पंडित भगवती धर वाजपेयी का नाम आते ही एक ऐसे व्यक्ति की छवि मानस पटल पर उभर आती है जो पूरी तरह समाज के लिए समर्पित रहा। वीर प्रसूता राजस्थान के झालावाड़ में जन्मे वाजपेयी जी ने ग्वालियर और प्रयागराज में शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत लखनऊ में ‘दैनिक स्वदेश’ से पत्रकारिता का अपना सफर शुरू किया, जिसमें उन्हें पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी और नानाजी देशमुख जैसी महान विभूतियों के साथ काम करने का सौभाग्य मिला। आर्थिक कारणों से वह पत्र बंद हुआ तब अटल जी के साथ उन्होंने दिल्ली आकर ‘दैनिक वीर अर्जुन’ में कलम चलाई परंतु देवयोग से वह भी दम तोड़ बैठा। तदुपरांत अटल जी तो पूर्णकालिक राजनीतिज्ञ हो गए और भगवती धर जी ने राष्ट्रवादी पत्रकारिता को अपने जीवन का मिशन बनाते हुए नागपुर से प्रकाशित ‘दैनिक युगधर्म’ के संपादकीय दायित्व को संभाला।
नए मध्य प्रदेश की राजधानी जबलपुर में बनने की संभावना के बीच युग धर्म का प्रकाशन जबलपुर से भी प्रारंभ हुआ, जिसके संपादन हेतु वे जबलपुर आ गए और 1956 से यह नगर ही उनका स्थाई निवास बन गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से उनका जुड़ाव ग्वालियर में किशोरावस्था के दौरान ही हो चुका था, जहां वे और अटल जी एक साथ शाखा जाते रहे। प्रयागराज में उनका संपर्क प्रोफेसर रज्जू भैया से हुआ जो विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे। कालांतर में रज्जू भैया संघ के सरसंघचालक हुए। लखनऊ में पत्रकारिता के दौरान उन्हें दीनदयाल जी और नानाजी सदृश्य महापुरुषों का सान्निध्य मिला, जिसके कारण उनकी राष्ट्रवादी विचारधारा और सुदृढ हुई।
महाकौशल अंचल साठ के दशक में कांग्रेस और प्रजा समाजवादी पार्टी का गढ़ था। जबलपुर उनकी चेतना स्थली था। सेठ गोविंददास, पंडित द्वारका प्रसाद मिश्रा और पंडित भवानी प्रसाद मिश्रा जैसे दिग्गज यहां की पहचान थे। साहित्यकारों की तो यह कर्म भूमि ही रही। उस कालखंड में यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी विचारधारा के पोषक जनसंघ का जनाधार काफी कमजोर था, जिसे युगधर्म की निर्भीक पत्रकारिता ने मजबूत आधार प्रदान किया, जिसमें वाजपेई जी की संपादकीय प्रतिभा और वैचारिक प्रतिबद्धता का स्मरणीय योगदान था।
उन्होंने न केवल श्रेष्ठ पत्रकारों की एक श्रंखला तैयार की अपितु राष्ट्रवादी विचारधारा के नेतृत्व को गढ़ने में शिल्पी का काम किया। यही वजह रही कि 1962 का आम चुनाव आते-आते जनसंघ ने यहां प्रमुख विरोधी दल का स्थान अर्जित कर लिया। पार्टी के कहने पर उन्होंने 1967, 1970 (उपचुनाव) और 1972 में जबलपुर के उत्तर विधानसभा क्षेत्र से जनसंघ प्रत्याशी के रूप में साइकिल पर बिना संसाधनों के किराए के छोटे से मकान में रहते हुए भी चुनाव लड़कर नगर की राजनीति में पार्टी को जबरदस्त ताकत और पहचान दी। उन दिनों चुनाव हारने के लिए लड़े जाते थे। सत्ता की संभावना दूर-दूर तक नहीं थी और उम्मीदवार खोजना भी कठिन होता था।
राजनीतिक व्यस्तताओं के बाद भी पत्रकारिता के अपने मिशन में वे प्राणप्रण से जुटे रहे। यह कहना गलत नहीं होगा कि दैनिक युगधर्म एक जमाने में विपक्ष की राजनीतिक शरण स्थली के साथ ही प्रशिक्षण केंद्र भी रहा, जहां से वाजपेयी जी का मार्गदर्शन प्राप्त कर निकली युवा नेताओं की टीम प्रदेश और देश को नेतृत्व दे रही है। 1975 के आपातकाल में युगधर्म प्रतिबंधित हो गया। जबर्दस्त आर्थिक संकट खड़ा हुआ किंतु पंडित वाजपेयी ने तानाशाही के उस दौर में भी अपनी कलम को झुकने नहीं दिया। 1977 की जनता लहर दूसरी आजादी का सूर्योदय लेकर आई। देश में पहली मर्तबा सत्ता परिवर्तन हुआ और फिर बारी आई प्रदेशों की।
