जन्म से मैं स्वयं एक ब्राह्मण हूँ, इसलिए यह लिखने की धृष्टता कर रहा हूँ. मेरे पूर्वज भी मूलतः कश्मीर से ही थे जो शताब्दियों पूर्व, शायद बुतशिकन की यातनाओं के ज़माने में या किसी और समय पंजाब में लाहौर और गुजरांवाला में आकर बस गए थे. 1947 में उन्हें वहां से भी खदेड़ दिया गया था, परन्तु यह इस आख्यान का विषय नहीं है.
वर्ष 2014 में मैं सपरिवार कश्मीर गया था. तब केंद्र में मोदी जी सत्ता संभाल चुके थे. उससे बहुत पहले वर्ष 1992 में मुरली मनोहर जोशी और नरेंद्र मोदी ने ऐतिहासिक साहस का परिचय देते हुए ग्रेनेड धमाकों के बीच लाल चौक पर तिरंगा फहराया था. उससे पहले तक यह खुली चुनौती थी भारतीयों के लिए. वहां की स्थानीय सरकारें भी उग्रवादियों की भाषा बोलती थीं. उसके बाद वर्ष 2009 तक तो स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर तिरंगा लहराने का क्रम चलता रहा किन्तु उसके बाद फिर उग्रवाद हावी हो गया और यह क्रम बंद हो गया.
वर्ष 1999 में कश्मीर की यात्रा के दौरान मैं देख चुका था कि कैसे लाल चौक आतंक के साये में डूबा रहता था. उस यात्रा का वृत्तांत फिर कभी.
2014 में मोदी के केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद क्या कुछ बदला है और क्या नहीं, यह देखने के इरादे से हमने इस बार ठीक लाल चौक पर ही रुकने का निर्णय किया.
हम लोग लेह से टैक्सी में आये थे. हमें आशा कम ही थी कि लाल चौक पर ठहरने लायक स्थिति होगी, इसलिए हमने टैक्सी ड्राइवर (जो श्रीनगर का ही एक मुस्लिम युवक था) से कहा कि वह हमें लाल चौक घुमाए, होटल ढूंढने में सहायता करे और यदि वहां बात न बने तो हमें ठहरने के लिए अन्यत्र ले चले.
ड्राइवर लाल चौक दिखाते हुए हमें एक गुरुद्वारा और एक मंदिर में लेकर गया जहां ठहरने की व्यवस्था थी. हम चकित हुए. वहां पहुंच कर हमें और भी हैरानी हुई कि दोनों जगह सभी कमरे भरे हुए थे.
गुरुद्वारा की धर्मशाला तो काफ़ी बड़ी थी परन्तु मन्दिर की धर्मशाला में अपेक्षाकृत काफ़ी कम कमरे थे. वहाँ के व्यवस्थापक से हमारी बात हुई तो हमने अपनी जिज्ञासा के वशीभूत उनसे कश्मीर की और विशेषकर 1990 से सम्बद्ध जानकारी लेनी चाही। जो उन्होंने बताया वह हमें अच्छा तो नहीं लगा परन्तु संक्षेप में वह है इस प्रकार. उन्होंने बताया कि वे कश्मीर छोड़कर नहीं गए क्योंकि उन्होंने कश्मीर न छोड़ने का निर्णय ले लिया था. उनके अनुसार उग्रवादियों के निशाने पर पंडित थे और डोगरा होने के कारण उन्हें धमकी आदि नहीं दी गई थी. उन्होंने यह भी दावा किया कि उसी क्षेत्र में दूसरे हिन्दू समुदायों के लोगों पर भी आक्रमण नहीं किए गए थे.
कश्मीरी पंडितों को ही क्यों निशाना बनाया गया, यह तो वह नहीं बता पाए, अलबत्ता यह अवश्य स्पष्ट हो गया कि कश्मीर में हिन्दू बंटे हुए थे जाति-बिरादरियों में, जिसका लाभ उठाकर उन्होंने पंडित बिरादरी को निशाना बनाया और अपनी आवश्यकतानुसार और सुविधा अनुसार अन्य हिन्दुओं पर उस प्रकार के ज़ुल्म नहीं ढाए.
यह दृष्टिकोण कितना सही है और कितना गलत, मैं पक्का नहीं कह सकता, हां, लगता तो यही है कि पंडित की अपनी अलग पहचान बनाए रखना उन्हें भारी पड़ गया.
एक कश्मीरी मित्र के साथ मैं 1999 में कश्मीर गया था तो उनके मुस्लिम मित्रों के साथ मैंने भी मुलाकात की थी. श्रीनगर के तत्कालीन विधायक के जम्मू वाले निवास पर मैं उनके साथ एक रात रुका भी था. 1990 का नरसंहार हुए एक दशक होने को था. उनके सब मुस्लिम मित्र कश्मीरी पंडितों की अथक प्रशंसा करते थे. इस बात पर उनका विशेष ज़ोर होता था कि पंडितों के पलायन के बाद से घाटी से जैसे शिक्षा व्यवस्था ही लुप्त हो गई थी. प्रशंसा सुन मेरे मित्र का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था. क्षण भर को वह अपनी वेदना को भूल भी जाते थे. स्वयं ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण कहीं न कहीं मुझे भी अच्छा लगता था.
परन्तु कहीं यह सम्मानजनक पहचान ही तो उनके नरसंहार का कारण तो नहीं बन गई? मैं यह तो नहीं कहता कि यदि कश्मीर के सब हिन्दुओं की पहचान हिन्दू के रूप में होते तो 1990 न होता, परन्तु हो सकता है इतना भयावह भी न होता!
आज जब फेसबुक पर अपनी जातियों पर गर्व करने वालों की पोस्ट्स देखता हूँ तो मन व्यग्र हो जाता है. ये मंदबुद्धि लोग कब जातिवाद से ऊपर उठेंगे? कब सीखेंगे इतिहास से?
साभार- https://www.facebook.com/imvikramsharma से