Monday, November 25, 2024
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पापा पुलिस में थे और पुस्तकों को गहनों की तरह सम्हालकर रखते थे

(सुप्रसिद्ध लेखिका इंदिरा दांगी की सोनम तोमर से बातचीत)

1. कागज पर लिखे गये एक टुकड़े में ऐसा क्या होता है कि कभी हम उसे कथा कह देते हैं कभी कविता तो कभी निबंध ?

उत्तर : जीवन होता है उसमें ; जीवन का भी उठा हुआ रूप जिसे क्वालिटी ऑ़फ लाइफ कहते हैं ; साहित्य जीवन का वो चेहरा है जो आपको याद रह जाता है । मेरी एक यूरोपियन दोस्त के पिता जब नहीं रहे पिछले दिनों तो उसने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए उनकी पसंदीदा कविता अपनी सोशल मीडिया पर पोस्ट की। एक व्यक्ति को उसकी पसंदीदा कविता में याद करना तो क्यों करना ? क्या होता है उस कविता या कहानी में ऐसा जो पढ़ने वाले की पहचान बन जाता है ? क्या है साहित्य में ऐसा जो सह्रदय के भीतर उतर जाता है ? वास्तव में, रचना में आप जो पाना चाहेंगे, वही मिलेगा आपको। जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी । विधा कोई भी हो, मैं पढ़ने के लिये उसमें सबसे पहले चाहती हूँ –कथा रस ; फिर जीवनबोध फिर सत्य का कल्पना में विस्तार। जो ख़ुद को पढ़वा ही न सके, वो साहित्य कैसा ? साहित्य का रस, मूल्य और बोध ही वो शक्ति है जो उसे कालजयी बनाती है।

2. जिसे हम कथा का शिल्प या संरचना कहते हैं,आपकी दृष्टि में उसकी मूल पहचान क्या है ?

उत्तर : आपने जो प्रश्न किया है वो वही बात है जो एक लम्बे समय से मेरे लिये सोच और शोध का विषय रही है। शिल्प और संरचना की कसौटी ही वो मानक है जिसके आधार पर हिंदी कहानी को सन् 1900 से आरम्भ माना जाता रहा है। शिल्प माने पश्चिम का शिल्प। अब अगर पश्चिम का एक शिल्प है तो एक शिल्प पूरब का भी होगा ही ! पर उस पर कभी बात ही नहीं की गयी। हिंदी साहित्य के इतिहास में मुझे यह एक बहुत बड़ी दुरभिसंधि मालूम पड़ती है कि जानबूझकर हमें हमारी परंपरा से काट दिया गया और हिंदी साहित्य के विद्यार्थी अपनी कक्षाओं में पीढ़ी दर पीढ़ी रटते आ रहे हैं कि हिंदी कहानी बंगाली वाया अंग्रेज़ी हम तक आई। विश्व की सबसे पुरानी जीवित सभ्यता हम हैं; दुनिया की सबसे पुरानी किताब हमने दी तब कहिये ये कैसे संभव हो सकता है कि कहानी हमारे पास हो ही नहीं ?

शिल्प के सामने शिल्प को, प्रारूप के सामने प्रारूप को रखकर बात कीजिये। शिक्षा को जीवन से दूर मत कीजिये। अफसोस कि वे कथाएँ जो सदियों से लोक के, जीवन के होठों पर हैं, वे सिलेबस में नहीं हैं। गुणढय की वृहत्कथा जिसमें समुद्री यात्रा, पर्वत, वन, नगर की कथाएँ हैं; वे कथाएँ जो प्रेम, पराक्रम, वैराग्य , न्याय की कथाएँ हैं उन पर बात क्यों नहीं की जाती साहित्य के इतिहास में ? जातक कथाएँ जो कि बुद्ध के पिछले जन्म की कथाएँ हैं ; बोधिसत्त्व की कथाएँ हैं । ये लगभग 3000 कहानियाँ होंगी। पंचतंत्र की कहानियाँ ले लीजिये। यूरोप में 11वीं शताब्दी में ही हमारा पंचतंत्र ‘द फेबल्स ऑ़फ बिदपाई’ नाम से पहुँच गया था। कहने का मकसद है कि हमारी वे साहित्यिक कृतियाँ जो विश्वविख्यात हैं, जिनकी नकल पर अरब और यूरोप में कहानियाँ रची गयीं; ऐसे महान साहित्य को, हमारी कहानियाँ पंचतंत्र, बेताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी, जातक कथाएँ आदि को ऐसे कैसे खारिज़ किया जा सकता है ? ‘फेबल’ या ‘डोग्मा’ मत कहिये। शिल्प के सामने शिल्प को रखकर बात कीजिये। तब मुझे लगता है कि हम जान पायेंगे कि हिंदी साहित्य का इतिहास तो वास्तव में अभी तक लिखा ही नहीं गया है।

3. कहानी और उपन्यास के शिल्प में आप कोई भिन्नता देखती हैं ?

