आदमी घुटे मौसम में जाने कब से घुट रहा,
अब तो उसे मौसम कुछ खुला खुला चाहिए।
अपने ऐब खुद से भी अब तक छुपाता रहा,
अब तो उसे दर्पण कुछ धुला धुला चाहिए।
इंसान गर इंसान हो जाये, खुदा की चाह नहीं,
आदमी से आदमी बस मिला जुला चाहिए।
आने से ना रोको बाग तक सूरज को, पवन को,
हर फूल हमे यहाँ खिला खिला चाहिए।
संकीर्ण गली में क्यों रहूँ, पूरा शहर मेरा है,
हे विशाल! भीतर मुझे तेरा दीप जला चाहिए।
भयभीत सब हैं, रोज नये मुखोटे लगाते हैं,
सब मिले प्यार से जहाँ, हमे बस ऐसा मेला चाहिए।।
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कोटा ( राजस्थान)
सीनियर सेक्शन इंजिनियर,
मध्य – पश्चिम रेल मंडल
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