आजकल दिमागी द्वंद्व या मानसिक संघर्ष आम बात है। यह आदमी को भीतर से तोड़ देता है। उसकी ज़िंदगी की राहों को अनचाही दिशाओं में मोड़ देता है। जीवन की भागदौड़, परेशानी, धार्मिक, सामाजिक व पारिवारिक दबाव आदि के चलते अक्सर व्यक्ति द्वंद्व का शिकार हो जाता है। द्वंद्व है तो यह शरीर और मन पर गहरा असर डालता है। द्वंद्व से खासकर हमारी आँखें, आँते, फेंफड़े, नींद तथा दिल ज्यादा प्रभावित होते हैं। मन में निर्णय लेने की क्षमता खतम हो जाती है। योग से दिमाग के इस द्वंद्व की स्थिति से निजात पाई जा सकती है।
याद रहे कि बहस बहुत से मानसिक रोगों का कारण भी है। निर्द्वंद्व में जीना ही असल में शांति और शक्तिपूर्ण महसूस करना है। निर्द्वंद्व अर्थात बगैर मानसिक बहस के जीने से शरीर में किसी भी प्रकार का रोग उत्पन्न नहीं होता। वैसे द्वंद्व के बुनियादी कारण हैं – कारण- समस्या, संघर्ष, बहस, संस्कार और अति विचार। हर घटना का हद से ज्यादा विश्लेषण करना भी तनाव पैदा करता है। बेहतर यही है कि उससे सीख लेकर उसे जो बीत गई वो बात गई की तर्ज़ पर भुला दें।
लेखक स्टीफन मनालैक की हालिया पुस्तक ‘सॉफ्ट स्किल्स फॉर ए फ्लैट वर्ल्ड’ में सॉफ्ट स्किल्स के दायरे को बातचीत और सामाजिक आचार-व्यवहार से अधिक बढ़ाने पर जोर दिया गया है। वैश्विक स्तर पर विस्तार ले रही भारतीय कंपनियों पर फोकस करते हुए मनालैक का मानना है कि उनकी सफलता संप्रेषण, आध्यात्मिकता, सोच-परख की क्षमता और लीडरशिप की ‘सॉफ्ट स्किल्स’ पर निर्भर करती है। मनालैक ऑस्ट्रेलिया और भारत में क्रॉस-कल्चरल ट्रेनिंग उपलब्ध कराते हैं। वह ऑस्ट्रेलिया-इंडिया बिजनेस काउंसिल के पूर्व सचिव रह चुके हैं, जो दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यवसाय का समर्थन करने वाली एक संस्था है। वह मेलबर्न यूनिवर्सिटी में एशिया लिंक के लीडरशिप मार्गदर्शक भी हैं। यह संस्था ऑस्ट्रेलिया-एशिया के बीच जन संपर्क, व्यवसाय और सांस्कृतिक सहयोग को बढ़ाने की दिशा में काम करती है।
स्मरण रहे कि मनालैक ने वर्ष 2002 में ‘यू कैन कम्युनिकेट’ पुस्तक लिखी थी और 2010 में ‘राइडिंग द एलिफेंट – डूइंग बिजनेस एंड मेकिंग प्रॉफिट्स इन मॉडर्न इंडिया’ का सह-लेखन किया था। आपात परिस्थिति पर लिखे एक अध्याय में मनालैक विमर्श करते हैं कि किस तरह कंपनियां आपात परिस्थितियों की बजाय उन पर अपनी प्रतिक्रिया से अधिक नुकसान में रहती हैं। उन्होंने बताया है कि क्या विधियां अपना कर टकराव या द्वंद्व की परिस्थितियों को संकटावस्था में पहुंचने से पहले रोका जा सकता है। इसके कुछ दृष्टांत यहां दिए जा रहे हैं:
संकट का सामना
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जब अच्छे संस्थानों के सामने कोई संकटकाल या समस्या आती है तो वह दिए गए छह उपायों को अपनाते हैं। इनमें से प्रत्येक बिंदु को परखा जाना ठीक रहता है:
1. तथ्य सामने रखें (किसी भी संकटकाल का पहला शिकार सत्य ही बनता है, और यह तब तो जरूर ओझल हो जाता है, जब हम नाराज या संकट में होते हैं)।
2. सक्रियता का प्रदर्शन (लोग आपकी तभी इज्जत करते हैं, जब आप सकारात्मक तरीके से पेश आते हैं, फिर चाहे पहली बार आप गलत ही क्यों न हों)।
3.अपने बारे में सोचें, क्या आपको भी बदलने की जरूरत है?)
