“यह स्मरण रहे कि पंडित नेहरू कोई अपनी तरह के अकेले चरित्र नहीं थे; न ही नेहरूवाद कोई अपनी तरह की अकेली परिघटना है। जिन समाजों को पराजित होने का दुर्भाग्य सहना पड़ा और कुछ समय पराए शासन में रहना पड़ा, उन सभी समाजों में ऐसे कमजोर दिमाग लोग और दासवत चिंतन प्रक्रिया देखी गई है। सभी समाजों में ऐसे लोग सदैव रहे हैं जो भ्रमवश अधिक बाहुबल को ऊँची संस्कृति समझ लेते हैं, जो अपने को किसी नीची जाति का मानकर अपने से ही घृणा करने लगते हैं और फिर से आत्मविश्वास प्राप्त करने के लिए विजेताओं की नकल करने लग जाते हैं, जो अपने पूर्वजों द्वारा मिली हर चीज में दोष देखना शुरू कर देते हैं और अंततः जो उस हरेक शक्ति और तत्व से हाथ मिला लेते हैं जो इनके समाज को तोड़ने आया हो। इस दृष्टि से देखें, तो पंडित नेहरू एक आत्महीन हिन्दू से अधिक कुछ न थे। और नेहरूवाद हिन्दू-निन्दा से अधिक कुछ खास नहीं है, जो इस्लाम, ईसाइयत और आधुनिक पश्चिम के समक्ष एक गहरी और जमी हुई हीन भावना से पैदा हुआ था।”
“मध्यकालीन भारत में मुस्लिम शासन ने भारत में ऐसे आत्म-विलगित (सेल्फ-एलीनियेटेड) हिन्दुओं का एक पूरा वर्ग पैदा किया था। उन्होंने मुस्लिम ताकत की अधिकता को मुस्लिम संस्कृति की श्रेष्ठता का संकेत मान कर व्याख्या की। समय के साथ वे उन विजेताओं की तरह सोचने और व्यवहार करने लगे तथा अपने स्वजनों को नीचा समझने लगे। किसी मुस्लिम प्रतिष्ठान में काम करने का अवसर मिलने पर वे बड़े खुश होते, ताकि उन्हें सत्ताधारी अभिजनों (एलीट) का सदस्य समझा जाए। उनके पक्ष में एक ही बात कही जा सकती है कि किसी न किसी कारण उन्होंने अपना धर्मांतरण नहीं किया और मुस्लिम समाज में अपने को पूरी तरह मिला न दिया। लेकिन उसी कारण, वे हिन्दुओं के विरुद्ध इस्लामी साम्राज्यवाद के भीतरघाती दस्ते (ट्रोजन हॉर्स) बन गए और अपने ही लोगों की सांस्कृतिक सुरक्षा व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने में लग गए। वही वर्ग फिर अंग्रेजों के साथ चला गया जब अंग्रेजों की ताकत विजयी होने लगी। वे अपने मुसलमान मालिकों से प्राप्त पुराने हिन्दू विरोधी पूर्वग्रह साथ लेकर गये थे तथा ब्रिटिश प्रतिष्ठानों और ईसाई मिशनों की देन से उन्होंने कुछ नए पूर्वग्रह भी बना लिए। इस तरह, उन्हें ब्रिटिश राज एक दैवी व्यवस्था जैसा लगने लगा। इस दोहरी प्रक्रिया के सबस विशिष्ट प्रतिनिधि राजा राम मोहन राय थे।”
“हालाँकि, हिन्दू समाज के सौभाग्यवश मुस्लिम शासन के दौरान वैसे आत्म-विलगित हिन्दू अधिक प्रभावी तत्व बन हो सके; उनका वर्ग शहरों तक सीमित रहा, क्योंकि केवल वहीं मुस्लिम प्रभाव महत्वपूर्ण रूप में मौजूद था। इस दोगली नस्ल की संख्या देहातों में बड़ी कम थी, जहाँ मुस्लिम शासन कभी जड़ें नहीं जमा सका था। दूसरे, वैचारिक युद्ध में मानव मस्तिष्क को प्रभावित कर सकने की इस्लाम की क्षमता सदैव बड़ी दयनीय थी। प्रायः इस ने पाशविक शक्ति से ही काम चलाया और कड़ा प्रतिरोध पैदा किया। अंतिम बात, कि मुस्लिम शासन के संपूर्ण दौर में हिन्दू बच्चों की शिक्षा प्रायः हिन्दू हाथों में रही। इसलिए आत्म-विलगित हिन्दू हिन्दू समाज की केवल परिधि पर रह कर सक्रिय रहे; शायद ही कभी वे इस समाज की मुख्यधारा में रहे।”
