Sunday, December 22, 2024
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नारी ममतामयी भी है और पालनकर्ता भी

नारी को साक्षात शक्ति और भक्ति का अवतार माना गया है । नर को नारी से ही उत्पन्न माना गया है। उसे सृष्टि का आधार माना गया है।अतीत से वर्तमान तक भारत के ऋषियों, मनीषियों ने, दार्शनिकों एवं लेखकों और चिंतकों ने उसे निर्मला अत्यंत पवित्र और श्रद्धा नाम से परिभाषित किया है । भारतीय चिंतन में नारी के मातृ रूप का सदैव वंदना हुआ है। इस दृष्टि से ईश्वर के पश्चात मां को ही स्थान दिया गया है।

वैदिक काल से लेकर वर्तमान काल तक सभी ग्रंथों में माँ को दिव्य,सर्वश्रेष्ठ तथा पूजनीय स्थान दिया गया है। अथर्ववेद में “पृथ्वीसूक्त “अथवा “भूमिसूक्त” में भूमि को माता कहा गया है।

“माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:” अर्थात् यह भूमि मेरी माता है। “सा नो भूमिवि सृजतां माता पुत्रय मे पयम “यानि भूमि मेरी माता है जो मुझे दूध पिलाती है। इसमें भूमि अथवा मातृभूमि के प्रति 63 अत्यंत भावपूर्ण समर्पित मंत्रों में वंदना की गई है। महर्षि मनु ने मां के स्थान को अत्यंत ही गौरवपूर्ण बताते हुए लिखा है:
” उपाध्यायानदशाचार्य आचार्याणम शतं पिता!
सहस्त्र तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते! ”

अर्थात् दस उपाध्यायों की अपेक्षा आचार्य ,सौ आचार्यों की अपेक्षा पिता और सहस्त्र पिताओं की अपेक्षा माता का गौरव अधिक होता है ! उपनिषदों में_ “मातृ देवो भव:”, “पितृ देवो भव:” कह कर माँ को प्रथम स्थान दिया गया है! महाभारत में लिखा है- “गुरुणां चैव सर्वेषां माता परमेको गुरु “अर्थात् सभी गुरुजनों में माता को परम गुरु माना गया है! पुराणों में मां को परम गुरु माना गया है ! लिखा है-
“पतिता गुरवस्तया माता च न कथन्चन!
गर्भधारणपोषाभ्यां तेन माता गरीयसी! ”

अर्थात् पतित गुरु भी त्याज्य है पर माता किसी भी प्रकार त्याज्य नहीं है !गर्भकाल में धारण तथा पोषण करने के कारण माता का गौरव गुरुजनों से भी अधिक ऊंचा है! पुराणों में एक अन्य स्थान पर मिलता है- सर्वन्द्येन यतिना प्रसूर्वन्द्याप्रयत्नत:! “अर्थात् सबके वन्दनीय सन्यासी को भी माता की प्रयत्न पूर्वक वंदना करनी चाहिए !भारत में देवी भागवत पुराण, मार्कंडेय पुराण आदि महत्वपूर्ण ग्रंथ मातृ शक्ति पर ही रचे गए हैं! प्रायः सभी प्राचीन संस्कृति तथा शास्त्रीय गर्न्थो में भारतीय नारी को मां के रूप में सर्वोच्च स्थान दिया गया है! मां को लक्ष्मी, दुर्गा तथा सरस्वती के रूप में माना गया है! मातृशक्ति के रूप में भारतीय इतिहास अनेक प्रसंगों तथा घटनाओं से भरपूर है !उदाहरण के लिए, जब यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न पूछा- पृथ्वी से भारी गरिमा में क्या है? तो युधिष्ठिर ने सहज भाव से उत्तर दिया था- माता! माता से बढ़कर कुछ नहीं है !भारतीय इतिहास मां अनसूया, मां सीता, मां कुंती, मां गांधारी, आदि अनेक श्रेष्ठ और पवित्र माताओं से जुड़ा है जिससे कोई भी व्यक्ति मार्गदर्शन ले अपना जीवन सार्थक तथा धन्य कर सकता है!

वर्तमान काल में भी अनेक राष्ट्र पुरुषों ने सर्वप्रथम माता को स्थान दिया है! स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहते थे-हे भगवान मैं किस नाम से आपको संबोधित करूं? मानव के शब्दकोश में मां से बढ़कर पवित्र शब्द कोई दूसरा नहीं है जिससे मैं आपको पुकारू! अतः मैं शिशु के समान आपको मां, मां कह कर पुकारता हूं!

