प्रदर्शन सड़क पर होने चाहिए और बहस संसद में। लेकिन हो उल्टा रहा है प्रदर्शन संसद में हो रहे हैं, बहस सड़क और टीवी न्यूज चैनलों पर। ऐसे में हमारी संसदीय परम्पराएं और उच्च लोकतांत्रिक आदर्श हाशिए पर हैं। राजनीति के मैदान में जुबानी कड़वाहटें अपने चरम पर हैं और मीडिया इसे हवा दे रहा है। सही मायने में भारतीय संसदीय इतिहास के लिए ये काफी बुरे दिन हैं। संसद और विधानसभाएं अगर महत्व खो रही हैं तो हमारे राजनेता भी अपना प्रभाव खो बैठेंगें। बहस के लिए बनी संस्थाओं में नाहक मुद्दों के आधार पर जिस तरह बाधा डाली जा रही है, उससे लगता है कि संसदीय परम्पराओं और मूल्यों की हमारे राजनीतिक दलों को बहुत परवाह नहीं है।
बढ़ती कड़वाहटों ने संवाद का स्तर तो गिराया ही है, आपसी संबंधों पर भी तुषारापात किया है। सत्ता परिवर्तन को सहजता से स्वीकार न करके सत्ता में बने रहने के अभ्यासी दल बेतुकी प्रतिक्रियाएं कर रहे हैं। संसद के अंदर जैसे दृश्य रोज बन रहे हैं और उसके चलते हमारी राजनीति का जो चेहरा बन रहा है, उससे उसके प्रति जनता वितृष्णा और बढ़ेगी। क्या जनता के हित और देशहित अलग-अलग हैं? अगर दोनों एक ही हैं तो जनता को राहत देने वाले कानूनों को तुरंत पास करने के लिए हमारे राजनीतिक दल एक क्यों नहीं है? क्या यह श्रेय की लड़ाई है या फिर जनता की परवाह किसी को नहीं है।
महत्व खोती संसदः इस पूरे विमर्श की सबसे बड़ी चिंता यह है कि संसद और विधानसभाएं महत्व खो रही हैं। उनका चलना मुश्किल है, और उन्हें चलाने की कोशिशें भी नदारद दिखती हैं। सत्ता पक्ष की अपनी अकड़ है तो विपक्ष के दुराग्रह भी साफ दिखते हैं। समाधान निकालने की कोशिशें नहीं दिखती और जनता का हितों को हाशिए लगते देख भी किसी को दर्द नहीं हो रहा है। लोकसभा अध्यक्ष के तमाम प्रयासों के बाद भी संवाद सहज होता नहीं दिख रहा है। अगर संसद में कानून नहीं बनेंगे, संसद में विमर्श न होंगें तो क्या होगा? यह संकट पूरी संसदीय प्रक्रिया और राजनीति के सामने है। राजनीति का क्षेत्र बहुत जिम्मेदारी का है और जिस तरह की राजनीति हो रही है, उसमें इस जिम्मेदारी के भाव का अभाव दिखता है।
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संसदीय प्रक्रिया के इस मर्म को समझा और संसद को उदार लोकतांत्रिक मूल्यों का मंच बनाने के लिए उन्होंने काफी जतन किए। अपने विपक्षी सदस्यों की भावनाओं और उनके तर्कों को उन्होंने अपने खिलाफ होने के बावजूद सराहा। आज उनकी ही पार्टी नाहक सवालों का संसद का समय नष्ट करती हुयी दिखती है। लोकतंत्र की रक्षा और उसके संसदीय परम्पराओं को बचाए, बनाए रखना और निरंतर समृद्ध करना सभी राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है। किंतु राष्ट्रीय दलों को यह जिम्मेदारी ज्यादा है क्योंकि उनके आचरण और व्यवहार की छोटे दल नकल करते हैं। संसद से जो लहर चलती है वह राज्यों तक जाती है। अगर संसद नहीं चलेगी तो उसके परिणाम यह होंगे कि विधानसभाएं भी अखाड़ा बन जाएगीं। संसद दरअसल हमारे एक संपूर्ण भारतीय जनशक्ति की सामूहिक अभिव्यक्ति है। अगर वह बंटी-बंटी दिखेगी तो यह ठीक नहीं। कम से कम जनता के सवालों पर, राष्ट्रीय प्रश्नों पर संसद एक दिखेगी तो इसके दूरगामी शुभ परिणाम दिखेंगे।