विधानसभा चुनाव जीतकर प्रदेश सरकार में मंत्री बनने का स्वर्णिम अवसर द्वार पर था परंतु सिद्धांतों की जीत में ही संतुष्ट हो जाने की प्रवृत्ति के कारण पंडित बाजपेयी ने पत्रकारिता रूपी कर्मभूमि में ही रहना पसंद किया। उन्हें दैनिक युगधर्म के जबलपुर, नागपुर और रायपुर संस्करण का प्रधान संपादक बनाया गया। नगर में स्थापित जबलपुर जिला पत्रकार संघ के अध्यक्ष भी वे रहे तथा बलदेवबाग स्थित पत्रकार संघ के भवन सहित रानीताल में पत्रकार कॉलोनी के निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
अविभाजित मध्यप्रदेश सहित विदर्भ क्षेत्र में उन्होंने दैनिक युगधर्म के माध्यम से राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रसार हेतु जो परिश्रम किया, वह अपने आप ने इतिहास है। उनका कृतित्व आज भी पेशेवर पत्रकारिता से हटकर किसी उद्देश्य के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ अर्पित करने का अनोखा उदाहरण है।
दैनिक युगधर्म की सेवा से निवृत्त होकर भी वे शांत नहीं बैठे। भारतीय जनता पार्टी के नगर अध्यक्ष का दायित्व उन्होंने तब ग्रहण किया जब उनके समकक्ष प्रांतीय और राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित थे। परंतु आदर्श कार्यकर्ता का भाव लिए उन्होंने उस जिम्मेदारी का जिस गरिमा के साथ निर्वहन किया, उसकी चर्चा हर कार्यकर्ता श्रद्धापूर्वक करता है।
संगठन के उच्च पद पर रहते हुए भी वे जड़ को मजबूत करना नहीं भूले। 85-86 साल की आयु तक अपने मतदान केंद्र में घर-घर जाकर मतदाता पर्ची बांटने का उनका कार्य साबित करता है कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय और नानाजी देशमुख से मिले संगठन के मंत्र को उन्होंने धर्म की तरह धारण किया।
अटल जी जब प्रधानमंत्री बने तब वे आसानी से अपने संबंधों का दोहन कर स्वयं को महिमामंडित कर सकते थे परंतु पद-प्रतिष्ठा उनका उद्देश्य नहीं था। अतः जो है और जैसा है, उसी में संतुष्ट रहकर उन्होंने सरलता और सादगी भरा जीवन जिया।
उनकी ईमानदारी, सबको साथ लेकर चलने की क्षमता, छोटे-छोटे व्यक्ति के कुशलक्षेम की चिंता जैसे गुणों के कारण ही पत्रकारिता और राजनीति के अलावा सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी प्रभावशाली उपस्थिति रही।
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय की कुल संसद, विद्वत परिषद एवं कार्यपरिषद के वे वर्षों तक सदस्य रहे। विश्वविद्यालय की राजनीति में राष्ट्रवादी खेमे के वे निर्विवाद नेता थे। सहकारिता में के क्षेत्र में भी उनका योगदान उल्लेखनीय था। जबलपुर नागरिक सहकारी बैंक के भी अध्यक्ष भी वे बने। व्यापार-उद्योग से कोई वास्ता न होने पर भी महाकौशल चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ने उन्हें अपना अध्यक्ष सर्वसम्मति से बनाया। संस्कारधानी की सभी प्रमुख साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक गतिविधियों को उनका संरक्षण एवं सहयोग मिलता रहा।
‘गाय का अर्थशास्त्र’ और तुलसीकृत रामायण की चौपाइयों में छिपे सूत्रों पर उनका शोध परक अध्ययन रहा। विचारधारा के प्रति उनकी चिंता हर मिलने-जुलने वाले से व्यक्त करना नहीं भूलते। भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा थी, जिसके कारण ही पूरा जीवन उन्होंने त्याग तपस्या के साथ व्यतीत किया।
