हिंदू भारत का मूल है। हिंदू भारत का सत्य है। हिंदू है भारत की आदि गंगोत्री। मतलब सब कुछ हिंदू से है। उसी से भारत के सब धर्म हैं, सब मत हैं, मतावलंबी हैं, आस्तिक हैं, नास्तिक हैंतो हिंदू से ही इतिहास है, समाज है, व्यवस्था है और जीवन जीने का वह अंदाज, वह पद्धति है, जिसे कोई हिंदूपना कहे या हिंदू धर्म कहे या हिंदुत्व कहे! क्या यह भारत का आदि, पौराणिक, भूतकालीन सत्य नहीं है? क्या यह वर्तमान का और भविष्य का सत्य नहीं है? यदि है तो भारत राष्ट्र-राज्य की भूमि को हिंदू मानना, हिंदू जन्मभूमि, मातृभूमि, पितृ भूमि मानना क्या सत्यवादी तर्क नहीं है? भूमि का सत्य, घोंसलों का सत्य, जीवन और जीवन की आस्था का यह क्या सत्य नहीं है? क्या यह आधुनिक वक्त में मानव विकास की राष्ट्र-राज्य की अवधारणा का कण-कण नहीं है? गांधी का वैष्णव जन हो, रामराज्य विचार हो या सावरकर का पितृ-पुण्य भूमि विचार, नेहरू का सेकुलर विचार हो या डॉ. लोहिया की राम, कृष्ण में भारत मीमांसा की तमाम बातें या डॉ. आंबेडकर के निर्वाण बिंदु पूर्व के तमाम विचार या मोहम्मद अली जिन्ना की दो राष्ट्र थ्योरी, सबका कोर-सत्व-तत्व उत्प्रेरित रहा है इस जमीन की आबोहवा में, लोगों के प्राणों में व्याप्त हिंदू शब्द से! इस बहस का कोई मतलब नहीं है कि गांधी क्या सोचते थे या सावरकर क्या सोचते थे, या हिंदू शब्द हमारा है या दूसरी सभ्यताओं का दिया हुआ है। क्योंकि इस भूमि का चेतन, अवचेतन, पुराण और इतिहास, स्वतंत्रता और गुलामी, धर्म और विधर्म, हम और वे, लड़ाई और शांति, भक्ति और विद्रोह, ध्वंस और निर्माण सबका अनिवार्य पक्ष, सर्वकालिक हकीकत याकि सत्य ‘हिंदू’ यर्थाथ है!
इतनी लंबी प्रस्तावना यह समझाने के लिए है कि दुनिया का हर सभ्यतागत राष्ट्र-राज्य, पृथ्वी में होमो सेपियंस से इंसान की उपलब्धियों के जितने कोने, जितने इलाके हैं वे सब धर्म-कौम विशेष की पहचान लिए हुए हैं। तभी यदि यूरोप ईसाई सभ्यता की माटी है तो है। मक्का-मदीना, सऊदी याकि अरब भूमि यदि इस्लामी सभ्यता की मातृ-पुण्य भूमि है तो है। हान गौरव, सभ्यता में चीन और चीनी लोग झूमते हुए हैं तो हैं! इसे हमें स्वीकारना होगा। सो, जब सब का सत्य है तो भारत राष्ट्र-राज्य का सत्य भी एक है और वह हिंदू है। इसके बाद इस जमीन के लोगों का फैसला है कि वह अपने को उदारवादी कहें, सेकुलर कहें या हिंदुवादी! हां, भारत की भूमि में, भारत राष्ट्र-राज्य में फैसला हिंदू से है। मूल हिंदू है वह चाहे जो करे। अपने को उदार बनाए, सेकुलर बनाए, या कट्टर हिंदूवादी बनाए। भारत के बाहर के लोग, बाहर का विचार, बाहर के धर्मों के अल्पसंख्यक न तो अपना आइडिया ऑफ इंडिया थोप सकते हैं और न दूसरी जमीन का धर्म अपनी यह शर्त बना सकता है कि हम इस माटी का, माटी के लोगों के सत्य, उनकी आस्था, उनके संविधान-कानून-कायदों को नहीं मानेंगे!
