हमें गर्व है कि हम भारतीय हैं । गुरु और शिष्य की परंपरा भारत देश की पहचान है। हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें गुरु- शिष्य परंपरा विरासत में मिली है। भारतीय संस्कृति में गुरु- शिष्य परंपरा के अंतर्गत गुरु यानी शिक्षक अपने शिष्य को शिक्षा देता है अथवा कोई विद्या सिखाता है।बाद में वही शिष्य गुरु बनता है और पुनः वह नई पीढ़ी के शिष्यों को शिक्षा प्रदान करता है । यह क्रम लगातार चलता रहता है और गुरु- शिष्य की परंपरा में ज्ञान का आदान-प्रदान होता रहता है ।यह क्रम पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता रहता है।प्राचीन काल से ही अगर देखा जाए तो गुरु और शिष्य के बीच केवल शाब्दिक ज्ञान का ही आदान-प्रदान नहीं होता था बल्कि गुरु अपने शिष्य का संरक्षण कार्य भी करता था। उसका उद्देश्य था कि शिष्य को बहुमुखी प्रतिभा प्रदान करना। जीवन की चुनौतियों से लड़ना और सफलता हासिल करवाना ।गुरु उसका कभी अहित सोच ही नहीं सकता है इसी विश्वास के साथ शिष्य गुरु के प्रति अटूट प्रेमका भाव रखता था। शिष्य गुरु का आदर करता और गुरु निःस्वार्थ भाव से शिष्य का मार्ग दर्शन करता। यही भाव दोनों के संबंध को गहरा और प्रगाढ़ बनाता था।
प्राचीन काल में गुरु और शिष्य के संबंधों का आधार था गुरु का ज्ञान, मौलिकता,नैतिक भाव, शिष्यों के प्रति स्नेह का भाव,विद्या देने का निस्वार्थ भाव, तथा गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा, गुरु की क्षमता में पूर्ण विश्वास,गुरु के प्रति समर्पण का भाव, आज्ञाकारिता का गुण और अनुशासन शिष्य का सबसे महत्वपूर्ण गुण होता था।द्रोणाचार्य और अर्जुन,राम और विश्वामित्र, रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद,चंद्रगुप्तऔर आचार्य चाणक्य अथवा असंख्य उदाहरण भरे पड़े हैं जहाँ गुरुऔर शिष्य का प्रगाढ़ प्रेम दिखाई देता है। गुरु अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से शिष्य के भीतर के अंधकार को मिटाता है और यही कारण है कि भारतीय सनातन संस्कृति में गुरु का स्थान देवताओं से भी ऊपर रखा गया है। “स्कंद पुराण”, के “गुरु स्त्रोत” में कहा गया है-
“गुरुर ब्रह्मा गुरूर विष्णु: गुरु देवो महेश्वर:।
गुरु: साक्षात्परब्रह्म: तस्मै श्री गुरुवे नमः।”
मानव जीवन में गुरु की महिमा को कभी भी नकारा नहीं जा सकता है। जिन भी महापुरुषों के जीवन दर्शन की ओर प्रकाश डाला जाता है दिखाई देता है कि सामाजिक अथवा आध्यात्मिक गुरु की महिमा से ही उन्हें ज्ञान का मार्ग मिला है। इतिहास में असंख्य उदाहरण हैं ,जब- जब कोई व्यक्ति अपने जीवन की चुनौतियों से परेशान होकर असमंजस अथवा दुविधा में डूबा है तब- तब गुरु ने ही उसके ज्ञान चक्षु को खोला है-
” गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।”