उत्तर : अंतर शिल्प का भी है और लेखक के मानस, मनस्थिति का भी है। कहानी लिखते समय हम जीवन का एक पल उठाते हैं, या एक घटना या एक चरित्र और उस को लिख देते हैं। रोशनी सिर्फ एक हिस्से पर पड़ने वाली बात है जबकि उपन्यास एक बड़ा कैनवास होता है; उसमें लेखक पंजे खोलकर लिखता है। मुख्य कथा से भटक कर कुछ थोड़ा इधर-उधर परिकथाओं में भी निकल सकता है; अपने विचारों, अपनी विचारधारा को स्थापित करने के लिये उसके पास बहुत समय होता है। वास्तव में, उपन्यास जीवन दॄष्टि का निर्माण करता है। छवियों को स्थापित करना यहाँ संभव है। लेखक जो चरित्र रचता है उसके पीछे वो अपनी सोच स्थापित करता जाता है। जैसे मैं अपने ही उपन्यास पर बात करूँ तो ‘विपश्यना‘ की उपन्यासकार की जो जीवन दॄष्टि है, जीवन बोध है वही साहित्य बोध पात्रों की बुनावट में आया है। चेतना का ही पात्र अगर हम लें तो कहूंगी कि उसकी सिस्टम और समाज में वापसी एक आवश्यकता थी न सिर्फ उपन्यास की बल्कि आज के जीवन की भी; और उससे भी ज़्यादा ज़रूरी कि वो अपनेआप से मिले, अपने जीवन का कोई मकसद पाये। एक स्यूडो स्त्री-विमर्श ने हिंदी-साहित्य का लंबे समय तक नुकसान किया है।

अराजक स्त्री, धर्म की विरोधी स्त्री, परिवार और समाज की विरोधी स्त्री, परपुरुषों के साथ अवैध संबंधों को ही असली स्वतंत्रता का नाम देने वाली स्त्री कुल मिलाकर एक आत्महंता स्त्री (जिसके जीवन में कुछ उल्लेखनीय नहीं सिवाय अवैध, अतृप्त प्रेम के) को ही यहाँ साहित्य की मुख्य धारा में आधुनिक नायिका माना जाता रहा है। लेखक और लेखिकाएँ एक बद्ध फार्मूले पर लिखते रहे हैं कि असंतुष्ट विवाहित स्त्री परपुरुष से अवैध संबन्ध बनाती है और फिर बड़े ही सुभीते से (अपने अवैध संबन्ध छुपाकर) अपने सुखी वैवाहिक जीवन में लौट आती है। लेखकों ने स्त्री–विमर्श को अमीर, विवाहित स्त्रियों के लम्बे सेक्स-सीन में बदल दिया तो स्त्री विमर्श के बारे में एक बड़ी ही नकारात्मक राय बनी समाज की कि ये तो खाई-अघाई औरतों का कैफिटेरियाई विमर्श है।

जहाँ तक शिल्प का सवाल है; उपन्यास और कहानी दोनों की भाषा में अंतर होता है। बहुत बारीक लेकिन एक स्पष्ट अंतर जिसे दोनों को लिख चुके लेखक ही महसूस कर सकते हैं। संस्कृत के आचार्य एक श्लोक में कहते हैं कि यदि कवि ने ( क्योंकि तब कवि ही थे, लेखक नहीं) आधी मात्रा भी बचा ली लिखते समय, तो आकाश से देवता फूल बरसाते हैं ; कहने का आशय है कि रचना में वाक्य-स्फीति, शब्द–स्फीति से बचना चाहिये तो कहानी में इसका बहुत ध्यान रखती हूँ। उपन्यास का शिल्प अलग होता है; वहाँ मकसद पात्र को स्थापित करना होता है तब अपनी अंटी में से कुछ अतिरिक्त शब्द भी ख़र्च करने पड़ते हैं।

4. हिंदी कथा की परम्परा में ऐसे कौन से पड़ाव हैं, जिन्हें आप परिवर्तन और विकास का प्रस्थान बिंदु मानती हैं ?

उत्तर : अनेक हैं। जब–जब ट्रेंड सेटर लेखक आते हैं तो परंपरा नई हो जाती है; साहित्य की दशा और दिशा बदल जाया करती है। गुणढय की वृहत्कथा में समुद्री व्यापारियों, राजपुरुषों और राजकुमारियों की बहादुरी की अद्भुत कथाएँ हैं। वृहत्कथा का प्रभाव आगे दण्डी, बाणभट्ट आदि पर हुआ; तो सबसे पहला विकास का प्रस्थान बिंदु तो मैं वृहत्कथा को मानती हूँ। आगे पूरी साहित्य परंपरा पर बात करने से पहले मैं भाषा पर बात करना चाहूंगी। हर देश की एक राष्ट्रभाषा होती है, हमारी भी है; विडंबना बस इतनी-सी है कि जैसे फ्रांस की राष्ट्रभाषा का एक ही नाम है –फ्रेंच या कि जर्मनी की राष्ट्रभाषा का नाम जर्मन है, इस तरह भारत की राष्ट्रभाषा का कोई एक नाम नहीं रहा बल्कि हर युग में नया नामकरण हुआ। पहले प्राचीन संस्कृत फिर लौकिक संस्कृत फिर पालि, प्राकृत, अपभ्रंस और उसके बाद पुरानी हिंदी, नई हिंदी; तो ये सब मिलकर एक परंपरा बनाती हैं। इस पूरी परंपरा और इसके पूरे साहित्य पर बात करनी होगी क्योंकि ये किसी दूसरे ग्रह की किताबें तो हैं नहीं; और इन्हीं से वो परंपरा बनी है जिसके नये लेखक हम और आप हैं। कथा-परंपरा में विकास का अगला प्रस्थान बिंदु पंचतंत्र को मानती हूँ। पूरे विश्व साहित्य पर हमारे पंचतंत्र का प्रभाव पड़ा। पश्चिम के कार्टून से लेकर किताबों तक को उठा लीजिये जिनमें जानवर मनुष्यों की तरह बोलते हैं और वे सीख देने वाली कहानियाँ या उपन्यास हैं; तो इस तरह पंचतंत्र को सामने रखकर तो विश्व साहित्य की ही एक धारा पर बात की जा सकती है। जार्ज आरवेल का उपन्यास एनिमल फार्म भी तब इसी परंपरा में आयेगा।

