Sunday, December 29, 2024
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Homeअध्यात्म गंगानिःस्वार्थ सेवा ही सौ यज्ञों का पुण्य देती हैः गुरुजी श्री विजेंद्रजी

निःस्वार्थ सेवा ही सौ यज्ञों का पुण्य देती हैः गुरुजी श्री विजेंद्रजी

मुंबई के मालाड में मार्वे रोड पर स्थित अमोघ धाम में प्रति रविवार गुरुजी श्री विजेंद्रजी के पावन सानिध्य में सत्संग का आयोजन होता है। इस सत्संग में श्रध्देय गुरुजी संगीतमी अमृतवाणी के बीच रोचक व प्रेरक प्रसंगों के माध्यम से अध्यात्मिक रसवर्षा करते हैं। इस बार आयोजित सत्संग में गुरुजी ने निःस्वार्थ सेवा की व्य़ाख्या करते हुए कहा कि सच्चे मन से की गई छोटी से छोटी सेवा भी सौ अश्वमेध यज्ञ के पुण्य के बराबर होती है। उन्होंने एक लकड़ी काटने वाली महिला की कहानी सुनाते हुए कहा कि वह गरीब महिला एक सत्संग में गई तो उसने सुना कि जो अश्वमेध यज्ञ करता है उसे कई पुण्य मिलते हैं। ये सुनकर उसके मन में सवाल उठा कि वह तो इतना खर्च कर अश्वमेघ यज्ञ नहीं कर सकती तो उसे यज्ञ का पुण्य कैसे मिलेगा। अपनी जिज्ञासा को लेकर वह व्याख्यान देने वाले संत के पास गई तो उन्होंने उसे बताया कि अगर वह सच्चे मन से छोटी से छोटी सेवा भी करेगी तो उसे सौ अश्वमेध यज्ञ का पुण्य मिलेगा। उसके निश्छल ह्रदय में ये बात घर कर गई। उसने सोचा कि वह इतनी साधनहीन है तो किसकी और कैसे सेवा करेगी। उसकी सेवा स्वीकारेगा कौन। इसी उधेड़बुन में वह जंगल से लकड़ी काटकर ला रही थी तो रास्ते में उसे एक संत की कुटिया दिखाई दी। उस कुटिया में अंदर जाने पर उसने देखा कि वहां सब कुछ अस्त व्यस्त है। सामान बिखरा पड़ा है। ऋषि के कपड़े बगैर धुले पड़े हैं। उसने चुपचाप पूरी कुटिया को व्यवस्थित कर दिया , संत के कपड़े धोकर सुखा दिए। मटके में पानी भरकर रख दिया। इस तरह वह प्रतिदिन ये सेवा कार्य करने लगी।

अपनी कुटिया में प्रतिदिन इस सेवा कार्य को देखकर संत को भी आश्चर्य हुआ, उन्होंने सोचा कि ये पता लगाना चाहिए कि ये सब कौन कर रहा है। एक दिन वे भ्रमण से जानबूझकर जल्दी लौट आए और देखा कि व महिला चुपचाप पुरे मनोयोग से सेवा कार्य कर रही है। संत बहुत प्रसन्न हुए और उसे आशीर्वाद दिया और कहा कि अब तुझे सेवा करने की जरुरत नहीं।

कुछ ही दिन बीते थे कि उस राज्य के राजा का युवराज भयंकर बीमार हो गया। राजा को बताया गया कि इसका स्वास्थ्य तभी ठीक होगा जब कोई अपने पाँच अश्वमेध यज्ञ का फल इसे दे दे। राजा को आश्चर्य हुआ कि एक अश्वमेध यज्ञ तो ठीक है पाँच अश्वमेध यज्ञ करने वाला पुण्यशाली हमारे राज्य में कौन होगा। राजा ने पूरे राज्य में डोंडी पिटवा दी कि जो कोई अपने अश्वमेध यज्ञ का पुण्य राजकुमार को दे देगा राजा उसे हजारों स्वर्ण मुद्राए देंगे।

यह बात उस महिला तक भी पहुँची। उस भोली भाली महिला को लगा कि उसने जो सेवा कार्य किया है उससे उसके पास पाँच अश्वमेध यज्ञ का पुण्य तो जरुर मिल गया होगा। वह राज महल पहुँची तो दरबान ने उसे अंदर नहीं जाने दिया। उसने कहा कि मैं ईनाम लेने नहीं अपना पुण्य देने आई हूँ। इसी बीच किसी दरबारी ने उसको देखा और राजा के पास ले गया। राजा ने उसे देखा तो उसे भी आश्चर्य हुआ कि ये गरीब महिला पाँच यज्ञों का पुण्य कैसे देगी। राजा ने अपने पंडित पुरोहितों से विचार विमर्श किया तो उन्होंने कहा कि इस महिला को एक मौका देना चाहिए। उस महिला ने बीमार राजकुमार को देखा और अपने यज्ञों का पुण्य उसे समर्पित कर दिया। थोड़ी ही देर में राजकुमार उठ बैठा। यह देखकर राजा को आश्चर्य हुआ। उसने उस महिला से कहा कि तुमको हम पूरे खजाने का स्वर्ण दान में देंगे। इस पर उस महिला ने कहा कि मैं इस स्वर्ण भंडार का क्या करुंगी। इसे तो प्रजा में बँटवा दो। राजा ने सारा खजाना प्रजा में बँटवा दिया।

इसकी व्याख्या करते हुए बिजेन्द्र गुरुजी ने कहा कि एक साधारण स्त्री का छोटा सा सेवा कार्य भी कई अश्वमेध यज्ञों के पुण्य से बढ़कर हो सकता है। राजा महाराजा तो तो अपने तमाम संसाधनों से एक ही अश्वमेध यज्ञ कर सकते हैं जबकि सेवा करके सौ यज्ञ का पुण्य मिल जाता है। हम भी अपने जीवन में अगर निःस्वार्थ भाव से कोई भी सेवा करें तो उसका पुण्य हमारा ही नहीं हमारे किसी अपने का या हमसे जुड़े किसी भी व्यक्ति का उद्धार कर सकता है। उन्होंने कहा कि हम सेवा के बदले में अगर कुछ चाहने की भावना से कार्य करेंगे तो हमारी सेवा निष्फल हो जाएगी।

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