हिंदी सिने उद्योग पर चंद घरानों का कब्ज़ा है। वे साल भर पहले से ही देश के अधिकांश सिनेमा हॉल बुक करके रखते हैं। इस आधिपत्य के चलते किसी साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनाना और उसे प्रदर्शित करना बहुत मुश्किल काम है। यह विचार जाने-माने फ़िल्म लेखक कमलेश पांडेय ने साहित्य और सिनेमा परिसंवाद में व्यक्त किए। उन्होंने आगे कहा कि आज अच्छा कंटेंट ही फिल्मों की कामयाबी की गारंटी है। बड़े बड़े स्टार की फ़िल्में धराशायी हो जाती हैं।
विश्व हिंदी अकादमी मुम्बई और दीनदयाल मुरारका फाउंडेशन द्वारा 30 दिसम्बर 2018 की शाम को लोखंडवाला, अंधेरी के आभार सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम में उनके साथ अभिनेता अखिलेंद्र मिश्रा, कथाकार मधु कांकरिया, कथाकार सूरज प्रकाश, पत्रकार हरि मृदुल और फ़िल्म समालोचक अजय ब्रह्मात्मज ने साहित्य और सिनेमा के रिश्तों पर चर्चा की। इस परिसंवाद के माडरेटर थे यूनुस ख़ान, देवमणि पांडेय और केशव राय।
वक्ताओं की राय में हिंदी साहित्यकारों का एक वर्ग ऐसा है जो सिनेमा को आज भी अस्पृश्य मानता है और उससे एक दूरी बनाकर चलता है। दूसरी ओर उर्दू लेखकों ने सिनेमा को समझा, उससे जुड़े और उन्होंने हिंदी सिनेमा में सराहनीय योगदान किया।
चर्चा के दौरान यह भी तथ्य सामने आया कि हिंदी साहित्य की किताबों पर फ़िल्म बनाने वाले कुछ फ़िल्मकार कृति की संवेदना को पूरी तरह आत्मसात नहीं कर पाए इसलिए उनकी फ़िल्में संतोषजनक नहीं बन पाईं। इस बदलाव को भी वक्ताओं ने रेखांकित किया कि मौजूदा दौर में हिंदी भाषी इलाक़ों से कई प्रतिभा संपन्न लेखक और फ़िल्मकार सिने उद्योग में सक्रिय हैं और आने वाले समय में ये लोग हिंदी सिने उद्योग का चेहरा बदल सकते हैं।
कार्यक्रम की शुरूआत में अभिनेता अरुण शेखर ने विषय प्रवर्तन किया। फ़िल्म निर्माता अशोक शेखर ने स्वागत और समाजसेवी दीनदयाल मुरारका ने आभार व्यक्त किया। सभागार में कला, साहित्य और सिनेमा से जुड़े गणमान्य व्यक्ति अच्छी तादाद में उपस्थित थे।