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सन् १६५९ में शिवाजी महाराज ने अपने एक साथी नेतोजी पालकर को सरनौबत (मराठी घुड़सवार सेना के नायक) के रूप में नियुक्त किया। तब तक शिवाजी महाराज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करते हुए नेतोजी के कर्तृत्व व पराक्रम की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी और न केवल भारतीय बल्कि यूरोपीय लेखकों ने भी नेतोजी पालकर को ‘दूसरे शिवाजी’, ‘शिवाजी की प्रतिकृति’ जैसे विशेषणों से संबोधित करना शुरू कर दिया था।
१६ जनवरी १६६६ के दिन जब शिवाजी महाराज ने पन्हाला दुर्ग पर धावा बोल दिया, तब नेतोजी पालकर किन्हीं कारणवश नियत समय पर शिवाजी महाराज की सहायता के लिए वहाँ नहीं पहुँच सके। अपनी इस चूक के लिए शिवाजी महाराज की ओर से फटकार मिलने पर नेतोजी रूष्ट हो गए और बीजापुर की आदिलशाही सल्तनत से चार लाख सोने के सिक्के लेकर उनकी सेवा में शामिल हो गए।
प्रारम्भ से ही स्वराज्य-साधना के कार्य में शिवाजी महाराज का सक्रिय सहयोग करने वाले, माता जीजाउ साहेब के स्नेहपात्र सरनौबत नेतोजी पालकर विधर्मी शत्रु के पक्ष में जा मिले, यह लोगों के लिए अविश्वसनीय था। बाद में, २२ मार्च १६६६ के दिन औरंगजेब के सेनापति मिर्जा राजा जयसिंह ने पाँच हज़ारी मनसब, कुछ जागीर और बहुत सारा धन देकर उन्हें मुगलों के पक्ष में शामिल कर लिया।
१८ अगस्त १६६६ के दिन जब शिवाजी महाराज अपने बुद्धि-चातुर्य और साहस से आगरा में औरंगज़ेब की कैद से मुक्त होकर भाग निकले, तब नेतोजी पालकर मुगल मनसबदार होने से शिवाजी महाराज को कैद से भगाने में उनकी भी कुछ न कुछ भूमिका रही होगी, ऐसा सोचकर औरंगज़ेब ने नेतोजी पालकर को कैद कर दिल्ली लाने का हुक्म दिया।
दिल्ली कोतवाल ने नेतोजी को मौत से बचने के लिए इस्लाम कुबुल कर लेने के लिए तीन दिन का समय दिया। मुगल कारागार में कुछ दिन बिताने के बाद नेतोजी ने फरवरी १६६७ में मुगल बादशाह से निवेदन किया कि यदि वह उसे जीवनदान दे देता है तो वह इस्लाम में मतपरावर्तन करने के लिए तैयार हैं। २७ मार्च १६६७ के दिन नेतोजी का खतना किया गया और ‘मुहम्मद कुली खान’ नाम दिया गया। बाद में नेतोजी की दो पत्नियों को भी दिल्ली लाया गया और बादशाह के आदेशासार, उन पर भी इस्लाम कुबुल करने के लिए दबाव बनाया गया, लेकिन उनके इनकार करने पर नेतोजी (अब, मुहम्मद कुली खान) को उन्हें मनाने का आदेश दिया गया।
अंततः नेतोजी ने अपनी पत्नियों को इस्लाम कुबुल करने के लिए तैयार कर लिया और बादशाह ने मुस्लिम रीति-रिवाज के अनुसार उनकी दूसरी शादी करवाई।
जून १६६७ में औरंगज़ेब ने नेतोजी (मुहम्मद कुली खान) को एक युद्ध अभियान पर अफघानिस्तान में काबुल भेज दिया। नेतोजी ने एक बार वहां से भागने का असफल प्रयास किया, लेकिन सन् १६७४ में शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के बाद, औरंगजेब जब शिवाजी महाराज को अपने अधीन करने की योजना बनाने लगा तब वह एक ऐसे वफादार व सक्षम व्यक्ति की तलाश में था जो दक्खन की भौगोलिक स्थिति और वहाँ के प्रमुखों लोगों से सुपरिचित हो। वर्षों पूर्व शिवाजी महाराज के साथ संबंध विच्छेद कर मुसलमान बन चुके मुहम्मद कुली खान (नेतोजी पालकर) औरंगजेब की दृष्टि में इस कार्य के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति था। इस प्रकार, सन् १६७६ में शिवाजी महाराज को फंसाने के लिए दिलिर खान के साथ उन्हें भी दक्खन के अभियान पर भेजा गया था। दक्षिण में मुगल सेना ने सतारा के पास डेरा डाला।
एक दिन सुबह में सुअवसर पाकर मुगल सैन्य शिविर से सफलतापूर्वक पलायन कर नेतोजी पालकर सीधे छत्रपति शिवाजी महाराज के पास पहुंच गए और पिछले कुछ वर्षों में विधर्मी मुगलों के बीच रहते हुए उनके और उनके परिवार के साथ क्या-क्या हुआ था, यह बताकर उसने शिवाजी महाराज से अपने शुद्धिकरण के लिए अनुरोध किया।
१९ जून १६७६ के दिन शिवाजी महाराज ने शुद्धिकरण अनुष्ठान का आयोजित कर मुहम्मद कुली खान बन गए नेतोजी पालकर को पुनः हिंदू बनाया। वह पुनः शिवाजी महाराज की सेवा में शामिल हुए और संभाजी महाराज के शासन काल के दौरान वृद्धावस्था में उनकी मृत्यु हुई।
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सन्दर्भ :
1. New History of the Marathas, Vol.1 (G. S. Sardesai)
2. Shivaji and His Times (Sir Jadunath Sarkar)