स्वामी विवेकानंद ने पाश्चात्य तथा भारत में नारीत्व में अंतर स्पष्ट करते हुए 18 जनवरी 1920 को कैलिफोर्निया में बतलाया कि भारत में स्त्री जीवन का आरंभ और अंत मातृत्व से ही होता है! स्त्री कहने से मातृत्व का ही बोध होता है !विश्व में मां से अत्यधिक पवित्र और दूसरा स्थान कौन सा नाम है ?मातृत्व में महानतम ,स्वार्थशून्यता, कष्टसहिष्णुता , क्षमाशीलता का भाव निहित है !उन्होंने पुनः कहा -“हम तो छोटी सी लड़की को भी मां कहते हैं जबकि पश्चिम में स्त्री पत्नी है !पश्चिम में यदि उसे मां कह दे तो वह दहल उठाती है! स्वामी विवेकानंद ने देखा कि पश्चिम में पुत्र भी अपनी मां का नाम लेकर बोलता है !उन्होंने नारी की अवस्था को किसी भी राष्ट्र का थर्मामीटर बतलाया है! उन्होंने किसी भी स्थान पर महिलाओं को संस्कृति का संरक्षक माना है! उन्होंने महिला को संस्कृतियों की उन्नति तथा आध्यात्मिकता का एक सच्चा चिन्ह माना है !

स्वामी रामतीर्थ ने अमेरिका में अपनी भाषण में कहा- मां निष्काम कर्म योग की मूर्ति है! भारतीय दर्शन में नारी का दूसरा महत्वपूर्ण संबंध उसकी पत्नी रूप रहा है !भारतीय संस्कृति में उसे अर्धांगिनी, सहचारी, सहकर्मी आदि विभिन्न भावों में व्यक्त किया गया है !भारतीय चिंतन में स्त्री और पुरुष दो व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक सामाजिक परिवार की छोटी इकाई के रूप में व्यक्त किए गए हैं! नर-नारी भेद शरीर गत है न कि आत्मगत! दोनों को मिलकर अर्धनारीश्वर की कल्पना की गई है क्योंकि आत्मा के अंदर न पुरुष तत्व है और नहीं नारी तत्व! दोनों समान है, दोनों को समाज की लघुतम इकाई के रूप में विवाह संस्कार बान्धता है,जिसे अत्यंत पवित्र माना गया है!

वैदिक काल में नारी की स्थिति सर्वोत्तम थी! स्त्री पुरुष संबंध शाखा भाव के होते थे! महाभारत में प्रखरता से इन संबंधों को माना गया है !दोनों के समान अधिकार होते थे! ऋग्वेद में उन दोनों को दंपति अथवा घर के संयुक्त स्वामी के रूप में देखा जाता था! परंतु यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि वैदिक युग की स्थिति सदैव एक सी न रही! नारी के लिए पति का सखा भाव निरंतर काम होता गया! बदलती हुई परिस्थिति में नारी की स्थिति में अंतर आता गया !इसे निरंतरता अथवा सामाजिक परिवर्तन के रूप में देखा जा सकता है! पुरुष तथा स्त्री में शखा भाव के स्थान पर पुरुष का वर्चस्व बढ़ता गया! शिक्षा के क्षेत्र में नारी शिक्षा का दायरा धीरे-धीरे सीमित हो गया! स्वाभाविक रूप से पति नारी का शिक्षक अथवा गुरु होने लगा यद्यपि स्वयंवर की प्रथम बनी रही ! ब्राह्मण अथवा उपनिषद ग से ज्ञात होता है कि अनेक नारियों दार्शनिक तथा अत्यंत विदुषी थी जैसे मैत्रेयी, गार्गी तथा अत्रेयी!

मनुस्मृति महाभारत तथा रामायण काल में नारी की अवस्था पतनोन्मुख होती चली गई! पारिवारिक जीवन की श्रेष्ठता बनी रही! विवाह की आयु कम होने तथा शिक्षा के कमी से पति का स्थान देवता की भांति होता चला गया! सूत्रकार शंख ने कहा है- पति के कोढी, पतित, अंगहीन या बीमार होने पर भी पत्नी पति से द्वेष ना करें, स्त्रियों के लिए पति देवता है! मनुस्मृति, रामायण तथा महाभारत में इस प्रकार के अनेक प्रसंग दिखाई देते हैं! परंतु महर्षि मनु ने समूचे राष्ट्र को एक व्यवस्थित, नियमबद्ध और नैतिक जीवन जीने की पद्धति प्रदान की! भारत को एक सांस्कृतिक तथा नैतिक राष्ट्र बनाए रखने के लिए कुछ कठोर नियम भी बनायें! मनु ने अने क विद्वानों की भांति “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” का भाव प्रकट किया अर्थात जहां नारी की पूजा होती है वहां देवताओं का वास होता है!