“ब्रिटिश विजेताओं और ईसाई मिशनरियों के आने के साथ यह सब बदल गया। उनका प्रभाव केवल शहरी केंद्रों तक सीमित न था, क्योंकि उनके शिविर देहातों तक भी फैले हुए थे। दूसरे, वे विचारों से भरे हुए थे और विचार फैलाने के उनके साधन इस्लामियों के साधनों से अधिक समर्थ थे। और दूरगामी रूप से जिस चीज ने सब से बड़ा अंतर पैदा किया वह यह कि हिन्दू बच्चों की शिक्षा साम्राज्यवादियों और मिशनरी संस्थानों ने अपने हाथ में ले ली। इन सब के समवेत फलस्वरूप, आत्म-विलगित हिन्दुओं की संख्या तेजी से और कई गुनी बढ़ी। इन सब के साथ-साथ, सोवियत साम्राज्यवाद द्वारा बनाए गए कम्युनिस्ट तंत्र ने सच्चे हिन्दुओं के विरुद्ध और आत्म-विलगित हिन्दुओं के पक्ष में जबर्दस्त प्रचार हमला बोल दिया। मानव इतिहास में यह किसी चमत्कार से कम नहीं कि इस तूफान को झेल कर हिन्दू समाज और संस्कृति न केवल बच सकी, बल्कि महर्षि दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, श्री अरविन्द और महात्मा गाँधी के माध्यम से ऐसा प्रत्याक्रमण भी किया जिस से उन्हें विश्वभर में सम्मान मिला। फिर भी, आत्म-विलगित हिन्दू कई गुणे बढ़ते और आधुनिक पश्चिम के दबदबे वाले सांस्कृतिक वातावरण में फलते-फूलते रहे और स्वतंत्र भारत में वे सर्वोच्च स्थानों पर आ पहुंचे जब हिन्दू पुनरुत्थान का कोई सशक्त योद्धा मंच पर नहीं बचा था।”
“सरदार पटेल के निधन के कुछ ही वर्षों में पंडित नेहरू ने जो शक्ति और प्रतिष्ठा अर्जित कर ली, उस का उनकी प्रतिभा से कोई संबंध न था; न तो व्यक्ति, न राजनेता, न ही चिंतक के रूप में। वह सब एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया के परिणाम थे जिस ने आत्म-विलगित हिन्दुओं के एक पूरे वर्ग को सब से आगे कर दिया। यदि यह वर्ग न होता तो पंडित नेहरू कभी सब से ऊपर नहीं आए होते। और यह वर्ग प्रभुत्वशाली न हुआ होता या बना रहता, यदि उसे पश्चिमी विशेषकर सोवियत संघ के प्रतिष्ठानों का समर्थन न होता।”
“यह कोई दुर्घटना नहीं है कि नेहरूवादी शासन ने अधिकांश मामलों में ब्रिटिश शासन जैसा व्यवहार किया। नेहरूवादियों ने भारत को हिन्दू देश की तरह नहीं, बल्कि एक बहु-नस्ली, बहु-धर्मी, बहु-सांस्कृतिक बंदस्थान की तरह देखा। अंग्रेजों की तरह उन्होंने भी माइनॉरिटीज (अल्पसंख्यकों) की सहायता से मुख्य समाज और संस्कृति को दबाने की हर कोशिश की। यानी, साम्राज्यवाद द्वारा बनाई बस्तियों रूपी माइनॉरिटीज की सहायता से। उन्होंने हिन्दू समाज को विखंडित करने की भी कोशिश की, ताकि उस प्रक्रिया से और माइनॉरिटीज बनें। वस्तुतः यह उनका पूरे समय का मुख्य काम था कि माइनॉरिटीज की रक्षा के नाम पर हिन्दू संस्कृति की हर अभिव्यक्ति को खत्म करें, हिन्दू गौरव का हर प्रतीक तोड़कर गिरा दें और हरेक हिन्दू संगठन को परेशान करें। हिन्दुओं को दैत्य के रूप में प्रस्तुत किया गया कि यदि उन्हें सत्ता मिली तो वे सांस्कृतिक नरसंहार कर देंगे।”
“भारत का विभाजन इस्लामी साम्राज्यवाद ने किया था, किन्तु नेहरूवादियों ने बेशर्मी से इस का दोष उन पर डाल दिया जिसे वे ‘हिन्दू सांप्रदायिकता’ कह कर बदनाम करते थे। नए भारतीय गणतंत्र पर यहाँ कम्युनिस्टों द्वारा सोवियत साम्राज्यवाद के हित में एक खुला युद्ध छेड़ा गया, लेकिन नेहरूवादी लोग उन गद्दार कम्युनिस्टों की सफाई देने में लगे हुए थे , जब कि उसी समय पूरी ताकत और उत्साह से आर. एस. एस. के पीछे पड़े हुए थे। ब्रिटिश राज और नेहरूवादी शासन में कई अन्य समानताएं भी हैं। मैं उसके विस्तार में नहीं जाउँगा, क्योंकि मुझे विश्वास है कि वे समानताएं किसी को भी स्वतः दिख जाएंगी जो इस विषय पर अपनी बुद्धि लगाएगा। नेहरूवादी फार्मूला यह है कि हर हालत में हिन्दुओं पर आरोप लगाओ, चाहे असली अपराधी कोई भी हो।”
– स्व. सीताराम गोयल
[साभार: “मैं हिन्दू कैसे बना” (‘How I Became Hindu’ का हिन्दी अनुवाद) अनुवादक: डॉ. शंकर शरण, प्रथम हिन्दी संस्करण, 2019, पृ. 99-103]