जातक कथाएँ भी हैं। पालि और प्राकृत में कितना कुछ है जिसपर विस्तार से बात की जा सकती है। अपभ्रंस में भी है। आपका जो सवाल है वो मेरे ख्याल से इस विराट परंपरा के नवीनतम हिस्से से जुड़ा है अर्थात नई–पुरानी हिंदी से। देखिये, परीक्षा गुरु के पास भले ही हिंदी का पहला उपन्यास होने का तमगा हो लेकिन वो उपन्यास मुझे तो अपील नहीं करता है। उस समय की रचनाओं में चंद्रकांता ज़रूर एक अद्भुत रचना थी; और कहानियों में ‘उसने कहा था’ को ले सकते हैं। आगे प्रेमचन्द के नाम पर तो पूरा एक युग है ही लेकिन उससे पहले मैं बंग महिला की कहानियाँ पढ़ने की सिफारिश करूँगी। चाहे शिल्प का स्तर हो या कथ्य का, उनकी कहानियों के सामने उस समय की कहानियाँ टिकती नहीं हैं। वगैर स्त्री–विमर्श वाले टुल्स एंड ट्रिक्स प्रयोग किये वे एक ग़ज़ब की कहानीकार थीं | प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ ने भी एक दिशा दी आगे के लेखकों को | रेणु ट्रेंड सेटर लेखक थे जिन्होंने आंचलिकता को मुख्य धारा में नया महत्व दिलवाया। आगे देखती हूँ तो अज्ञेय, निर्मल वर्मा दिखाई देते हैं नये मोड़ों पर खड़े हुए। ज्ञानरंजन के पास एक अलग भाषा थी। और एक आख़िरी नाम उदय प्रकाश का ले सकते हैं बावजूद इसके कि उनकी कहानियों पर तमाम आरोप हैं। स्त्री लेखन में मैत्रेयी पुष्पा हैं जो सबसे अलग दिखती हैं। इन लेखकों के आगे के नाम अभी नहीं लूंगी; अपना भी नहीं क्योंकि कहावत है कि लेखक का जन्म उसकी मृत्यु के बाद होता है। तो अभी तो लिख रहे हैं; समय लिखेगा कि हम उल्लेखनीय थे कि नहीं।

5. कथा लेखन की वर्तमान दुनिया में, यथार्थ सृजन के प्रसंग में कथा के शिल्प और भाषा के समक्ष कई चुनौतियाँ विद्यमान हैं। पुराने फार्मूले जड़ हो चुके हैं। इन चुनौतियों का संज्ञान आप किन रूपों में लेती हैं ?

उत्तर : कहते हैं कि साहित्य में जो नया आता है वो है प्रतिभा यानि क्राफ्ट। जिन विषयों पर नया लेखक लिखता है उन पर पहले भी और आगे भी लेखक लिखते रहेंगे। तब नयापन क्या है ? नयापन है उस भाषा का, कथा को बरतने के ढंग का जो लेखक अपने साथ लेकर आया है। हर काल का यथार्थ नया होता है, चुनौतियाँ अलग होती हैं तो लेखक भी तो नया होता है। है तो वो उसी समय से गढ़ा हुआ न; तब उसे अपने समय को, अपने साहित्य को बरतने के लिये अपने औज़ार ख़ुद बनाने होंगे। लेकिन इसका यह तात्पर्य कतई नहीं है कि हम अपनी परंपरा से कुछ लें ही नहीं। जिस दरख़्त के हम नये पत्ते हैं, उसको तो हमें जानना ही होगा। जो कहा जा चुका है, वो किस तरह कहा गया है, ये तो जानना-सीखना ही पड़ता है। जब साहित्य में कोई नया लिखने वाला आता है तो आचार्यगण उसे सलाह देते हैं कि क्लासिक को नोट्स बनाकर पढ़ो। इसी को दूसरी तरह कहते हैं कि एक होता है पाठक का पाठ और दूसरा होता है लेखक का पाठ। एक तो पूरी परंपरा को पढ़ना और जो पसंद आयें पंक्तियाँ, उन्हें पेंसिल से रफ कागज पर लिखते जाना; यही लेखक का पाठ होता है। इससे ये होता है कि आपको वे पंक्तियां अपने अवचेतन में याद हो जाती हैं, आप उस शिल्प को सीख जाते हैं। नया कुछ बनाने के लिये पुराने को जानना ज़रूरी है। मेरा पहला उपन्यास था हवेली सनातनपुर और दूसरा था रपटीले राजपथ। दोनों के शिल्प में अंतर है। मुझे लगता है कि रचना अपना शिल्प अपने साथ लेकर आती है। ‘विपश्यना’ उपन्यास में चैप्टर्स हैं, ये तो बहुत पुराना ढंग है उपन्यास रचने का, लेकिन इसी में, मुझे लगा इस उपन्यास को लिखना चाहिये। लेकिन आगे जो उपन्यास मेरे ज़हन में है, हो सकता है उसको मैं इस शैली में न लिखकर किसी और शिल्प की खोज में निकल जाऊँ। कहने का आशय है कि रचना अपने साथ अपना सबकुछ लेकर आती है, शिल्प और भाषा भी, लेकिन इसके लिये पहले यह नितांत आवश्यक है कि लेखक ने विश्व साहित्य और अपनी भाषा के साहित्य को गुना हो, घोटा हो। मैंने शब्दकोश याद किया था एक बार, नोट्स बनाकर। व्याकरण की बारीकियां याद की थीं। और शब्दकोश तो मैं अभी भी खोलकर बैठ जाती हूँ जब कोई किताब पढ़ने का मन नहीं होता तब। एक बात और, अख़बार भी पढ़ने चाहिये; कई एक अख़बार हर दिन। लोगों की भाषा को, वार्तालाप को सुनना चाहिये। सड़क पर लोग किस तरह बात करते हैं, स्कूल में, बस में, भीड़ में, पुलिस से, बच्चों से और भिखारियों से। इससे लेखक की भाषा बनती हैं, शिल्प बनता है। परंपरा का लेकिन सदैव वो महत्व है जो घर में बुजुर्गों का होता है। बुजुर्गों का आशीर्वाद लेकर, अपने पथ पर निकल जाना चाहिये लेखक को।

6. हिंदी कथा जगत में कई परम्पराएँ विद्यमान है जैसे प्रेमचंद की परम्परा या जेनेन्द्र की या अज्ञेय की, आप अपने कथा लेखन में इनमे से किस परम्परा के नजदीक पाती हैं और क्यों ?

