आप जब ये पंक्तियां पढ़ रहे होंगे, तब तक संभव है नवजोत सिंह सिद्धू को नया राजनीतिक ठिकाना मिल गया होगा। लेकिन सियासत के चक्रव्यूह में सिद्धू की सांसे फूली हुई दिख रही हैं। पहली बार वे बहुत परेशान हैं। जिस पार्टी ने उन्हें बहुत कुछ दिया, और जिसे वे मां कहते रहे हैं, उस बीजेपी से वे अलग हो चुके हैं। कांग्रेस में भाव नहीं मिल रहा है और केजरीवाल की पार्टी सौदेबाजी स्वीकारने को तैयार नहीं लगती। गुरू के साथ राजनीति के मैदान में कोई गेम हो गया लगता है…!
वे क्रिकेटर हैं। राजनेता हैं। कमेंटेंटर हैं। कवि हैं। समां बांधनेवाले वक्ता है। दिखने में सुदर्शन हैं। टीवी एंकर भी हैं। और कलाकार तो वे हैं ही। एक आदमी सिर्फ एक ही जनम में आखिर जो कुछ हो सकता है, नवजोत सिंह सिद्धू उससे कहीं ज्यादा हैं। उनको बहुत नजदीक से जानने वालों को यह कहने का हक है कि जीवन में वे अब अगर और कुछ भी नहीं कर पाए, तो भी उनका चुटीला कविताई अंदाज उन्हें बेराजगारी से तो बचा ही लेगा। लेकिन फिर भी पता नहीं सिद्धू के बारे में ऐसा क्यों लग रहा है कि भस्मासुर के कलयुगी अवतार में आने की वजह से वे जीते जी मोक्ष को प्राप्त होनेवाले हैं।
पंद्रह साल के राजनीतिक जीवन में पहली बार नवजोत सिंह सिद्धू को राजनीति के मैदान में अपने खडे होने लायक जगह तलाशनी पड़ रही है। सिद्धू पहले क्रिकेट में एक बार जीरो पर आउट हुए थे, अब राजनीति में उनका वही हाल होता दिख रहा है। सार्वजनिक जीवन में ही नहीं, निजी जीवन में भी सिद्धू वक्त न गंवानेवाले व्यक्ति के रूप में मशहूर हैं। लेकिन सन 1990 में जीरो पर आउट होने की बात पर कपिल शर्मा के कॉमेड़ी शो में रह रहकर मजाक का केंद्र बननेवाले इस सरदार के बारे फिलहाल तो यही लग रहा है कि जीवन की सफलताओं के सारे मुकाम पार करने के बावजूद राजनीति में अब वे ऐसे मुकाम पर हैं, जहां पर आकर उनका खराब वक्त आ रहा है या इसे यूं भी समझा जा सकता है कि उनका वक्त खराब हो रहा है।
अपने राजनीतिक जीवन के अस्तित्व की जिस सबसे महत्वपूर्ण जंग के लिए नवजोत सिंह सिद्धू अपनी ‘मां’ बीजेपी का घर छोड़कर बाहर निकले, हैं, उसका तो सारा आधार ही पंजाब की गरिमा से जुड़ा है। उनके राजनीतिक मोर्चे का नाम तक ‘आवाज-ए-पंजाब’ है। लेकिन फिर भी मशहूर दिवंगत लेखक सरदार खुशवंत सिंह ने कुछ साल पहले पता नहीं क्यों अपने एक लेख में नवजोत सिंह सिद्धू को बाकायदा ‘जोकर’ बताते हुए सिख सम्प्रदाय की महिमा को कम करने वाला बता दिया था। यह अपनी समझ से परे हैं। लेकिन ताजा तस्वीर यह है कि बदले हुए राजनीतिक हालात में सिद्धू और उनके राजनीतिक चेले और बाकी साथी आगे बढ़ने की कोई एक लाइन पर नहीं सोच पा रहे हैं।
क्रिकेट की भाषा में कहे, तो सिद्धू नई ओपनिंग नहीं कर पा रहे हैं। उनका अकेले चुनाव मैदान में उतरना मुश्किल मामला है। सो, कांग्रेस तो बहुत बाद में पिक्चर में आई, उससे भी बहुत पहले वे केजरीवाल की पार्टी से प्रेमालाप कर रहे थे। लेकिन मामला जब टूटता दिखा, तो वे कांग्रेस की तरफ बढ़े। कांग्रेस ने लचकाया और अमरिंदर सिंह ने भाव नहीं दिया, तो फिर से आम आदमी पार्टी में आस दिखने लगी। बीचे मेंफिर एक बार दिल्ली दरबार में कांग्रेस ने उन्हें आस दिखाई। लेकिन नवजोत सिंह सिद्धू की संयोग से हमनाम पत्नी नवजोत कौर सिद्धू केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहती हैं। नवजोत कौर बीजेपी की विधायक रही हैं और पंजाब सरकार में मंत्री भी। उनके दूसरे साथी वहीं हॉकी टीम के कैप्टन रहे परगट सिंह कांग्रेस की राह पकड़ना चाहते हैं। वे कांग्रेस के कैप्टन अमरिंदर सिंह से लेकर कई बड़े नेताओं से मिलकर बात भी कर चुके हैं। लेकिन सिद्धू हैं कि कांग्रेस टीम में शामिल होने के बजाय उससे गठबंधन करने की राह पर चलना चाहते हैं। न इधर, न उधर, तस्वीर कहीं भी साफ नहीं है।
