अब समय आ गया है कि हम शहरों की आबादी की सीमा तय करने और नगर निगम के बजट बढ़ाने जैसे उपायों को गंभीरता से लागू करें. अगर हम समानता पर आधारित शहर बनाना चाहते हैं, तो ऐसा करना ही होगा.
पिछले महीनों में लॉकडाउन के बाद असंगठित क्षेत्रों के मज़दूरों की मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों से बिना खाना-पानी के कई दिनों तक पैदल चलकर घर जाने की तस्वीरों ने पूरे देश को विचलित कर दिया था. ये कामगार, शहरों में अपनी घटिया और दमघोंटू रिहाइश से भाग रहे थे. क्योंकि, इन प्रवासी कामगारों को शहर के दूसरे बाशिंदों के बराबर का न सम्मान मिल रहा था और न रहने खाने का ठिकाना था. कामगारों की भगदड़ की इन तस्वीरों ने शहरी योजनाओं की प्रक्रिया की ख़ामियों को उजागर कर दिया है. ऐतिहासिक रूप से देखें, तो शहरों को इन्हीं बीमारियों ने उनका रंग रूप दिया है. ऐसे में ये विडम्बना ही है कि कोविड-1 जैसी महामारी से हमें पता चल रहा है कि हम अपने शहरों में आम जनता के रहने लायक़ व्यापक योजनाएं बनाने में असफल रहे हैं. इन हालात को देखते हुए, आज ज़रूरत इस बात की है कि हम कोविड-19 के बाद शहरों की योजनाओं पर नए सिरे से विचार करें. ग़रीबी उन्मूलन के लिए ऐसी योजनाएं बनाने पर ज़ोर दिया जाए, जो कमज़ोर तबक़े के लोगों को सस्ते मकान और इलाज की सहूलतें मुहैया करा सके.
जहां तक आवास की बात है तो, योजना बनाने वाले किसी भी क़ानून में इस बात की गुंजाईश नहीं है कि ग़रीबों को सस्ते मकान उपलब्ध कराए जा सकें. न तो शहरों में इस बात का सर्वे है और न ही कोई आंकड़ा उपलब्ध है कि शहर में कितने लोग ऐसे रहते हैं जिन्हें सस्ते मकानों की ज़रूरत है
जब उन्नीसवीं सदी के आख़िर में 1896 से 1899 के बीच मुंबई पर प्लेग ने क़हर बरपाया था. तब मुंबई शहर प्रशासन ने बॉम्बे इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट (BIT) बनाया था. ताकि, आज के दक्षिण मुंबई से परे सामाजिक और बराबरी के दर्जे वाले स्थानों का विकास किया जा सके. इसी तरह 1937 में दिल्ली इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट (DIT) का गठन किया गया था ताकि शहर के ग़रीबों को फिर से बसाने की सुविधा विकसित की जा सके. और शहर के बाहरी इलाक़ों में लोगों को बेहतर रिहाइश की सुविधा दी जा सके. ऐसी ही मिसालें पूरी दुनिया में मिलती हैं. जैसे कि लंदन का मेट्रोपॉलिटन बोर्ड ऑफ़ वर्क्स. या फिर उन्नीसवीं सदी के मध्य में शहरों में साफ़ सफ़ाई, सीवरेज और नाले की सुविधाओं का विकास, जिन्हें हैजा की बीमारी के प्रकोप के बाद शुरू किया गया था.
शहरी विकास के विशेषज्ञ कहते हैं कि 1990 के आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में शहरी योजना को लेकर नज़रिया व्यापक तौर पर बदला है. शहरों को तरक़्क़ी के इंजन के तौर पर देखा गया और उनमें अर्थव्यवस्था की ज़रूरतों के हिसाब से बुनियादी ढांचे का विकास किया गया. इन विकास को समझने की शुरुआत, शहरों में ग़रीबों को बराबरी का दर्जा देने के लिए आवश्यक सुविधाओं से करते हैं. जैसे कि मकान, रोज़गार और ग़रीबों को सस्ते इलाज की सुविधाएं.
जहां तक आवास की बात है तो, योजना बनाने वाले किसी भी क़ानून में इस बात की गुंजाईश नहीं है कि ग़रीबों को सस्ते मकान उपलब्ध कराए जा सकें. न तो शहरों में इस बात का सर्वे है और न ही कोई आंकड़ा उपलब्ध है कि शहर में कितने लोग ऐसे रहते हैं जिन्हें सस्ते मकानों की ज़रूरत है. ये लोग कहां रहते हैं और कहां काम करते हैं, इसके आंकड़े भी बिल्कुल असंगठित हैं. अक्सर शहरों की योजनाएं समाज के इस तबक़े की प्लानिंग के लिए पिछली जनगणना के आंकड़ों का सहारा लेती हैं. और ये जनगणना हर दस साल में एक बार होती है. अगर आप अगले बीस साल के लिए योजना बना रहे हैं, तो जनगणना के आंकड़ों को आधार बनाना सबसे कमज़ोर बुनियाद चुनने जैसा होगा. कोविड-19 महामारी के दौरान इस बात ने अधिकारियों के लिए उस समय बड़ी चुनौती खड़ी कर दी, जब बहुत से असंगठिन कामगार अपने गांवों को वापस जाना चाहते थे. लेकिन, उनकी संख्या के बारे में सही जानकारी न होने से अराजकता पैदा हो गई.