उत्तर : किसी न किसी को तो हम पसंद करते ही हैं। परंपरा में भी हम अपनेआप को उसी के निकट पाते हैं जो हमें अपना समधर्मा लगता है। लेकिन इसमें एक बात जोड़ना चाहूंगी कि साहित्य में हमें वो भी पढ़ना चाहिये, जो हमें पसंद न भी हो, लेकिन उसका दर्ज़ा हो कुछ परंपरा में। इसी से एक लेखक की दॄष्टि का निर्माण होता है। और वे विचारधाराऐं जो हमारी सोच से इतर हैं, उनकी श्रेष्ट कृतियों को भी हमें खरीदना चाहिये और पढ़ना चाहिये। वे जो महान लेखक हैं उनकी प्रसिद्ध कृतियों के अलावा उनकी आरंभिक कृतियाँ भी पढ़नी चाहिये। इससे हमें एक राइटर की मेकिंग समझ में आती है। और बहुत बार, या कहूंगी कि हमेशा ही ऐसा होता है कि जब हम बहुत सारे महान लेखकों के सृजन से परिचित हो जाते हैं तो आख़िर में, हम अपने क्राफ्ट से भी परिचित हो जाते हैं। वास्तव में, लेखन स्वयम्‌ से विश्व की ओर यात्रा है जो अंत में स्वयम्‌ पर आकर ही समाप्त होती है। तो इसमें विश्व को जानना स्वयम्‌ को जानना भी हुआ न !

जहाँ इन तीन महान लेखकों के आपने नाम लिये, प्रेमचन्द, जैनेंद्र और अज्ञेय तो कहूंगी कि तीनों को ही पढ़ा जाना चाहिये, पढ़े हुए को गुना जाना चाहिये; और इन्हें ही क्या विश्व के महान लेखकों को पढ़ना चाहिये। इस सब के साथ जब अपने क्राफ्ट को सोचें, तो यही सोचना चाहिये कि हम अपने में वो योग्यता ला सकें कि इनकी तरह साहित्य को कुछ नया दे सकें। हरेक लेखक तो ट्रेंड सेटर नहीं हो सकता; हाँ, लेकिन हरेक के पास कुछ ऐसा ज़रूर होता है जो दूसरे लेखकों के पास नहीं होता है। अपनी उसी योग्यता पर मेहनत करनी चाहिये और चुपचाप लिखते रहना चाहिये। किसी परंपरा का लेखक हो जाना सरल है; लेखन के नये रास्ते खोजना कठिन। तो मुझे इन दोनों में से दूसरे पथ का राही मान कर चाहिये जो अपने ही क्राफ्ट को खोजने निकला हुआ है अभी तो।

7. निर्मल वर्मा ने विशेषकर हिंदी उपन्यास परम्परा के उपर यह प्रश्न खड़ा किया है कि उसकी शैल्पिक जमीन पश्चिमी है तथा कथा का भारतीय रूप या स्वत्व हम अभी तक नही पा सके हैं, इस सवाल को आप कैसे देखती हैं?

उत्तर : यही बात मैंने आपके एक पिछले प्रश्न के उत्तर में कही है कि हिंदी साहित्य के इतिहास को एक विराट दुरभिसंधि के तहत लिखा गया है। हमारी प्रारंभिक कहानियाँ ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ या ‘एक टोकरी भर मिट्‍टी’ या ‘इन्दुमति’ नहीं हैं। हाँ, ये कहानियाँ पश्चिम की तर्ज़ पर कहानी लिखना सीख रहे लेखकों की प्रारंभिक कहानियाँ कही जा सकती हैं। जब तक हम अपनी पाँच हज़ार साल पुरानी कथा परंपरा को स्वीकार नहीं करेंगे; हम कथा का भारतीय रूप कैसे पायेंगे ? कमाल बात लगती है मुझे ये कि वो पंचतंत्र जिसको पढ़कर पूरे विश्व साहित्य में जानवरों के इंसानी ढंग पर कहानियाँ रची गयीं, या वो जातक कथाएँ, वो सिंहासन बत्तीसी, वो वृहत्कथा जिसकी परंपरा में आगे कालजयी कृतियाँ लिखी गयीं; सबकुछ को खारिज़ करके हमारे तथाकथित प्रगतिशील आलोचको ने हिंदी को क्या दिया ?

रूसी साहित्य पर अश-अश करने से हिंदी साहित्य का क्या भला हुआ ? कितना नुकसान हुआ है हिंदी साहित्य का ऐसे पाठ्यक्रमों से जो वस्तव में झूठ का पुलिंदा हैं कि हमने पश्चिम से कहानी कहना सीखा ! आयातित शैल्पिक ज़मीन पर कोई महान कृति कैसे जन्म ले सकती है ? अफसोस कि विश्वविद्यालयों की मोटी नौकरियों में अपना व्यक्तिगत करियर चमकाने के लिये, पुरस्कार और पद हड़पने के लिये, अपने को और अपने भाई-भतीजों को मुनाफा पहुँचाने के लिये तथाकथित प्रगतिशील आलोचकों ने और लेखकों ने हिंदी साहित्य के इतिहास की गलत व्याख्या की।

8. आपकी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत कब और कैसे हुई?