4. मार्केट के हालात की परख (अन्य लोगों की प्रतिक्रिया भी मांगें)।
5. व्यवहार और अभ्यास में बदलाव (यदि आप प्रयास करेंगे तो सुधार जरूर आएगा)।
6. संदेश आगे बढ़ाएं (सकारात्मक संप्रेषण की कला सीखें)।
ध्यान दें कि कैसे कमतर संस्थान जल्दी करते हुए आगे बढ़ जाते हैं, जबकि बेहतर संस्थान परिस्थितियों का आकलन ही करते रह जाते हैं; यह बताता है कि धैर्य अपने आप में बहुत बड़ी शक्ति होता है। इसके विपरीत, कई बार हम संकट की बजाय द्वंद्व जैसी परिस्थिति का सामना करते हैं। यही द्वंद्व बाद में संकट बन सकते हैं, इसलिए बेहतर होता है कि द्वंद्व को निजी स्तर पर सुलझा लिया जाए। कार्य जीवन में अधिकतर विवाद और द्वंद्व उठते रहते हैं, जो कई बार संकटपूर्ण परिस्थिति में बदल जाते हैं। इसलिए आप द्वंद्व की किसी परिस्थिति में क्या करेंगे?
भीतरी हालात को समझें
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पहला जरूरी कदम यह रहेगा कि आप जानें कि कार्यस्थल पर कुछ गंभीर समस्याएं हैं। इस बारे में पता लगाने की ईमानदार पहल से आप खुद को एक नई रोशनी में पाएंगे। किसी पर चिल्लाना आपस में टकराहट को बढ़ावा देता है। उसी तरह जैसे कि किसी की पीठ के पीछे उसके बारे में बात करना, या अपनी कुर्सी का फायदा उठाते हुए किसी कनिष्ठ को तंग करना, जबकि बेहतर कम्युनिकेशन के जरिए कार्य के कहीं बेहतर नतीजे प्राप्त किए जा सकते हैं।
मशविरा से काम लें
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इससे कुछ समय तो काम चलेगा, परंतु कार्य समूह में उठे द्वंद्व के दीर्घकालिक निपटारे के लिए समूह को स्वयं ही उस पर काम करने दें। दरअसल इस प्रक्रिया को घर में भी लागू किया जा सकता है, विशेषकर किशोरों के बीच। अभिभावक अक्सर निर्देश जारी करने की वही गलती दोहराते हैं, जबकि उन्हें किशोरों व बच्चों के बीच मशविरा पर जोर देने का काम करना चाहिए।
मैत्रीपूर्ण व्यवहार करें
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कॉर्पोरेट जगत में किसी समस्या को सुलझाते समय और निर्णय संबंधी कठोरता बरतते हुए अन्य लोगों या पूरे समूह की आंखों में आंखें डाल कर दोस्ताना व्यवहार के साथ बात करें। सीनियर एग्जीक्यूटिव के लगभग प्रत्येक प्रशिक्षण प्रोग्राम में ‘आई कॉन्टेक्ट’ को बहुत महत्व दिया जाता है। यदि आप बात करते हुए ऊपर की ओर देखते हैं, अपने मुंह पर हाथ रखते हैं, आगे-पीछे देखते हैं तो आपको अक्सर गलत समझा जाता है और फिर याद रखिए कि अगली समस्या दूर नहीं।
दबाव से रहें दूर
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यदि किसी कर्मचारी की कोई समस्या है तो उसके वरिष्ठ को समझना चाहिए कि उसकी समस्या को जबरन दबाने से उसका बुरा व्यवहार आज तो समाप्त हो सकता है, लेकिन इसके बाद वह व्यक्ति या तो कार्यसमूह छोड़ देगा या उसका योगदान आंशिक रह जाएगा। यह पूरी तरह नुकसान ही होता है। इसलिए किसी भी द्वंद्व की भारी आलोचना करने से पूर्व कुछ सोचें और रुक जाएं। कार्यस्थल पर किसी गंभीर मुद्दे का शांतिपूर्वक निपटारा कराने का यह मतलब नहीं होता कि आप कमजोर हैं या लोग आपसे मनमाना काम करा सकते हैं।
खुद के बारे में आकलन करते समय हमें अक्सर घर, स्कूल या कार्यस्थल पर विपरीत भावनात्मक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। जब आप किसी काम को ‘ना’ कहते हैं तो इसका मतलब यह होता है कि आपने अपनी मजबूती दिखाने का प्रयास पहले ही शुरू कर दिया है। खुद को परखने का सर्वश्रेष्ठ तरीका सीधा व्यवहार रखने का ही होता है। उदाहरण के लिए, यदि आपको लगता है कि दफ्तर में कोई समस्या उठ रही है तो सभी को एकत्र कीजिए और मुद्दे पर बात कीजिए, इसमें झिझकिए नहीं। द्वंद्व से मुक्ति का उपाय- नियमित प्राणायाम और ध्यान करने से द्वंद्व से मुक्त हुआ जा सकता है। दिन में एक घंटा मौन रहें। और यह भी कि –
वक्त से होड़ क्यों नहीं लेते
रास्ता मोड़ क्यों नहीं लेते
रास्ता ताकना सुयोगों का
व्यर्थ है, छोड़ क्यों नहीं देते
पेड़ घर आ के फल नहीं देते
हाथ है, तोड़ क्यों नहीं लेते
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प्राध्यापक, शासकीय दिग्विजय पीजी
ऑटोनॉमस कालेज, राजनांदगांव।
मो.9301054300