परंतु गुरु- शिष्य परंपरा के नेपथ्य में जाने से हमारे देश में पिछले कुछ दशकों में शिक्षा का ह्रास हुआ है। आज गुरु केवल शिक्षकअथवा अध्यापक बन कर रह गया है जो मात्र कक्षा में खड़ा होकर पाठ्यक्रम पढाने को हीअपना धर्म मान चुका है और शिष्य बड़ी मुश्किल से अपनी उपस्थिति दर्ज करवा लेता है। अतः हम सबको अपनी सनातन संस्कृति में वर्णित गुरु- शिष्य परंपरा को पुन स्थापित करने के लिए इस “शिक्षक दिवस” पर प्रण लेना होगा और याद रखना होगा कि शिक्षकों को न केवल ज्ञान अपितु संस्कृति एवं समृद्धि का भी केंद्रबिंदु बनना चाहिए। विद्यार्थियों की मन:स्थिति को समझते हुए उन्हें भारतीय सनातनी संस्कृति की अनुरूप बनने के लिए प्रेरित करना चाहिए।शिक्षकों को शिक्षण से इतर आचरण एवं व्यवहार के माध्यम से गुरु की महिमा को पुनः प्रतिष्ठित करते हुए गुरु- शिष्य परंपरा की अलख जगानी होगी तथा शिष्यों के अंतः स्थल पर यह मंत्र अंकित करना होगा-
“ध्यानमूलम् गुरोर्मूर्ति:पूजा मूलम् गुरोर्वदम्।
मंत्रमूलं गुरोरवाक्यं मोक्ष मूलं गुरोरकृपा।। ”
अर्थात् – ज्ञान का मूल गुरु की मूर्ति( एकलव्य अनुपम उदाहरण है ),पूजा का मूल गुरु के चरण- कमल, मंत्र का मूल गुरु वचन एवं मुक्ति का मूल गुरु कृपा है और यह सनातन धर्म की सभी धाराओं में देखने को मिलता है। गुरु -शिष्य परंपरा का आधार सांसारिक ज्ञान से शुरू होता है और इसका चरम उत्कर्ष आध्यात्मिक शाश्वत आनंद की प्राप्ति पर जाकर समाप्त होता है! जिसे ईश्वर प्राप्ति अथवा मोक्ष की प्राप्ति भी कहा जाता है। विद्या यानी ज्ञान वही है जो मुक्ति का मार्ग दिखाता है तभी तो कहा गया है-“सा विद्या या विमुक्तये!” मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मुक्ति है। सामाजिक जीवन से आरंभ होकर आध्यात्मिक जीवन तक, मुक्ति का मार्ग दिखाने तक, जन्म से आरंभ होकर जीवनपर्यंत “गुरु एक मशाल है और शिष्य उसका प्रकाश! ”
शिक्षक दिवस पर आज पुनः अपनी प्राचीन गुरू- शिष्य परंपरा को स्थापित करने का प्रण लेना होगा-
” ॐ सह नाववतु! सह नौ भुनक्तु! सह वीर्यं करवावहै!तेजस्विनावधीतमस्तु! मा विद्विषावहै!!”
“कठोपनिषद “के अनुसार हम दोनों( गुरु-शिष्य) अपने धर्म, संस्कृति, ज्ञान- विज्ञान आदि की साथ-साथ मिलकर रक्षा और अर्जन करें! हम दोनों साथ-साथ मिलकर अन्नआदि का भोग करें। हम मिलकर संगठित पराक्रम करें। हमारी साधना, अध्ययन और ज्ञान तेजस्वी हो, दुर्बल नहीं। हम कभी परस्पर द्वेष ना करें। वर्तमान सामाजिक परिवेश में भले ही पठन-पाठन के क्षेत्र में वह प्राचीन गुरु -शिष्य परंपरा विलुप्त हो गई हो परंतु कुश्ती,पहलवानी, साधुओं की संगति तथा संगीत के क्षेत्र में आज भी यह भारतीय परंपरा विद्यमान है जिसकी आज हमें अति आवश्यकता है। भारतवर्ष के समक्ष आज अवसर की खिड़की खुली हुई है। ऐसे में युवा भारत मार्गच्युत न हो, इसके निमित्त गुरु- शिष्य परंपरा को पुनः शक्ति प्रदान करनी होगी। हमें भारत को पुनः परम वैभवशाली बनाना है। विश्वगुरु का हमारा वह सिंहासन, जिस पर बैठकर मां भारती संपूर्ण विश्व का मार्गदर्शन करती थी,उसे पुनः स्थापित करना है। ऐसा गुरु- शिष्य परंपरा की पुनर्स्थापना से ही संभव है! अतः शिष्यों के भीतर गुरु आस्था का बीज पुनः रोपना होगा तथा शिक्षकों को अपने गुरुत्तर आचरण एवं व्यवहार के माध्यम से गुरु की महिमा को पुनः प्रतिष्ठित करते हुए गुरु- शिष्य परंपरा की अलख जगानी होगी।
डॉ सुनीता त्रिपाठी”जागृति”
नई दिल्ली