'जनपथ' के नागार्जुन विशेषांक के अतिथि सम्पादक सुधीर सुमन ने बाबा नागार्जुन के रचना संसार को बड़ी मर्म भरी वाणी दी है। यह अंक एकबारगी एक ही बैठक में पढ़ने के बाद मुझे लगता है कि इसका रसास्वादन करने अपने पाठकों को भी आमंत्रित करूँ। तो लीजिये ये रहीं बाबा पर एकाग्र अंक की ख़ास बातें।
जन्मशताब्दी के अवसर पर बाबा के रचनाकर्म को कई-कई कोणों से देखा गया। सबने अपनी-अपनी निगाह से उन्हें देखा। जाहिर है हमारी भी एक निगाह है, जो किसी न किसी हद तक उनकी कविता ‘भोजपुर’ की निगाह है। पूरे भारतीय साहित्य में शोषित-उत्पीडि़त गरीब जनता के प्रति ऐसी वर्गीय पक्षधरता और अन्याय-उत्पीड़न-शोषण का ऐसा प्रतिरोध अन्यत्र दुर्लभ है। क्रान्ति की आकांक्षा वाले साहित्यकारों की कमी बाबा के दौर में तो नहीं ही थी, आज भी क्रान्ति की आकांक्षा वाले कम नहीं हैं।
संगठनात्मक तौर पर प्रगतिशील आन्दोलन की शुरुआत 1936 में हुई। आज जब हम उस आन्दोलन की 75वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, तो उसी वर्ष बाबा की लिखी एक मशहूर कविता की याद आती है, जिसका शीर्षक है- उनको प्रणाम! बाबा उन्हें याद करते हैं, जो देश की आजादी और समाजवादी व्यवस्था के लिए लड़ते हुए शहीद हो गये हैं, जिनका ट्रैजिक अन्त हुआ है, जो कठिन साधना और दुर्दम साहस के प्रतीक थे, जिनकी सेवाएं अतुलनीय थीं और जो किसी किस्म के विज्ञापन से दूर थे। 1931 में भगतसिंह को फाँसी हुई थी और पाँच वर्ष के बाद बाबा स्पष्ट तौर पर यह लिख रहे हैं कि उनकी सेवाएं थीं अतुलनीय। पर उन्हें गहरी बेचैनी इस बात से है कि कुछ ही दिन बीते हैं, फिर भी यह दुनिया उनको गई है भूल। बाबा का साहित्य मानो इस भूल जाने के विरुद्ध भी एक अनवरत संघर्ष है।
बाबा अन्याय पर टिकी व्यवस्था के खिलाफ लगातार मुठभेड़ करते रहे। एक गहरी आलोचनात्मक दृष्टि और एक सचेत वर्गीय नजरिये से उन्होंने अपने वक्त के जनांदोलनों को भी देखा। लेकिन उनकी रचनाएं पाठकों या श्रोताओं को किसी नकारवाद की ओर नहीं ले जातीं, बल्कि और भी राजनीतिक सचेतना और जनता के जीवन एवं उसके संघर्षों के साथ और अधिक एकाकार होने के लिए प्रेरित करती हैं। विचलन, निराशा, विडम्बना और तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के चित्रण के बावजूद बाबा की रचनाओं में उम्मीद का पहलू कभी खत्म नहीं होता। उनकी रचनाएं क्रान्तिकारियों के अधूरे सपनों को साकार करने का संकल्प पैदा करती हैं। ठीक वैसा ही संकल्प, जैसा 1936 में ‘उनको प्रणाम!’ लिखते वक्त उन्होंने लिया होगा।
बाबा के लिये पूरा देश उनके घर की तरह था। देश के विभिन्न इलाकों के साहित्यकारों, कामरेडों और सामान्य जनता के पास उनसे जुड़ी बेहद आत्मीय और अंतरंग स्मृतियाँ हैं। भोजपुर से उनका खास वैचारिक लगाव था। आपातकाल और 1977 में बेलछी जनसंहार के बाद के वर्षों में लिखी गई अपनी दो कविताओं- ‘हरिजन गाथा’ और ‘भोजपुर’ में उन्होंने भोजपुर के किसान आंदोलन को नई उम्मीद से देखा था। भगतसिंह ने अपने एक बहुचर्चित लेख में जिस दलित समुदाय को असली सर्वहारा कहा था, उसके राजनीतिक उभार की संभावना की ओर नागार्जुन ने ‘हरिजन गाथा’ कविता में स्पष्ट संकेत किया है।
यह अंक एक तरह से भोजपुर के साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों की ओर से बाबा के प्रति श्रद्धांजलि है। संपादक अनंत कुमार सिंह ने मुझे पूरी आजादी दी, इसके लिए उनका आभार। अंक की तैयारी में दिल्ली से रामनिवास और श्याम सुशील तथा आरा में सुधाकर उपाध्याय, रामनिहाल गुंजन जैसे साहित्यप्रेमियों, रचनाकारों मित्रों और मेरे कुछ करीबी रिश्तेदारों का भरपूर सहयोग मिला। कवि सुनील श्रीवास्तव लगातार सहयोग में लगे रहे। खासकर वह पीढ़ी जो सोवियत ध्वंस के बाद हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय हुई है और खुद को बाबा की वैचारिक परम्परा से जुड़ा हुआ मानती है, उसका रचनात्मक सहयोग हमें मिला है, यह बड़ी बात है।
जनराजनीति और जनांदोलनों के साथ-साथ साहित्य सृजन और संस्कृतिकर्म के जरिये जो लोग परिवर्तनकारी कोशिशों में लगे हैं और जिन्हें परिवर्तन में यकीन है, उन्हें इस अंक से कुछ ऊर्जा मिले, तो यह इसकी सार्थकता होगी।
प्रसंगवश यह भी कि वरिष्ठ साहित्यकार गिरधर राठी ठीक कहते हैं क़ि कविता समाचार की तरह भी नहीं पढ़ी जाती. कविता पढ़ने में सबसे बड़ा आनंद तो उसकी भाषा का होता है. नागार्जुन की कविता में जो समसामयिक टिप्पणियाँ दिखाई देती हैं, उसके पीछे जो बुनियादी मुद्दे हैं वो बहुत गहरे हैं. वो तो आज भी समाज में उसी तरह मौजूद है जिस तरह से नागार्जुन देख रहे थे. चाहे वह भूख हो, अकाल हो, कुशासन हो, भ्रष्टाचार हो, पुलिस की गोली हो या फिर समाज में अनैतिकता के प्रश्न हों.
आज भी अगर कोई अपने समाज को तिरछी नज़र से देखना चाहेगा, उस पर व्यंग्य से कुछ कहना चाहेगा या किसी चीज़ को विडंबना की तरह देखेगा तो वह पाएगा कि अरे, इस पर तो बाबा पहले ही कलम चला चुके हैं. तो जो कुछ नागार्जुन ने रचा उसकी एक ऐतिहासिक महत्ता तो है ही. दूसरी महत्ता कविता के रुप में इस नाते है कि भाषा का अद्भुत रचाव नागार्जुन की कविता में मिलता है.
उन्होंने बहुत सारी कविताएँ, आप कह सकते हैं, कि बाएँ हाथ से लिख दी हैं. वे इस तरह लिख भी देते थे. उन्हें लिखना कठिन नहीं लगता था. लेकिन उन अनायास लिखी कविताओं को भी आप जीवन भर की साधना के फल के रुप में देखा जा सकता है.
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प्राध्यापक, शासकीय दिग्विजय पीजी
ऑटोनॉमस कालेज, राजनांदगांव।
मो.9301054300