परंतु सामाजिक कठोर नियम बनाए जिसके अंतर्गत स्त्रियों के अधिकार क्षेत्र को सीमित करते हुए उसे बचपन में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र की देखरेख में जीवन व्यतीत करने को कहा!

छठी शताब्दी ईसा पूर्व में भारत के उत्तर पश्चिम क्षेत्र में घुसकर अनेक विदेशी आक्रमणकारियों ने नारी के जीवन को प्रभावित किया सामाजिक तथा धार्मिक व्यवस्था को प्रभावित किया समाज में सती प्रथा के महत्व को बल मिला! पुनर्विवाह की प्रथाएं बंद हो गई! विधवा विवाह प्राय बंद हो गए तथा विवाह की आयु भी घटा दी गई! मुस्लिम आक्रमणों के पश्चात महिलाओं की दशा और कमजोर हुई! अनेकों कुप्रथाओं ने जन्म लिया !समाज में पर्दाप्रथा का प्रचलन हुआ जिसमें महिलाओं का सार्वजनिक जीवन से नाता प्राय: समाप्त हो गया! बहुविवाह तथा बालविवाह की प्रथाएं बढ़ गई! बाल विधवाओं की संख्या समाज में बढ़ने लगी! विधवाओं की मुंडन का भी प्रचलन देश में बढ़ गया! तमिलनाडु तथा उड़ीसा में देवदासियों की प्रथा प्रचलित हो गई थी!

हिंदू स्त्रियों को मुसलमान के घर में काम करना पड़ता था! सती प्रथा के साथ जौहर प्रथा का भी विस्तार होने लगा था! मुगल काल में महिलाओं की दशा और भी दयनीय हो गई! मुगलों में हरम प्रथा थी जिसमें कई हजार महिलाएं होती थी, पुत्री का जन्म अशुभ समझा जाने लगा था! हिंदुओं में सामान्यतया एक विवाह की प्रथा थी, जबकि मुसलमान में एक पुरुष के चार-चार विवाह करने की स्वीकृति थी !समाज में दहेज प्रथा प्रचलित हो गए थे! अकबर के शासनकाल में दिल्ली में मीना बाजार जैसी गिरिराज पद व्यवस्था का प्रारंभ भी हो चुका था जहां शासक विलासिता के लिए जाने लगे थे!

ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में भारतीय महिलाओं की दशा सोचनीय तथा दयनीय थी !इनके ऊपर धार्मिक तथा सामाजिक प्रतिबंध का बोलबाला बढ़ गया था! समाज में कन्या हत्या, कन्या विक्रय ,बाल विवाह, पर्दा प्रथा जैसी कई प्रथाएं प्रचलित हो गई थी! पर्दे की प्रथा से अशिक्षा तथा अज्ञानता भी बढ़ गई थी! दक्षिण भारत में महिलाओं में तपेदिक जैसी कई बीमारियां घर कर गई थीं! इसके साथ ही ईसाईयत,इस्लाम अथवा जिंद अवेस्ता में नारी की प्रारंभिक अवस्था का वर्णन बहुत ही घिनौना तथा घृणास्पद किया गया है! दार्शनिक प्लेटो ने अपने ग्रंथ में स्त्रियों को नौकरों का स्थान दिया है तथा स्त्री जाति को बुद्धि और गुण की दृष्टि से पुरुष से हीन समझा है! यूनान में पत्नी घर की नौकरानी मात्रा थी जिसका गुण चुप रहना ही माना जाता था! रोम में पति का पत्नी पर असीम प्रभुत्व स्थापित हो जाता था!

मध्यकाल में सामान्यतः यूरोप तथा मुस्लिम देशों में स्त्रियों को कोई भी अधिकार प्राप्त न थे! जहां ईसाई समाज ने चर्च के दबाव में कामवासना को दबाने का प्रयत्न किया वहीं मुस्लिम जगत में इस्लाम में काम प्रवृत्ति को बहुत ज्यादा उभारा! नारी पुरुष की संपत्ति बन गई थी! पुरुष की दासी बन गई थी! मुस्लिम स्त्री को पति की खेती और जायदाद कहा गया !मुस्लिम पति को उसके मनचाहे संभोग के असीमित अधिकार दिए गए थे! उन्मुक्त संभोग को बढ़ावा मिला! मुस्लिम देशों में अनेक बेगमों तथा रखैलों को प्रोत्साहन मिला! मुसलमानों में स्त्री अय्याशी तथा विलासिता का साधन बन गई थी! स्वामी विवेकानंद ने एशिया में मुस्लिम महिलाओं की दशा ज्यादा दुखद बतलाई है!