आप जब यह पढ़ रहे होंगे, तब तक सिद्धू अकेले होंगे, या फिर कहां किसके साथ, कैसे और कहां खड़े होंगे, यह आपको साफ दिख रहा होगा। लेकिन क्रिकेट के पुराने वीडियो फुटेज देखें, तो नवजोत सिंह सिद्धू कभी टीम इंडिया के चमकदार सितारे हुआ करते थे। क्रिकेट के खेल में उनकी सफलता ने सिद्धू की दीन – दुनिया ही बदल गई। वे जब जीतकर लौटते थे, तो हर बार उनका अभिनंदन बहुत शानदार तरीके से होता रहा है। उस स्वागत की शान ऐसी हुआ करती थी, वैसी तो कारगिल के विजेताओं की भी पंजाब ने नहीं देखी। वे क्रिकेट के खेल से ही करोड़पति बने और कॉमेडी के जरिए बने किंग। लेकिन क्योंकि राजनीति न तो क्रिकेट का खेल है और न ही कोई कॉमेड़ी शो। इसलिए राजनीति में आकर वे भरपूर सफल भी हुए और घनघोर असफल भी यहीं से होते लग रहे हैं। राजनीति के आईने में गुरू का गेम बिगड़ता दिख रहा है। क्योंकि कांग्रेस उनके मामले में अपने रुख पर अड़ी है और केजरीवाल उन्हें भाव ही नहीं दे रहे है। और बीजेपी से वे रिश्ता पहले ही इतने खराब तरीके से तोड़ चुके हैं कि वापसी की संभावनाएं लगभग क्षीण हैं। राजनीति में उनकी इस हालत पर सिर्फ यही कहा जा सकता हैं कि नवजोत सिंह सिद्धू तकदीर के तिराहे पर खड़े हैं। जहां से आगे का हर रास्ता उनके लिए पहले से ज्यादा खराब, खतरनाक और बहुत ऊबड़ खाबड़ है।
पंजाब के पटियाला जिले में जन्मे नवजोत सिंह सिद्धू सिख है, और उनके इस कट्टर शाकाहारी होने के कारण जितने लोग उन्हें पंजाब में पसंद करते हैं, उससे भी ज्यादा उन्हें किसी भी अन्य सिख के मुकाबले देश में ज्यादा पसंद करता है। सन 1983 से लेकर 1999 तक वे टीम इंडिया में क्रिकेट खेलते थे। और क्रिकेट से संन्यास लेने के बाद बीजेपी के टिकट पर लोकसभा 2004 में अमृतसर से लोकसभा के लिए पहली बार चुने गये। सांसद के रूप में तो सिद्धू ने ऐसा कुछ भी नहीं किया, जिसे देश याद रख सके। लेकिन उनकी तुकबंदियों के मिसरे और चुटकलों के चुटिले अंदाज ने देश को उनका दीवाना जरूर बना दिया। हालांकि वे राजनीति करते हुए जितने चर्चित रहे, उससे ज्यादा उनकी चर्चा एक व्यक्ति की गैर इरादतन हत्या के लिए मिली तीन साल की सजा को लेकर होती है। इस केस के बाद उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र देकर उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की। जहां निचली अदालत के सजा के फैसले पर रोक लगने के बादउन्होंने 2007 में फिर उसी सीट से चुनाव लड़ा और कांग्रेस को करीब 75 हजार से भी ज्यादा वोट से हराया। इसके बाद वे 2009 में एक बार वहीं से फिर बीजेपी के सांसद बने। और 2014 में उन्हें लोकसभा का टिकट न देकर बीजेपी ने 2016 में उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया। लेकिन कुछ दिन के बाद वे इस्तीफा देकर घर आ गए।
कुल मिलाकर चार बार, तीन बार लोकसभा टिकट पर और चौथी बार राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सांसद के रूप में राजनीति में अपना सिक्का जमानेवाले बड़बोले सिद्दू ने सबसे पहले सम्मान के साथ मिली मिलाई राज्यसभा की सदस्यता छोड़ी। फिर जिस बीजेपी को वे कभी ‘मां’ कहते थे, उस ‘मां’ से भी दामन छुड़ा लिया। लेकिन मातृत्व के रिश्ते को तजने के बाद अब नवजोत सिंह सिद्धू अब असमंजस में हैं। न तो उनके कदम सही पड़ रहे है और न ही उनका राजनीतिक गणित सफल होता दिख रहा है। लेकिन राजनीति में कहते हैं कि जो दिखता है, वह होता नहीं। मगर सिद्धू के साथ तो यही हो रहा है। सिद्धू के अब तक के राजनीतिक कदमों की तासीर पढ़े, तो स्पष्ट तौर पर यही लगता है कि वे राजनीति की गहराई और उथलेपन की असलियत को अब तक सहज स्वरूप में नहीं समझ पाए हैं। संभवतया वे इसी कारण फैसला नहीं कर पा रहे हैं कि जाना किधर है। कभी कोई दरवाजा खुलता सा दिखता है, तो उससे पहले ही वह बंद होता भी दिखता है। चुनाव सर पर हैं और वक्त बिता जा रहा है। ईश्वर करे, वे सफल हों, लेकिन फिलहाल तो यही लग रहा है कि सिद्धू की जिंदगी का सबसे खराब राजनीतिक समय उनके दरवाजे पर खड़ा है और वे खुद तकदीर के तिराहे पर। आपको भी ऐसा ही लगता होगा।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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