सस्ते मकान की ज़िम्मेदारी अक्सर बाज़ार के हवाले कर दी जाती है. ऐसे में ग़रीब लोग उन ख़ाली ठिकानों को तलाशते हैं, जहां पर वो डेरा जमा सकें. इनसे असंगठित क्षेत्र की बस्तियों का विकास होता है.
आज भी ट्रांजिट ओरिएंटेड डेवेलपमेंट (TOD) को सघन विकास की योजना बनाने में बहुत अहमियत दी जाती है. इसका मतलब है आवाजाही के प्रमुख केंद्रों को ध्यान में रख कर विकास की योजनाएं बनाना. वहीं एक प्लॉट के कितने हिस्से पर आप इमारत बना सकते हैं यानी फ्लोर स्पेस इंडेक्स (FSI) भी शहरी योजना निर्माण का प्रमुख पैमाना माना जाता है. दिक़्क़त ये है कि इन दोनों ही पैमानों में जनता के कल्याण का हिसाब लगाने की गुंजाईश नहीं होती.
सस्ते मकान की ज़िम्मेदारी अक्सर बाज़ार के हवाले कर दी जाती है. ऐसे में ग़रीब लोग उन ख़ाली ठिकानों को तलाशते हैं, जहां पर वो डेरा जमा सकें. इनसे असंगठित क्षेत्र की बस्तियों का विकास होता है. रिज़र्व ज़मीन की क़ीमत बहुत अधिक होती है. इससे समाज के ग़रीब तबक़ों के लिए मकान का ख़्वाब पूरा कर पाना लगभग असंभव हो जाता है. इसके साथ साथ राज्यों के ऐसे विभागों को शहरों की योजना बनाने की ज़िम्मेदारी दे दी जाती है, जो एक साथ गई नगरीय बस्तियों के विकास पर काम करते हैं. इससे शहर के कमज़ोर तबक़े को शहरी योजनाओं के हाशिए पर धकेल दिया जाता है. मिसाल के तौर पर मुंबई की स्लम बस्तियां MMRDA यानी मुंबई मेट्रोपॉलिटन रीजनल डेवेलपमेंट अथॉरिटी या स्लम रिहैबिलिटेशन अथॉरिटी (SRA) के अंतर्गत आती हैं. नतीजा ये होता है कि ये स्लम बस्तियां बृहनमुंबई नगर निगम की योजनाओं से अछूती रह जाती हैं. जबकि इनमें शहर की आधी आबादी रहती है.
इसके अतिरिक्त, ग़रीबों के लिए रेहड़ी लगाना रोज़गार का एक महत्वपूर्ण ज़रिया है. लेकिन, ये स्वरोज़गार शहरी विकास की योजनाओं वाले क़ानून के दायरे से बाहर होते हैं. इसके लिए शहरों में रेहड़ी के इलाक़े तय करने के लिए अलग से टाउन वेंडिंग समितियों का गठन किया जाता है. इसका नतीजा ये होता है कि रेहड़ी पटरी वालों के लिए योजना बनाने का काम नगर निगम के दायरे से लगभग बाहर ही हो जाता है. जबकि रोज़गार का ये विकल्प परिवर्तनशील होता है. जबकि, शहर के नए परिवहन ढांचे और रिहाइशी बस्तियों के हिसाब से रेहड़ी लगाने के इलाक़े बदल जाते हैं. क्योंकि बस्तियां बसाने और परिवहन की योजनाएं बीस साल के लिए बनाई जाती हैं. जड़ता भरी योजनाओं की इस चुनौती को दूर करने के लिए अब दिल्ली का मास्टर प्लान लगातार बदलता हुआ प्लान होता है. जहां पर परिवहन, रिहाइशी इलाक़ों और कारोबारी क्षेत्रों के विकास के साथ साथ रेहड़ी वालों के लिए भी योजना को शामिल किया जाता रहता है.