उत्तर : ठीक–ठीक याद करूँ तो जब से मैं संज्ञान हूँ, या और सटीक कहूँ तो जब से मैं हूँ, अपने होने में लेखक ही हूँ। जब लिखना-पढ़ना नहीं सीखा था, तब की उम्र को याद करती हूँ तो भी यही याद आता है कि चीज़ों को, जगहों को, लोगों को गौ़र से देखा करती थी और सोचा करती थी। या नहीं भी सोचा करती थी तब बस देखा करती थी, शायद 6-7 बरस की रही होऊंगी मैं; यही सब कि लौहपीटों के बच्चों के पैरों में चप्पल नहीं हैं, मेरे पैरों में है या कि कितनी बहुत गर्मी है और मज़दूर धूप में काम कर रहे हैं या कि किस तरह उस मुर्गे को काटा गया था जो अब रात के भोजन में मेरी कटोरी में है। आगे, जब पढ़ना सीखा तो समझिये, पूरी दुनिया को पढ़ डालना चाहती थी । पापा पुलिस इंस्पेक्टर थे ; दूर-दराज ग्रामीण या आदिवासी इलाकों में ही उनकी लगभग पूरी नौकरी रही।

अब पलटकर अवलोकन करती हूँ तो जानती हूँ कि पुलिस विभाग में कुछेक लोग राजधानी या बड़े शहरों में ही अपनी नौकरी ऑफिस और सरकारी आवास के सुख में काट देते हैं; तो फिर उनके बदले में कुछ पुलिस वालों को हमेशा फील्ड में रहना पड़ता है। मेरे पापा ने भी अपनी नौकरी चम्बल के बीहड़ों या दूर दराज आदिवासी अंचलों में की। कहीं इतनी ख़तरनाक जगहें थीं कि पूरा थाना स्टाफ अपने परिवारों के साथ थाने के अंदरूनी हिस्से में बने आवासों में रहता था। स्कूल लेने-छोड़ने भी एक सिपाही साथ होता था। कभी ऐसा दूर दराज थाना कि प्रायमरी स्कूल भी मुश्किल से मिलता था। कहीं ऐसी दुर्गम, सूनी जगहें कि जहाँ सुबह का अखबार भी दोपहर तीन बजे के बाद पहुँच पाता था। और सब जगहों पर परिवार पापा के साथ रहा। हमने उन्हें बाढ़ में लोगों की जाने बचाते देखा, डाकुओं की लाशें लाते हुए और गुंडों को गिरफ्तार करने में गुत्थमगुत्था के बाद लहूलुहान हाल में भी। ऐसी सब जगहों और माहौल में जाहिर है कि स्कूल कम-कम था लेकिन किताबें ज़्यादा-ज़्यादा थीं ।

मेरे पापा के पास एक हाल भर के किताबें थीं। वे जहाँ भी जाते थे किताबें खोजते- खरीदते फिरते। उनसे मैंने सीखा, किताबों को ज़ेवरो की तरह रखना। धर्म, दर्शन, विज्ञान, साहित्य, विधि -सबकुछ को जानने की कुंजियों जैसी किताबें ! घर में शायद आधा दर्ज़न पत्रिकाएँ आती थीं और तीन-चार समाचार पत्र। आज भी मेरी आदत है कि 2-3 समाचार पत्र पढ़े बिना मेरी सुबह नहीं होती। तो वैसे माहौल में, मेरी परवरिश हुई जहाँ खूब पढ़ा, स्कूल से ज़्यादा स्कूल के बाहर। फिर जल्दी शादी हो गयी और संयुक्त परिवार में आ गयी, जहाँ रसोई और घरेलू काम ही जीवन था। तब भी मैंने 2 -3 पुस्तकालयों की सदस्यता ले ली थी जहाँ से खूब सारी किताबें लाती थी पढ़ने को। कई बार तो बाथरूम में बैठकर पढ़ती थी आधी-आधी रातों तक क्योंकि एकांत कहीं और होता नहीं था। लिखती भी थी लेकिन कहीं भेजती नहीं थी। वे बरस बस इतना याद है कि तब हजारों किताबें पढ़ डाली होंगी लेकिन आज जो लेखिका आपके सामने बैठी है ये होना तब न सोचा था, न चाहा था। ये रोशनी मुझे मेरी उस बेटी ने दी, जो नहीं रही। उसकी मौत के बाद जब मैं जीवन में लौटी तो मैंने जाना कि अगर मैं इस दुनिया में रह गयी हूँ उसके जाने के बाद भी, तो लिखने के लिये रह गयी हूँ। तब मैंने लेखक बनना चाहा।

9. आपके नाटक के देश और विदेश में काफी मंचन होते हैं। आपको कैसा लगता है? क्या नाटक आपकी पसंदीदा विधा है?

