नई दिल्ली। मोदी सरकार की नीतियों में भारतीय किसान यूनियन और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका हाल के दिनों में मजबूती के साथ सामने आई है। हाल ही में मल्टिनैशनल ऐग्री बिजनस कंपनी मॉनसैंटो के खिलाफ कपास के हाइब्रिड बीजों के मूल्य नियंत्रण को लेकर जिस तरह से उनका रवैया देखने को मिला है, कम से कम उसके आधार पर तो यह कहा ही जा सकता है।
हालांकि सरकार की इस पहल से नाराज कंपनी ने भारत में अपनी स्थिति को लेकर दोबारा समीक्षा करने के धमकी भी दी थी। लेकिन इसे नजरअंदाज करते हुए भारतीय किसान यूनियन और स्वदेशी जागरण मंच ने कहा था कि विकास टिकाऊ होना चाहिए और यह सामाजिक जिम्मेदारी और लोगों की कीमत पर नहीं होना चाहिए। गौर करें तो उनका ये विरोध नाजायज नहीं लगता है।
अपनी तरह की पहली इंटरनैशनल असेसमेंट ऑफ ऐग्रीकल्चर सायेंस ऐंड टेक्नॉलजी फॉर डिवेलपमेंट (IAASTD) रिपोर्ट में भी दावा किया गया है कि पिछले तीन सालों के भीतर दुनिया भर के 60 देशों के 400 से अधिक बेहतरीन वैज्ञानिक इस बात को स्पष्ट कर चुके हैं कि कृषि से जुड़ी समस्याओं के लिए जीएम फसलें बिलकुल भी हल नहीं हो सकती हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया के सामने खाद्य सुरक्षा के लिए सप्लाइ साइड प्रॉडक्टिविटी ही सबसे बड़ी जिम्मेदार है।
इसके अलावा बीटी कॉटन सीड्स कंपनी मॉनसैंटो ने जिन बीजों को भारत में यह कहकर बेचा कि वे कीटरोधी हैं, हाल के दिनों में उनमें भी पिंक बॉलवर्म नाम के कीटों का बड़े पैमाने पर दुष्प्रभाव देखने को मिला है। इस खबर ने सरकार को जीएम फसलों पर अपनी नीति को लेकर दोबारा सोचने पर मजबूर कर दिया।
भारतीय किसान यूनियन का दावा है कि उसका दृष्टिकोण पूरी तरह से वैज्ञानिक है। यूनियन के पदाधिकारी दिनेश कुलकर्णी का कहना है कि यह दावा करना कि खाद्य सुरक्षा के लिए जीएम फसलों को अपनाना ही पड़ेगा, पूरी तरह से बेबुनियाद है और बड़ी मल्टीनैशनल कंपनियों के लॉबिन्ग ग्रुप्स के प्रोपगैंडा का हिस्सा है।
उल्लेखनीय है कि कृषि के क्षेत्र में सरकार के रवैये में बड़ा बदलाव देखा गया है। सरकार ने बजट में मिट्टी की गुणवत्ता, ऑर्गेनिक कृषि और परंपरागत कृषि विकास योजना के तहत प्रमाणीकरण जैसे इस क्षेत्र के कुछ मूलभूत पहलुओं की तरफ ध्यान दिया है। अब सरकार देश में छह नए कृषि विश्वविद्यालयों का नेटवर्क खड़ा करने की तैयारी कर रही है, जो ऑर्गेनिक खेती पर शोध को बढ़ावा देंगी।
आरटीआई ऐक्टिविस्ट विजय जवांडिया द्वारा दाखिल एक आरटीआई के आधार पर हमारी सहयोगी इकाई टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में यह सामने आया था कि साल 2002 से लेकर 2006 तक बीटी कॉटन बीजों के आने के बाद से बीज कंपनियों ने किसानों से रॉयल्टी के नाम पर बड़े पैमाने पर पैसे बनाए हैं।
स्वदेशी जागरण मंच के अश्वनि महाजन कहते हैं कि सरकार को विजय माल्या जैसे एक और किस्से को होने से रोकना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘मॉनसैंटो को भारत नहीं छोड़ने देना चाहिए जब तक वह कंपनी के सताए किसानों को पूरी तरह से वित्तीय मुआवजा नहीं दे देती।’ संगठन के एक अनुमान के मुताबिक कंपनी ने किसानों से करीब 6000 करोड़ रुपयों की कमाई की है।
साभार- इकॉनामिक टाईम्स से