किसी भी योजना में स्वास्थ्य सेवाओं के बुनियादी ढांचे के लिए ज़मीन आरक्षित की जाती है. लेकिन, ये बातें ज़्यादातर काग़ज़ी ही रह जाती हैं. क्योंकि अक्सर, काग़ज़ों पर बनी योजना का तीस फ़ीसद ही ज़मीनी स्तर पर साकार किया जाता है
जहां तक सार्वजनिक स्वास्थ्य की बात है, तो भारतीय संविधान की बीसवीं अनुसूची जन स्वास्थ्य को शहरी निकायों की अनिवार्य ज़िम्मेदारी तय करती है. इसका मतलब है कि शहरों के स्थानीय निकायों को अपनी योजना में इनके लिए जगह भी छोड़नी होगी और बजट का आवंटन भी करना होगा. हालांकि, किसी भी योजना में स्वास्थ्य सेवाओं के बुनियादी ढांचे के लिए ज़मीन आरक्षित की जाती है. लेकिन, ये बातें ज़्यादातर काग़ज़ी ही रह जाती हैं. क्योंकि अक्सर, काग़ज़ों पर बनी योजना का तीस फ़ीसद ही ज़मीनी स्तर पर साकार किया जाता है. दिक़्क़त इस बात की भी है कि शहरों के वार्षिक बजट में अक्सर स्वास्थ्य के क्षेत्र की अनदेखी कर दी जाती है. अब मुंबई महानगर निगम को ही लीजिए. ये मुंबई में कई बड़े अस्पताल और मेडिकल कॉलेज और उनसे जुड़े अस्पताल चलाता है. लेकिन, इसके 33 हज़ार 400 करोड़ रुपए का केवल 13 प्रतिशत हिस्सा ही स्वास्थ्य के मद में आवंटित किया जाता है. इसमें से भी महज़ सात प्रतिशत को नए संसाधन जुटाने में ख़र्च किया जाता है. इसी कारण से मुंबई में स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी है.
महाराष्ट्र सरकार ने नगर निगमों के बेहतर काम के लिए पारदर्शिता समिति की रिपोर्ट तैयार कराई थी. ये रिपोर्ट कहती है कि, ‘शहरों की स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ लेने के लिए बाहर से भी बहुत से लोग आते हैं. इससे शहर की स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव बढ़ जाता है. स्वास्थ्य संबंधित जो सेवाएं नगर निगम देते हैं और जो सेवाएं अच्छी नहीं चल रही हैं, उनके हालात देखते हुए, बेहतर ये होगा कि ये ज़िम्मेदारी राज्य सरकार अपने हाथ में ले ले.’
उपरोक्त सभी मिसालें एक बड़े निष्कर्ष पर पहुंचती हैं. जिससे साफ़ हो जाता है कि शहरों की योजनाओं का निर्माण बेहद असंतुलित है. और ग़रीब जनता इस योजना निर्माण में अक्सर हाशिए पर ही धकेल दी जाती है. कोविड-19 महामारी ने हमें योजना निर्माण के इस असंतुलन की बारीक़ी से समीक्षा के लिए मजबूर कर दिया है. और इनके समाधान के लिए दूरगामी और व्यापक परिवर्तन लाने वाले क़दम उठाए जाने की आवश्यकता है.
जिन फौरी उपायों को शहरों के योजनाकार अपना सकते हैं, वो इस तरह हैं:
शहरी योजनाओं को कम जनसंख्या के हिसाब से तैयार करना होगा. इसके लिए बीजिंग और शंघाई की तरह आबादी की सीमा तय करके किया जा सकता है.
योजना बनाने के पारंपरिक तरीक़े की जगह किस जगह पर रहना संभव है, इसे पैमाना बनाना होगा.
किसी तरह का विकास या आरक्षण, जो ग़रीबों के ख़िलाफ़ है, उसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए.
किसी भी योजना की सर्वोच्च प्राथमिकता ग़रीबी उन्मूलन और जनकल्याण ही होनी चाहिए. इसके लिए जनता का सर्वे कराया जाना चाहिए.
क़ानूनों में बदलाव करके नगर निगमों को पूरे शहर की योजना बनाने की ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिए. भले ही विकास की योजनाओं का कुछ हिस्सा राज्य स्तरीय विभागों के अंतर्गत ही क्यों न आता हो.
नगर निकायों का बजट बढ़ाया जाना चाहिए. और दक्षिण अफ्रीका या ब्राज़ील की तरह केंद्र सरकार को चाहिए कि बजट को विकेंद्रीकृत करे, ताकि ग़रीब तबक़ों के लिए स्वास्थ्य और अन्य ज़रूरतों की पूर्ति करने वाली सुविधाओं का विकास हो सके.
अब समय आ गया है कि हम शहरों की आबादी की सीमा तय करने और नगर निगम के बजट बढ़ाने जैसे उपायों को गंभीरता से लागू करें. अगर हम समानता पर आधारित शहर बनाना चाहते हैं, तो ऐसा करना ही होगा.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)
साभार- https://www.orfonline.org/hindi/ से