उत्तर : रचना जब आती है अपनी विधा, प्रारूप, शिल्प, भाषा सब साथ लेकर आती है। जैसे ‘विपश्यना’ उपन्यास के तौर पर ही आया था और ‘राजकुमार पिथौरा’ नाटक के तौर पर ही। लेखक को तो अपनी सभी रचनाएँ और उनकी विधाएँ प्रिय लगती हैं क्योंकि जब हम जो लिख रहे होते हैं वो हमारा सर्वश्रेष्ठ होता है। नाटक से नाता यों है कि आकाशवाणी के लिये मैंने 15 बरसों तक रेडियो रूपक लिखे हैं। एक धारावाहिक भी लिखा बरसों तक। ये उन दिनों की बात है जब नहीं सोचा था कि लेखक हूँ या कि बनूँ ! बस, थोड़े से पैसे कमाने के लिये स्क्रिप्ट राइटिंग किया करती थी गोकि मेरे लिखे रेडियो नाटक बहुत पसंद किये जाते थे। ‘आचार्य’ वो पहला नाटक था जो किताब के तौर पर आया फिर ‘रानी कमलापति’ प्रकाशित हुआ फिर दो नाटक एक संग्रह में – ‘ राजकुमार पिथौरा और नर्तकी’। इन नाटकों को बस इसलिये लिखा क्योंकि ये इसी रूप-रंग-रस-गंध में आये थे। जब उपन्यास लिखती हूँ तो ख़ुद ‘उपन्यास- उपन्यास’ हो जाती हूँ, कहानी लिखती हूँ तो कहानी बन जाती हूँ, नाटक रचती हूँ तो उसी में आत्मा बसती है मेरी। इस तरह सब विधाएँ जो लिखी हैं, वे पसंद हैं तभी न लिखी हैं ! हाँ, लेकिन नाटक में पैसा और चर्चा दोनों अधिक मिलते हैं, बस इतनी-सी बात है।

10. युवा पीढ़ी को किन-किन नाटककारों को पढ़ना चाहिए आपके कुछ सुझाव?

सबकुछ जो परंपरा है, पहले तो उसको समझिये कि एकदम ऐसे पढ़ डालना चाहिये जैसे सिलेबस पढ़ रहे हों। विश्व साहित्य में क्लासिक माने जाने वाली रचनाओं को ज़रूर ही पढ़ना चाहिये। शेक्सपीयर को पढ़ें तो चेखोव को भी पढ़ें, कालिदास को भी पढ़ें। शिल्प, भाषा, कथ्य को गुनें कि इन नाटककारों ने कैसे बरता है कथ्य को । नाटकों के अलावा नाटकों पर लिखी गयी पुस्तकें भी पढ़ें।

भरत मुनि का नाटयशास्त्र पढ़ें। आजकल मैं भारत की लोक नाट्य परंपरा को खोज- खोज कर पढ़ रही हूँ, नोट्स बना रही हूँ कि असम का लोक नाटक क्या है, केरल का लोक नाटक क्या है ? संस्कृत, पालि और प्राकृत की नाटक परंपरा क्या रही है ? ये सब मैं अपने आप को पढ़ाना चाहती हूँ । एक और बात बहुत ज़रूरी, भाषा का बहुत महत्व होता है नाटक में, यों तो पूरे साहित्य में और जीवन में भी भाषा का ही तो खेल है सबकुछ ! तो नाटककार को ये भी करना चाहिये कि जीवन में किस वर्ग के लोग किस तरह बोलते हैं, उसका अनुभव और अध्ययन उसको होना चाहिये । एक भुट्टेवाले और एक डॉक्टर की भाषा एकदम अलग होगी एक-दूसरे से; नाटककार को दोनों की भाषा और देह भाषा की भी समझ होनी चाहिये । व्याकरण, शब्द्कोश, मुहावरे- लोकोक्तियाँ ये सब उसके वश में होना चाहिये। और आख़िरी बात ये कि सारी किताबों को एक ओर रखकर कभी लोकजीवन में भी निकल जाना चाहिये भटकने के लिये,

धूप में निकलो, घटाओ में नहाकर देखो ।

ज़िंदगी क्या है किताबों को हटाकर देखो । ।

11. वर्तमान समय में स्त्री विमर्श का जो स्वरूप सामने दिखाई दे रहा है उसे आप किस रूप में देखती हैं?

उत्तर : स्यूडो स्त्री विमर्श ने बहुत नुकसान किया है। वास्तविक स्त्री विमर्श खाई-अघाई अमीर महिलाओं के कैफिटेरियाई विमर्श के तौर पर चर्चित हो गया, इससे बड़ा अहित हुआ। वास्तव में, हमारी महादेवी वर्मा विश्व स्त्री विमर्श की पुरोधाओं में से एक हैं। सिमोन द बोउवार से भी पहले महादेवी ने विश्व को स्त्री विमर्श की सबसे सशक्त पुस्तक ‘शृंखला की कड़ियाँ’ दी; लेकिन अफसोस कि उन्हीं के देश में आज स्त्री विमर्श पतनशील औरतों के सॉफ्ट-पोर्न किस्सों से ज़्यादा कुछ नहीं बचा जबकि इसी देश को आज सबसे अधिक आवश्यकता है स्त्री विमर्श की। जहाँ नन्हीं बच्चियों से बलात्कार और घरेलू हिंसा होती है।

पिता जाति में बेटी ब्याहता है तो उसे दहेज़ के लिये जला दिया जाता है और अगर लड़की जाति से बाहर शादी कर ले तो ऑनर किलिंग के नाम पर गोली खाती है। जिससे प्रेम विवाह करती है वो भी चरित्र पर संदेह के नाम पर हिंसा करता है। उच्च शिक्षित लड़कियाँ कुंवारी रह जाती हैं, नौकरी करती हुईं। तलाकशुदा स्त्रियों को समाज दोषी समझता है। खाने- रहने के सहारे के बदले हर तीसरे घर में स्त्री किसी न किसी तरह की मानसिक या शारीरिक हिंसा सह रही है। स्त्रियों के साथ हिंसा क बर्ताव पूरे विश्व में है, कहीं कम कहीं ज़्यादा। सब धर्मों, सब देशों की स्त्रियाँ पीड़ित हैं और कमाल है कि हिंदी के समकालीन लेखक-लेखिकाओं को इनकी चीत्कारें नहीं सुनाई देतीं। थोक के भाव से, लिव-इन का लुत्फ़ देती कहानियाँ या आर्गज़िम की तलाश में भटकतीं अमीर नायिकाएँ रची जा रही हैं तो देख कर दुख होता है। हिंदुस्तान की असली औरत की कहानी लिखने वाले कम हैं; लेकिन हैं ही नहीं ऐसा भी नहीं है ।

12. आपके रचना संसार के स्त्री पात्रों पर समकालीन विमर्शों का प्रभाव किन अर्थों में पड़ता है?