आधुनिक काल में यूरोप तथा अमेरिका में महिलाओं की दशा कष्टकारक तथा सोचनीय है! मुझे किसी भी सामाजिक कार्य में हिस्सा लेने नहीं दिया जाता है जबकि भारत में सहधर्मिणी के बिना कोई भी धार्मिक कार्य पूरा नहीं होता! स्वामी विवेकानंद को आश्चर्य था कि यूरोप के स्वतंत्र राष्ट्र में नारी के संदर्भ में पराधीन भारत में उनकी अवस्था इतनी खराब नहीं थी! ऑक्सफोर्ड, हावर्ड, कैंब्रिज तथा येल विश्वविद्यालयों के द्वारा स्त्रियों के लिए तब तक बंद थे ,जब तक कि भारत में उससे 20 वर्ष पूर्व कोलकाता विश्वविद्यालय में स्त्रियों के लिए खोल दिए गए थे! नोबेल पुरस्कार विजेता नीरद चौधरी ने 1980 ईस्वी में एक लेख में बताया कि- इंग्लैंड में किस प्रकार के पितृहीन परिवार का विचार प्रतिष्ठित हो रहा है!

कोलकाता में ब्रह्म समाज की स्थापना के उपरांत सामाजिक सुधार विशेष कर महिला सुधारो की ओर ध्यान दिया गया! सती प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह ,बहु विवाह, बाल हत्या का कटु विरोध कर, विधवा विवाह को बढ़ावा दिया ! महिला सुधार की दृष्टि से केशव चंद्र सेन ने 1836 से 1844 में अनेक प्रयत्न किया! उन्होंने बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह ,अंतरजातीय विवाह कराने का तथा वहु विवाह को रोकने में भारी सफलता प्राप्त की थी! और बाद में 1930 ईस्वी में हर विलास शारदा के प्रयत्न से लड़के की 18 साल तथा लड़की की 14 वर्ष विवाह की उम्र कर दी गई! भारत में महिला शिक्षा तथा उसकी दशा में सुधार के लिए श्रीमती एनी बेसेंट ने 1847 से 1933 में महती कार्य किया! एनी बेसेंट को विश्वास था कि भावी शिक्षित लोगों की एक पीढ़ी भारत का नक्शा बदल देगी!

19वीं तथा 20वीं शताब्दी में भारत की महिलाओं ने विविध क्षेत्रों के विकास में बढ़कर योगदान दिया! इस काल में कई रानियां भी ऐसी हुई जिन्होंने अपने शासनकाल में महिलाओं को विशिष्ट स्थान प्रदान किया जैसे त्रावणकोर की गौरी पार्वती, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, महारानी मैसूर, पंडिता रमाबाई राना डे आदि!

संक्षेप में भारतीय हिंदू नारी के जीवन में मध्यकालीन तथा ब्रिटिश राज्य में उत्पन्न अनेक विषमताएं समाप्त हुई तथा भारतीय समाज में नारी का सम्मान मां, पत्नी, बहन तथा पुत्री के रूप में बढ़ा! पति का गुरु तथा देवता का स्वरूप समाप्त हुआ!पुरुष तथा स्त्री में शाखा भाव अथवा दांपत्य भाव का प्रेम बढ़ा! परंतु गंभीर विचारणीय प्रश्न है कि क्या भारत की नारी को सुख, समृद्धि की प्राप्ति हो गई? क्या नारी औचित्य पूर्ण मापदंड तक वह पहुंच गई? क्या उसको सामाजिक समानता का अधिकार प्राप्त हो गया? क्या नारी स्वतंत्रता और सशक्तिकरण की मांग कम हो गई? नारी और पुरुष के परस्पर संबंधों में संतुलन और सामन्जस्य स्थापित हो गया ?क्या नारी के ऊपर दुर्व्यवहार और अत्याचार कम हो गए? क्या विवाह संबंधी प्रश्न हल हो गए? क्या दहेज की समस्या समाप्त हो गई?

क्या वह समानता का अधिकार उसे घर में भी प्राप्त है? जब वह अच्छे कार्य करती है पुरुषों के मुसीबत से उबड़ती है तब उसे इज्जत और सम्मान देकर लक्ष्मी कहकर पुकारा जाता है और जब वह अपनी मर्जी के अनुसार, अपनी खुशी के लिए कोई कार्य करती है जिसमे सबकी मर्जी सामिल न हो तब उसे घृणित और निंदित कर दुत्कार दिया जाता है! ऐसे में उसकी स्वतंत्रता और सामाजिक समानता कहां है? संविधान और कानून की किताबों में उसे जो इज्जत प्राप्त है वह घर में और समाज में क्यों नहीं है ? कौन सी स्थिति उसकी वास्तविक स्थिति है?

(डॉ सुनीता त्रिपाठी “जागृति” स्वतंत्र लेखिका और अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ की सदस्य हैं।

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