आज नोटबन्दी के फैसले को 20 दिन पूरे हो रहे हैं और लगभग इतने ही दिन की मेहनत सरकार की आलोचना करते हुऐ विपक्ष को भी हो चुके हैं । जब से मोदी सरकार ने नोटबन्दी का फैसला लिया है तब से लगातार विपक्ष के विरोध के कारण शीतकालीन सत्र भी बाधित है । कई दिन पहले ही विपक्ष ने 28 नवम्बर के दिन भारत बन्द का आह्वान किया था लेकिन जैसे ही दिन नजदीक आया वैसे ही विपक्ष में मौजूद बड़ी बड़ी पार्टियों ने अपने अलग अलग सुर अलापने तैयार कर दिए । कांग्रेस ने कहा कि हम आज आक्रोश दिवस मनाएंगे तो ममता ने कहा हमारा वुरोध प्रदर्शन भी जारी रहेगा । सपा और बसपा भी भारत बन्द ने शामिल नही हैं । बिहार के लाल नीतीश कुमार ने पहले ही ऐसे किसी विरोध प्रदर्शन में शामिल न होने के संकेत दे दिए थे । भारत बन्द में सिर्फ लेफ्ट और कुछ क्षेत्रीय पार्टियां ही शामिल हैं जिनके विरोध का कुछ खास असर नही दिख रहा है । लेफ्ट पार्टियों ने नोटबंदी के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराने के लिए पश्चिम बंगाल में 12 घंटे के बंद की अपील की है। जबकि ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस इस बंद में शामिल नहीं होगी और सिर्फ विरोध प्रदर्शन करेगी।
इस पूरे घटनाक्रम के बाद इतना तो स्पष्ट है कि मौजूदा विपक्ष इस मुद्दे पर भी पूरी तरह से एक नही है ।इसके कई कारण हैं जिनमे सबसे बड़ा कारण विपक्ष में शामिल पार्टियों का अपना अपना हित होना । क्षेत्रीय पार्टियां भी तब तक अपना विरोध मुखर नही करती जब तक उन्हें ये विश्वास न हो जाये की उस मुद्दे का चुनाव में कितना फायदा मिलेगा । भारत बन्द के फैसले से धीरे धीरे अलग होकर अधिकांश पार्टियों ने इसे आक्रोश दिवस में बदल दिया है जिस कारण इतना तो स्पष्ट हो गया है कि विपक्ष को शायद ये भनक लग गई थी की ज्यादातर जनता उनके साथ नही है । शायद इसलिए उन्हें अपना फैसला बदलना पड़ा । एक लोकतान्त्रिक देश के नजरिये से देखें तो कुछ ठीक नही चल रहा । ये मौजूदा समय विपक्ष के लिहाज से काफी बुरा साबित हो रहा है । पूर्ण रूप से विपक्ष है नही और जितना है भी वो उतना मजबूत और मुखर नही । मौजूदा समय में जो टूटा फूटा विपक्ष है भी वह संसद में हल्ला मचा सकता है और उसकी कार्रवाई ठप्प करा सकता है, कुछ बिल अटका सकता है । लेकिन भारत बन्द बिल्कुल नही करा सकता । आपको बता दें कि पिछले ढाई बरसों में यह काम उसने बख़ूबी किया भी है और इससे ज़्यादा की न उसकी औक़ात है और न उससे उम्मीद की जानी चाहिए ।
अगर कालेधन पर रोक लगाने के लिए केंद्र सरकार के नोटबन्दी वाले फैसले की ही बात करें तो इसमें भी विपक्ष की भूमिका बिल्कुल उल्टी ही नजर आ रही है । ये भी सच है कि इतने बड़े फैसले में कुछ न कुछ खामियां रह ही गई होंगी तो क्या उन और सरकार के साथ होकर बात नही की जा सकती थी । क्योंकि बात तो कालेधन और भ्रस्टाचार की ही है । इस नासूर पर लगाम लगाने के लिए तो सभी पार्टियां हुंकार भरती हैं फिर अचानक ऐसा क्या हो गया जिसने सबके इरादे ही बदल दिए। कुछ भी हो लेकिन विपक्ष ने जिस तरीके से अपने भारत बन्द के फैसले के सामने खुद घुटने टेके हैं उससे एक बात और जाहिर हो रही है कि वाकई जनता नोटबन्दी के फैसले पर केंद्र सरकार के साथ है !
लेकिन इस बात में कितना दम है ये तो आने वाला समय ही बताएगा पर इतना तो स्पष्ट है कि इस समय विपक्ष बुरी तरह से बैकफुट पर है ।
दुखद विषय यह भी है कि दशकों से भारत में विपक्ष आखिर क्यों अपनी वास्तविक भूमिका का सही से आंकलन नही कर पा रहा है ? अगर ऐसा ही क्रम चलता रहा तो आने वाले समय में यही विपक्ष भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घण्टी साबित हो सकता है ।