उत्तर : स्त्री पात्र ही क्यों, पुरुष पात्रों पर भी प्रभाव पड़ता है । ‘विपश्यना’ में चेतना यदि नये समय की स्त्री है तो ज्ञान नये समय का पुरुष है। स्त्री विमर्श की बात मात्र स्त्री के लिये क्यों हो, पुरुष के लिये भी हो न ! यदि हमें आज नई स्त्री की आवश्यकता है तो नये पुरुष की भी तो आवश्यकता है। स्त्री विमर्श की रचनाओं में, स्त्री को विद्रोहिणी और पुरुष को खलनायक दिखाना एक आम बात रही; और विद्रोहिणी नायिका की ओर रहे पुरुष पात्र भी बहुत लचर हुआ करते थे या हैं (आम तौर पर नायिका का प्रेमी जो उससे अवैध सम्बन्ध बनाता है, उसकी स्वतंत्रता की वकालत करता है लेकिन अपने सामाजिक जीवन में उसे स्वीकार नहीं करता) दरअसल पहले स्वयम्‌ लेखक को अपनी जीवन दॄष्टि और जीवन बोध को लोकोन्मुखी बनाना होगा। यदि लेखिका स्वयम्‌ अपने जीवन में अत्याचार को सह रही है, यदि लेखक स्वयम्‌ सुविधाजनक अवैध प्रेम य प्रेमों में पड़ा रहता है, तो मुझे बताइये कि ऐसे लेखक-लेखिकाएँ कैसे पात्रों का सृजन करेंगे ?

जो जीवन में सुविधाभोगी हैं, क्रांति उनसे रचना में भी न सम्भव होगी। लेखनी से आप वो नहीं लिख सकते जिस पर जीवन में विश्वास नहीं करते। नकली लोग असली सृजन नहीं कर सकते। उसके लिये तो पहले ख़ुद तपकर खरा होना होता है। जहाँ तक दलित विमर्श की बात है, मुझे लगता है यदि लेखक की सोच में लोकमंगल की अवधारणा स्पष्ट है तो अलग से इसपर बात करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि तमाम विमर्श अंतत: समाज के और अधिक मानवीय होने की ही बात करते हैं।

13. आप किन-किन स्त्री लेखिकाओं से प्रभावित रही हैं या हैं?

14. उत्तर : आपके प्रश्न में विस्तार की अनुमति चाहूंगी ; सिर्फ स्त्री लेखक नहीं बल्कि लेखको कि मेरी पीएचडी महादेवी वर्मा पर ही है लेकिन उसका कारण उनका स्त्री लेखक होना नहीं वरन विश्व की एक प्रमुख लेखक होना है। तब शायद मैं 7 बरस की थी या इससे भी एक-आध बरस अधिक, तब मैंने एडगर एलन पो का एक कथा संग्रह पढ़ा था; मुझे इतना अच्छा लगा था तब अपनी दुनिया से आगे, साहित्य की दुनिया को जानना कि शायद महीनों तक वो कथा संग्रह मेरे स्कूल बैग में रहा होगा। आगे बहुत सारे लेखक जाने हैं जिनकी किताबें मुझे बेहद पसंद हैं – द एनिमल फार्म, संस्कृति के चार अध्याय, क्या भूलूं क्या याद करूँ, एकांत के सौ वर्ष, डॉन किवक्ज़ोट, द पिक्चर ओफ डोरियन ग्रे, द अल्केमिस्ट वगैरह खूब सारी किताबें हैं। लेखक प्रेमचन्द, चेखोव, विद्यानिवास मिश्र, महादेवी वर्मा, बच्चन, कालिदास, शेक्सपीयर, मोहन राकेश आदि। रामचरित मानस मैंने अपने पूरे बचपन पढ़ा है जैसा कि उत्तर भारतीय परिवारों में शाम की आरती से पहले बेटियाँ पाठ किया करती हैं। लेकिन वो घर का एक संस्कार था।

15. समकालीन साहित्यकार वर्तमान आलोचना और आलोचकों से उतना संतुष्ट नहीं दिखाई देते आपके रचनासंसार को आलोचक किस रूप में देख रहे हैं?

उत्तर : आपने सही कहा कि समकालीन साहित्यकार वर्तमान आलोचना और आलोचकों से उतना संतुष्ट नहीं हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा जैसी योग्यता वाले आलोचक अब नहीं हैं। विश्वविद्यालयों के आचार्य जो आलोचना लिखते हैं, बस उसी को पढ़ने योग्य माना जा सकता है; जो अकादमिक नहीं हैं, उन आलोचकों से मुझे शिकायत है कि बहुत पढ़ते नहीं हैं। एक वाक्या आपको सुनाती हूँ। एक दिन मैंने सोशल मीडिया पर पोस्ट देखी एक चर्चित, युवा आलोचक की जिन्होंने एक किताब के शीर्षक को अपनी बात कहने में कोट किया था और इसके लिये किताब के लेखक को साभार लिखा था; अब आप कहेंगे कि इसमें क्या ग़लत है, किसी की किताब का शीर्षक हम अपनी बात कहने में प्रयोग करेंगे तो साभार तो कहेंगे ही ! बिल्कुल कहेंगे लेकिन तब नहीं जब वह पंक्ति, वह शीर्षक उस लेखक की मौलिक न होकर किसी पुराने, महान कवि की रचना से ली हो । राष्ट्रकवि मैथिलिशरण गुप्त की एक कविता की पंक्ति है -थी, हूँ, और सदैव रहूंगी । ये इतनी प्रसिद्ध कविता है कि आर्चाय रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में इसको उद्द्त किया है । अब अगर कहीं अपनी पोस्ट में इसको कोई चर्चित, पुरस्कृत, युवा आलोचक प्रयोग करता है तो उससे इतनी तो अपेक्षा रखेंगे हम कि उसने राष्ट्रकवि को पढ़ा होगा या कम से कम ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ तो पढ़ा ही होगा । जिसने इतना भी नहीं पढ़ा परंपरा को, उस छोटे भाई को मेरी शुभकामनाएँ ।