मुसलमान सोचें, बताएं कि क्या इस्लाम की जन्म, मातृ, पुण्य भूमि सऊदी अरब में, इस्लामी देश में हिंदू यह जिद्द कर सकता है कि हमें अपने धर्म के माफिक जीने की आजादी हो? क्या यूरोप में, अमेरिका में वहां की मुस्लिम आबादी डिक्टेट कर सकती है कि अफ्रीका से आए तमाम मुस्लिम शरणार्थियों को वे ऑटोमेटिक नागरिक बनाने की संवैधानिक व्यवस्था बनाएं? या अफगानिस्तान से भाग कर आने वाले हजारा, शियाओं और अहमदियाओं के लिए पाकिस्तान वैसा ही व्यवहार लिए हुए हो जैसा पाकिस्तान बनवाने वाले सुन्नी मुसलमानों याकि राष्ट्र-राज्य के मूल सुन्नी इस्लामी सत्य के नागरिक के प्रति व्यवहार है?
ऊपर की बातें आधुनिक दुनिया की हकीकत हैं, जीवन का सत्य हैं। माटी और राष्ट्र-राज्य की आधुनिक रचनाओं की प्रकृति-प्रवृत्ति है। मगर इसे आजाद भारत ने, भारत के हम लोगों ने 15 अगस्त 1947 से विस्मृत किया याकि अनदेखा, भुलाया, झुठलाया हुआ है। इतिहास के गर्भ, जीवन सत्य की प्रसव पीड़ा और अंग्रेज दाई के हाथों 15 अगस्त 1947 को बतौर आधुनिक राष्ट्र-राज्य भारत का जन्म असलियत में हिंदू ही हुआ था लेकिन हमने उसकी आधिकारिक घोषणा नहीं की। मतलब हमने न अपना धर्म अपनाया और न धार्मिक संस्कारों की घुट्टी, पवित्रता, पुण्यता प्राप्ति का कर्म किया और न लक्ष्य बनाए। दो जुड़वा देशों में एक पाकिस्तान ने अपने धर्म की घोषणा डंके की चोट पर की। वहां इस्लाम हुआ राज्य, राष्ट्र धर्म और जीवन पद्धति और उसी के साथ दारूल इस्लाम बनाम दारूल हरब की सोच में उड़ना शुरू किया जबकि भारत के हिंदू महामनाओं ने सोचा कि हिंदू हम हैं हीं तो उसे राजधर्म घोषित करने या बनाने की क्या जरूरत! जीवन जीने की पद्धति जब हिंदू है तो भारत भी तो उसी में जीएगा।
वह सनातनी हिंदू के उदारीपन के उदारवाद का सहज व्यवहार था। सेकुलरवाद नहीं उदारवाद! ध्यान रहे लिबरल और सेकुलर अलग-अलग अर्थ, भाव लिए हुए हैं। यह अहम बात है और इसे दुनिया के कई उदाहरणों से भारत के मुसलमानों को समझना चाहिए। हिंदू सनातनी है। उसे सहस्त्राब्दियों का, ईसाई धर्म और इस्लाम से सहस्त्राब्दियों पहले से वक्त को जीने का और सतत जिंदा रहने का बिरला अनुभव है। धर्म के मामले में भी यह सत्य लागू है कि जो धर्म, संप्रदाय नया होगा वह अनुदारवादी, संकीर्ण, खांचे में बंधा होगा और जो पुराना, बूढ़ा होगा वह उदार, उदात्त भाव और भिन्नताएं लिए हुए होगा। शायद यहीं मनोविज्ञान था, जिसमें गांधी-नेहरू-पटेल ने हिंदू जन्म होते हुए भी इस्लाम के आगे अपने-आपको हिंदू देश घोषित करने की जरूरत महसूस नहीं की। मुसलमानों को भारत में रहने दिया। पूछ सकते हैं कि इसके पीछे मनोविज्ञान था, मूर्खता थी या आत्मविश्वास था या वक्त की आधुनिक-पश्चिमी चेतना? जवाब दो टूक नहीं बनेगा। मगर 72 साल के अनुभव के बाद आज के मुकाम को देखते हुए, सभ्यतागत वैश्विक हकीकत को समझते हुए यह सत्य निर्विवाद मान लिया जाना चाहिए कि घर की माटी और धर्म की पहचान-संस्कार के बिना कौम और राष्ट्र की नियति सचमुच खोखली, उसकी नींव बेतरीब, केहोस वाली इमारत सी लिए हुए मिलती है!
