प्रकाश में नहीं आया, इसकी वजह है की जब तक वह मानव बच्चा कम उम्र का होता है और अपने दोनों हाथों के भल दौड़ लगाता है तो उसकी ऊंचाई और भेड़िए की ऊंचाई में कोइ खासा फर्क नहीं होता, साथ ही जब उम्र बढ़ती है तो वो फुर्ती और रोग प्रतिरोधक क्षमता भी घटती है, साथ ही भोजन की मात्रा भी बढ़ जाती है जो वुल्फ ब्वाय के लिए मुश्किलें खड़ी कर देती है, पर इन सबसे हटकर जो मौजू बात है वह है, की मानव बच्चे को जब मादा भेड़िया अपने बच्चे की तरह पालता है वह भेड़िया दस वर्ष के अंदर ही मर जाता है, जाहिर है भेड़िए की उम्र 7 या आठ वर्ष होती है, ऐसे में वह मानव बच्चा सच कहे तो अनाथ होता है और उसे अन्य भेड़िए या अन्य जंगली जानवर मार देते हैं, चूँकि अतीत में ऐसे बच्चे की लाश जंगल में इसलिए नहीं मिलती क्योंकि यदि शेर ने ऐसे भेड़ियों के साथ रहे बच्चे का शिकार किया और उसे खाया तो उसके बाद जो बचा उसे सियार या अन्य भेड़िया खा लेते हैं, नतीजतन शिनाख्त के लिए शरीर का कोई हिस्सा नहीं मिलता।
विलियम स्लीमैन के द्वारा खोजे और लिखे गए किस्सों का इंग्लैण्ड में 1888 में द जूलॉजिस्ट जर्नल में प्रकाशित हुआ, किन्तु इससे पूर्व विलियम स्लीमन ने 1849-1850 में “ए जर्नी थ्रू द किंगडम ऑफ़ अवध में इन भेड़िया द्वारा पाले गए बच्चों का जिक्र किया है.
यहाँ गौर तालाब बात यह की भेड़िए द्वारा उठाकर ले जाए गए बच्चे जिन मांदों से मिले उनमे अधिकतर नर बच्चे थे, किन्तु मिदनापुर आसाम में दो बच्चिया मिली जिनका नाम रखा गया अमला और कमला ये दोनों बच्चियां आसाम के जंगलों में भेड़िए की मांद से सन 1920 में पादरी जोसेफ सिंह के द्वारा खोजी गयी जो बाद में मानव सभ्यता में कई वर्षों तक रहीं.
इसके अलावा 1867 में मौजूदा जिमकार्बेट नेशनल पार्क के जंगलों में बुलंद शहर के नजदीक शिकारियों को दीना शनिचरा मिला, तब इसकी उम्र छह वर्ष थी, जिसे रिहेब्लिटेशन सेंटर में रखा गया, किन्तु वह कभी भी प्लेट में खाना नहीं खाता, प्लेट से खाना निकालकर जमीन पर रखता फिर खाता, कभी कुछ बोला भी नहीं, कपडे भी फाड़ता, लेकिन वह आखिर में तम्बाखू खाना सीख गया था, 1895 में शनिचरा की मृत्यु हो गयी, यह शिकारियों को शनीचर के दिन भेड़िए की माँद में मिला था सो इसका नाम दीना शनिचरा पड़ गया, जिम कार्बेट ने भी अपनी किताब में इस बच्चे का जिक्र किया है,
उत्तर भारत की तराई का एक और किस्सा है जिसे स्लीमैन ने देखा और लिखा है, यह भेड़िया मानव था, जिसे उत्तर प्रदेश की तराई से लखनऊ के राजा के अफसर लेकर आये थे, यह आदमी 40 वर्ष का रहा होगा तब जो जंगल में अकेले एक स्थान पर मिला जहाँ भेड़ियों की माँदें थी, लोगों का कहना था की यह आदमी जब बच्चा होगा तब इसे भेड़िए ले गए होंगे और इसे पालने वाली मादा भेड़ियाँ और इसके भेड़िए साथी जब मर गए होंगे तब यह अकेला रह गया होगा, और जंगल में किसी तरह बसर कर रहा होगा, विलियम स्लीमैन लिखते है की यह आदमी नाक-नक्श से थारू जनजाति का लगता था, जो लखीमपुर जनपद के दुधवा नेशनल पार्क में मौजूद है.
इतिहास में लखीमपुर से सटे हुए शाहजहांपुर जनपद में भी मोगली यानी भेड़िया द्वारा पाला गया मानव बच्चा मिल चुका है जो अंग्रेज अफसरों की डायरियों में दर्ज़ है. भारत ही नहीं पर दुनिया के कई हिस्सों में ऐसी घटनाएं घाटी जिसमे युगांडा का मंकी ब्वाय, आसाम का लियोपार्ड ब्वाय, तुर्की की भालू गर्ल, ऐसे बहुत से उदाहरण हैं दुनिया में जिनकी तस्वीरें, वीडियो भी उपलब्ध हैं.
जंगल और इंसान के रिश्ते बहुत पुराने हैं, यक़ीनन हमने जंगल काटकर अपनी सभ्यता बसा ली किन्तु हम ताल्लुक तो वहीँ से रखते हैं, ये अलग बात है की हम उस जंगल और जंगली जानवरो के अपने सदियों पुराने ताल्लुक से मुहं मोड़ते आएं हैं वो भी सिर्फ अपने नफ़े की ख़ातिर।
कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन- 262727
भारत
KK Mishra
Wildlife Photographer and Conservationist)
krishna.manhan@gmail.com