जहाँ तक मेरे रचना संसार और आलोचकों की बात है; मेरा तो एक पूरा नाटक ही इस पर है। ‘आचार्य’ में मुख्य प्रतिनायक एक आलोचक ही है । जो नवोदित लेखिका के सामने दंभ भरता है कि वो एक लेख लिख देगा तो उस नवोदिता क करियर ख़त्म हो जायेगा ! जाहिर सी बात है इस बात को अपने जीवन में भी कहीं जाना ही होगा मैंने ।

लेकिन कई एक प्रख्यात आलोचकों ने अपनी लेखनी चलाते समय मेरी रचनाओं को ध्यान में रखा तो मैं आभारी हूँ। करुणाशंकर उपाध्याय, ज्योतिष जोशी, जितेंद्र श्रीवास्तव, अरुण होता जैसे मेन स्ट्रीम के दिग्गज आलोचकों ने मेरी कहानियों, नाटकों, उपन्यासों पर लिखा है।

16. प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय ने आपको २१ वीं सदी की संभावनावान लेखिका कहा है आप इसे किस रूप में देखती हैं।

उत्तर : आभार उनका सबसे पहले तो। जब सम्मान या पुरस्कार जैसे शब्द मिलते हैं तो एक ज़िम्मेदारी मह्सूस होती है कि हमें और अच्छा लिखना है और इस बात को सच साबित करना है जो हमारे बारे में कही या लिखी गयी है।

17. सोशल मीडिया का साहित्य और साहित्यकारों पर प्रभाव को किस रूप देखती हैं?

उत्तर : अपने पर ही बात करूँ तो कहूंगी कि सोशल मीडिया बुरा भी है भला भी। भला यों कि इससे हमारे पढ़ने वाले हमें और अधिक जान पाते हैं; हम उन्हें अधिक जान पाते हैं । उनकी राय, हमारे प्रति उनकी अपेक्षाएँ हम तक आती रहती हैं। नातक नर्तकी जो ‘राई’ नाम से अमेरिका और कनाडा में बरसों से खेला जाता रहा है, उस टीम ने मेरे सोशल मीडिया पेज पर ही मुझसे संपर्क किया था। और जो शोधार्थी मेरे उपन्यासों, कहानियों, नाटकों पर शोध करना चाहते हैं, वे अपने तमाम तरह के प्रश्न सोशल मीडिया से ही तो हम तक पहुँचाते हैं।

पिछले दिनों एक लड़की जो मेरे एक नाटक पर एक रिसर्च पेपर लिख रही थी, उसने बस इतना-सा अनुरोध भेजा कि उस नाटक की मूल पांडुलिपि के चित्र मैं उसे भेज दूं । एक शोधार्थी जो पीएचडी कर रही थी मेरे उपन्यास पर , उसको अपनी लेखिका से ज़रूर यही जानना था कि उपन्यास की नायिका की तरह लेखिका के व्यक्तिगत जीवन में प्रेम था क्या ? और कमाल सुनिये, कि वो न सुनने को तैयार ही नहीं थीं। तो ऐसे मासूम शोधार्थी और पाठक इस आभासी दुनिया में मिलते हैं। कुछ अच्छा साहित्य भी मैं इंटरनेट पर पढ़ती हूँ। हाँ एक बात, कभी जब मन उदास होता है, एकाकी होता है, केवल तब मैं अपनी सोशल का आम मैसेज वाला हिस्सा पढ़ती हूँ; और हज़ारों संदेश प्रशंसा और प्रेम से भरे हुए मुझे ये एहसास करवाते हैं कि अपने जीवन संघर्ष में मुझे कभी भी न रुकना है न उदास होना है ! बुरा यों है ये सब कि समय नष्ट करता है। कभी हम सब भूल कर बस इसके ही हवाले हो जाते हैं। किताब पढ़ लेते उतनी देर; बाद मैं अफसोस होता है ।

18. आने वाले समय में आपके पाठकों को क्या कुछ नया पढ़ने को मिलेगा?

उत्तर : एक नाटक मैंने पूरा किया है अभी; बिल्कुल इन्हीं दिनों में जबकि आपके साथ इस साक्षात्कार का हिस्सा बनना था। यह नाटक पिछले एक साल से लिख रही थी; कई एक बार लिखा; फिलहाल लिखकर रख दिया है। कुछ समय बाद फिर उठाऊंगी इसे; तब एक बार और काम करूँगी इस पर या ऐसा ही फाइनल करके भेज दूंगी। आगे एक उपन्यास है मन में, पता नहीं कब लिखना शुरू करूँगी; अभी तो बस धुँधला-सा कुछ बन रहा है मन में ।

नवोदित लेखिका सोनम तोमर

शोध छात्रा, हिंदी विभाग

दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।

sonamtomarhindi123@gmail.com

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