मसला गूढ और उलझ रहा है। मोटा तथ्य-सत्य है कि सनातनी हिंदू की उदारता में गांधी-नेहरू-पटेल ने बिना धर्म के सपनों का सफर शुरू कराया लेकिन वक्त ने सपनों से हिंदुओं को जगाया और हिंदुओं ने भारत को हिंदू घोषित कर दिया! इसके पीछे वक्त का, दुनिया का, इस्लाम का, संघ-भाजपा, मोदी-शाह सबका हाथ कम-ज्यादा कुछ भी सोचें लेकिन इस सत्य को गांठ बांध लें कि हिंदू अब हिंदू है और वह उदार होते हुए भी वैसा सेकुलर कभी नहीं होगा जो नेहरू-वाम के आइडिया ऑफ इंडिया में पोषित था।
मतलब हिंदू का सनातनी उदारवाद अब यूरोप के क्रिश्चियन डेमोक्रेट देशों, इस्लाम के मलेशिया जैसे देश के सत्य में परिवर्तित है। इस बात को भारत के मुसलमानों, शाहीन बाग की आंदोलनकारी महिलाओं, गुस्सा लिए जुम्मे की नमाज पढ़ने वाले खुदा के बंदों, इनकी चिंता में दुबले होने वाले बुद्धिजीवियों, वामपंथियों, प्रगतिशीलों, सेकुलरों को गंभीरता से लेना चाहिए, बारीकी से समझ लेना चाहिए और व्यवहार में इस मंत्र को अपनाते हुए अपने को बदल लेना चाहिए कि भारत लिबरल है मगर हिंदू है! वैसे ही जैसे मलेशिया इस्लामी राष्ट्र है मगर उदारवादी है। यों मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने नागरिकता संसोधन कानून के बाद भारत सरकार की बहुत तल्ख आलोचना की। कहा कि मैं ये देख कर दुखी हूं कि भारत सेकुलर देश होने का दावा करता है लेकिन कुछ मुसलमानों की नागरिकता छीनने के लिए क़दम उठा रहा है। अगर हम यहां ऐसे करें, तो मुझे पता नहीं कि क्या होगा (मतलब वहां रह रहे हिंदुओं का क्या होगा?)। हर तरफ़ अफरातफरी और अस्थिरता होगी और हर कोई प्रभावित होगा।
लेकिन महातिर ने आलोचना से पहले अपनी गिरेबां में नहीं झांका। मोदी सरकार ने इसकी आलोचना की लेकिन अंदरूनी मामले में हस्तक्षेप की दलील पर। हिसाब से मोदी सरकार को महातिर को मुंह तोड़ जवाब देते हुए उनसे पूछना था कि उन्होंने, उनके संविधान ने, मलेशिया ने क्यों वह भेदभावपूर्ण सिटीजनशिप व्यवस्था बनाई हुई है, जिसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश, भारत का कोई मुसलमान वहां नागरिकता लेने की लाइन में लगा होता है तो उसे फटाफट नागरिकता मिलती है जबकि हिंदू लगा हो या पड़ोसी इंडोनेशिया, फिलीपीन से कोई ईसाई, चाइनीज, फिलिपीनो 15-20 साल रहने, लोकल भाषा जाने हुए होने आदि सबकुछ के साथ लाइन में लगा होता हैबावजूद इसके वह नागरिकता पाने में लटका रहता है? अनपढ़, बिना काबलियत के मुसलमान फटाफट नागरिकता पाते हैं जबकि मलेशिया के चीनी, हिंदू, ईसाई नागरिकों को अपने ही धर्म की किसी विदेशी से शादी करने पर उसकी नागरिकता में दस तरह के पापड़ बेलने होते हैं तो क्यों? सचमुच इंटरनेट पर यह ब्योरा मिलेगा कि महातिर के मलेशिया में दशकों से रह रहे हिंदू-चाइनीज नागरिक भी राज्यविहीन रहने को शापित हैं तो ‘भूमिपूत्र’ के फार्मूले में मुसलमानों को खुले दिल तरजीह है!