एक साधारण से परिवार से निकलकर अपार ख्याति अर्जित करने के बाद भी उन्होंने भले ही आर्थिक संपन्नता प्राप्त नहीं की परंतु अपने व्यक्तित्व और असाधारण कृतित्व से दलीय सीमाओं से ऊपर उठकर जो सम्मान और स्नेह कमाया, वह अच्छे-अच्छे धनकुबेरों के लिए भी ईर्ष्या का कारण बन सकता है। अपने परिवार को भी उन्होंने श्रेष्ठ संस्कार दिए।
काजल की कोठरी से कैसे बेदाग निकला जाता है, इसका जीता-जागता उदाहरण थे पंडित भगवती धर वाजपेयी। उनका निर्विवाद और निष्कलंक जीवन किसी पार्टी या संस्था के लिए नहीं अपितु पूरे समाज के लिए अनुकरणीय है।
(लेखक केंद्रीय पर्यटन विकास मंत्री हैं)
‘दीप निष्ठा का लिए निष्कंप’ ही उनके जीवन का सूत्र
– प्रशांत पोल, (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं। जबलपुर निवास है।)
श्रद्धेय पंडित भगवतीधर बाजपेयी जी हमारे बीच नहीं रहे। उनका जाना, यानी एक मूल्याधारित युग का अस्त है। वे पत्रकार थे। संस्कारक्षम, आदर्शवादी, प्रामाणिक और राष्ट्रीय विचारों की पत्रकारिता के वे मूर्धन्य हस्ताक्षर थे। किन्तु वे मात्र पत्रकार नहीं थे। वे तो इस संस्कारधानी के चलते-फिरते इतिहास थे। वे अपने आप मे एक संपूर्ण ज्ञानकोश थे।
संगठन के आदेश पर उन्होंने तब विधानसभा / लोकसभा के चुनाव लड़े, जब पराभव ही प्रारब्ध था। फिर भी उन्होने संघर्ष किया। उस जमाने के प्रवाह के विपरीत उनकी यात्रा थी। किन्तु ‘दीप निष्ठा का लिए निष्कंप…’ यह उनके जीवन का सूत्र था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आए तीनों प्रतिबंधों (वर्ष 1948, 1975 और 1992) मे कारागृह की यात्रा करने वाले वे बिरले लोगों मे से थे। साहित्य, पत्रकारिता, राजनीति, सांस्कृतिक जगत, चेंबर ऑफ कॉमर्स, सभी जगह उनका स्थान था, सम्मान था। उनका जाना यह मात्र विचार परिवार के लिए ही नहीं, मात्र संस्कारधानी के लिए ही नहीं, वरन समूचे प्रदेश के लिए एक बड़ी क्षति हैं।
‘राष्ट्रीय भावधारा को समर्पित था उनका जीवन’
– प्रो. संजय द्विवेदी (महानिदेशक, भारतीय जनसंचार संस्थान, नईदिल्ली)
युगधर्म (नागपुर-जबलपुर) के संपादक के रूप में उनकी पत्रकारिता ने राष्ट्रीय चेतना का विस्तार किया। वे सिर्फ एक पत्रकार ही नहीं, मूल्यआधारित पत्रकारिता और भारतीयता के प्रतीक पुरुष थे। उनका समूचा जीवन इस देश की महान संस्कृति के प्रचार-प्रसार में समर्पित रहा। 1957 में नागपुर में युगधर्म के संपादक के रूप में कार्यभार ग्रहण करने के बाद उन्होंने 1990 तक सक्रिय पत्रकारिता करते हुए युवा पत्रकारों की एक पूरी पौध तैयार की। उनकी समूची पत्रकारिता में मूल्यनिष्ठा, भारतीयता, संस्कृति के प्रति अनुराग और देशवासियों को सामाजिक और आर्थिक न्याय दिलाने की भावना दिखती है। 1952 में स्वदेश के माध्यम से अपनी पत्रकारिता का प्रारंभ करने वाले श्री वाजपेयी का निधन एक ऐसा शून्य रच रहा है, जिसे भर पाना कठिन है। 2006 में उन्हें मध्यप्रदेश शासन द्वारा माणिकचन्द्र वाजपेयी राष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी एक विचार के लिए लगा दी और संघर्षपूर्ण जीवन जीते हुए भी घुटने नहीं टेके। आपातकाल में न सिर्फ उनके अखबार पर ताला डाल दिया गया, वरन उन्हें जेल भी भेजा गया। इसके बाद भी न तो झुके, न ही डिगे।
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