आत्म तत्व और आत्म विज्ञान पर भारत में जो चिंतन मनन हुआ उसका शतांश भी विश्व में अन्यत्र नहीं हुआ।
पश्चिम ने तर्क पर कार्य किया और उसकी परिणिति स्वरूप विश्व को आधुनिक विज्ञान का फल प्राप्त हुआ ।
और पूरब ने विचार को, आत्म चिंतन को आधार बनाया जीवन का और मनुष्य को धर्म का अप्रतिम पूर्ण परिष्कृत पुष्प वरदान में दिया।
कठोपनिषद की कथा शुरू होती है उद्दालक ऋषि के विश्वजित यज्ञ से। उद्दालक ऋषि क्रोध में आकर, आवेश में अपने पुत्र नचिकेता को यम को दे देता है।
यम के द्वार पर मृत्यु के दर पर प्रथम बार किसी ने दस्तक दी है अन्यथा सदैव मृत्यु ही आती है। कभी कोई मृत्यु के घर स्वयं गया नहीं है।
नचिकेता और यम का यह संवाद जीवन मृत्यु का विशद् विवेचन है। आत्म तत्व की शाश्वतता का निरूपण है।
जीवित ही मरने की कला का नाम ही मोक्ष है।
अमृत सिर्फ मृत्यु को ही मिला है क्योकि मृत्यु की कोई मृत्यु नहीं होती। मृत्यु अमरत्व का सूत्र है और जो मृत्यु के द्वार पर होश पूर्वक दस्तक देते है उन्हें अमृत सहज ही प्राप्त हो जाता है।
बहुत सुन्दर कथा है नचिकेता को मृत्यु घर पर मिलती नहीं है और वह तीन दिन इंतजार करता है।
और इसके विपरीत मृत्यु जब भी आती है हम सदैव घर पर ही होते है अन्यथा होने का प्रश्न ही नहीं है क्योकि हमारा घर “पुर” यह शरीर ही है और मृत्यु शरीर में ही घटित होगी।
निष्कर्ष संक्षेप में यह है जो मृत्यु को जान लेता है और स्वयं होश पूर्वक मृत्यु में प्रवेश करता है वह अमरत्व को प्राप्त कर लेता है।
मृत्यु को जान लेने की कला का नाम ही जीवन है अन्यथा यह बस आयु का क्षरण है। मेरी एक कविता का पद्य इस प्रकार है
“जन्म का अंत “विनोदम्” ,
निश्चित ही मरण है।
न किये सत्कर्म फिर,
यह आयु क्षरण है ।।
विनोदम्
19 मार्च 2016