यह मलेशिया का सत्य है। इसे मैं इसलिए गलत नहीं मानता हूं क्योंकि मलेशिया ने अपना धर्म इस्लाम घोषित किया हुआ है। उसके संविधान में सेकुलर देश और सभी धर्मों को स्वतंत्रता देने की घोषणा है लेकिन राष्ट्र का आधिकारिक धर्म इस्लाम घोषित है! ‘संघ (मलेशिया के राज्यों का) का धर्म’ इस्लाम यदि है तो मुसलमान पहले दर्जे के नागरिक, सुविधाओं में प्राथमिकता पाएंगे ही। ध्यान रहे मलेशियाई आबादी में 61 प्रतिशत मुसलमान, 20 प्रतिशत बौद्ध, नौ प्रतिशत ईसाई, छह प्रतिशत हिंदू, डेढ़ प्रतिशत चाइनीज और दो-तीन प्रतिशत अन्य हैं। मतलब कई धर्मों-सभ्यताओं का मिलाजुला रूप मलेशिया है लेकिन इस स्पष्टता, क्लियरिटी के साथ कि भूमि, राष्ट्र का मूल, भूमिपुत्र इस्लाम है। बहुसंख्यक मुसलमान वहा है तो इस्लाम ही राष्ट्र-राज्य का आधिकारिक धर्म और फिर उसकी सर्वोच्चता, उसके छाते के नीचे बहुधर्म, बहुसंस्कृति, सर्वधर्म समभाव है!
ऐसा ही सत्य भारत का है लेकिन वह घोषित नहीं है। उसकी जगह झूठ में जी रहे हैं। महातिर ने या दुनिया के कई ईसाई बहुल देशों ने अपने राष्ट्र-राज्य को भूमिपुत्र के सत्य में गुंथा है, बनाया हुआ है। हां, आधुनिक वक्त के उदारवाद में यूरोप के तमाम देश क्रिश्चियन भूमिपुत्रों के राष्ट्र की हकीकत में उदारवाद को अपनाए हुए हैं। जर्मनी की चांसलर मर्केल अपने आपको बताते हुए कहती हैं– ‘मैं कभी लिबरल होती हूं, कभी कंजरवेटिव और कई बार क्रिश्चियन सोशल।‘ सोचें इस वाक्य पर। इसमें कहीं सेकुलर शब्द नहीं है। अपने को क्रिश्चियन बताने की शर्म नहीं है। अपने को कम्यूनल करार दिए जाने का डर नहीं है। मतलब जर्मन राज्य और राजनीति की सोच और उसका मनोविज्ञान नैसर्गिक और सहज है क्योंकि देश और सभ्यता के संस्कारों में वहां पहला आग्रह सत्य का है।
क्या ऐसे भारत के नेता और राजनीतिक दल सत्यवादी नहीं हो सकते हैं? जाहिर है आजाद भारत की दिक्कत, समस्या और कैंसर की गांठ यह है जो हम सत्य से दूर झूठ के छलावों में, सपनों में देश बनता हुआ बूझते हैं। उसी के चलते हिंदू भी अपने को ठगा, लावारिस पाता है तो मुसलमान भी! तभी हमें पता नहीं होता कि हम किधर, कैसे, क्यों जा रहे हैं!
साभारः https://www.nayaindia.com/ से