सत्ता पक्ष अपनाए लचीला रवैयाः संसद को चलाना दरअसल सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी होती है। सत्ता पक्ष थोड़ा लचीला रवैया अपना कर सबको साथ ले सकता है। लोकतंत्र में हमारे संविधान ने ही सबकी हदें और सरहदें तय कर रखी हैं। मीडिया के उठाए प्रश्नों में उलझने के बजाए हमारे राजनेता संवाद को निरंतर रखने की विधियों पर जोर दें। संसद भारत की संवाद परम्परा का एक अद्भुत मंच है। जहां पूरा देश एक होता हुआ दिखता है। देश के सभी क्षेत्रों के प्रतिनिधि यहां आकर देश की भावना की अभिव्यक्ति करते हैं। इसे ज्यादा जीवंत और सार्थक बनाने की जरूरत है। संसद और संवाद कभी बाधित न हो यह परम्परा ही हमारी संसदीय परम्परा को सम्मानित बनाएगी। संसद को कभी राजनीतिक दलों के निजी हितों का अखाड़ा नहीं बनने देना चाहिए।
नारे बाजी और शोरगुल से न तो समस्याओं का समाधान होता, ना ही ध्यान जाता है। हमारी परंपरा में बहसों का अनंत आकाश रहा है, शास्त्रार्थ हमारी परंपरा में है। इससे निकले निकष ही समाज को अमृतपान करवाते रहे हैं। मंथन चाहे अमृत के लिए हो या विचारों के लिए हमें उसे स्वीकारना ही चाहिए। संसद का कोई भी सत्र बेमानी न हो। जो भी लंबित बिल हों पास हों। जनता के सवालों पर संवाद हो। उनके दुख दूर करने के जतन हों। संसद को रोकना दरअसल इस देश के साथ भी घात है। हमें अपने लोकतंत्र को जीवंत बनाना है तो प्रश्नों से भागने के बजाए उससे टकराना होगा, और समाधान निकालना होगा। आने वाले दिनों में ये कड़वाहटें कैसे धुलें इस पर ध्यान होगा।
प्रबल बहुमत पाकर सत्ता में आई भाजपा अगर आज मुट्ठी भर कांग्रेस सदस्यों के चलते खुद को विवश पा रही है तो यही तो लोकतंत्र की शक्ति है। 47-48 सांसदों ने लोकसभा को बेजार कर रखा है। इसकी विधि भी सत्ता पक्ष को निकालनी होगी कि किस तरह लोकसभा को काम की सभा बनाया जाए। क्या कुछ लोगों की मर्जी के आधार पर कानून बनेंगे। अदालतों में चल रहे मुद्दों पर लोकसभा को रोकना जायज नहीं कहा जा सकता। पर ऐसा हो रहा है और समूचा देश इसे देख रहा है। ऐसे कठिन समय में सत्ता पक्ष को आगे आकर बातचीत की कई धाराएं और कई स्तर खोलने चाहिए ताकि अड़ियल रवैया अपनाने वाले लोग बेनकाब भी हों तथा जनता के सामने सच आ सके।
सांसद भी समझें अपना कर्तव्यः सांसदों के ऊपर देश की बड़ी जिम्मेदारियां हैं। वे संसद में इस देश की जनता के प्रतिनिधि के रूप में हैं। इसलिए राजनीतिक कारणों से जनहित प्रभावित नहीं होना चाहिए। ऐसा कानून जिससे जनता को राहत की जरा भी उम्मीद है तुरंत पास करवाने के लिए सांसदों को दबाव बनाना चाहिए। देश यूं ही नहीं बनता उसे बनाने के लिए हमारे नेताओं ने लगातार संघर्ष किया है। राष्ट्रीय मुद्दों पर पक्ष-विपक्ष की सीमाएं टूट जानी चाहिए। क्योंकि देश हित एक है उस पर हमें एक दिखना भी चाहिए। जिस तरह विदेश नीति के सवालों पर, पाकिस्तान के मुद्दे पर भी हमारे मतभेद प्रकट दिख रहे है, वह हमारी राजनीति के भटकाव को प्रकट करते हैं। हमें इससे बचकर एक राष्ट्र और एक जन की भावना का प्रकटीकरण राजनीति में भी करना होगा। यह देश हम सबका है। इसके संकट और सफलताएं दोनों हमारी है। इसीलिए हमने इसे पुण्यभूमि कहा है। इसके लोगों के आंसू पोंछना, उनके दर्द में साथ खड़े होना हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। ये जिम्मेदारियां हमें निभानी होगीं। ऐसा हम कर पाए तो यह बात भारतीय लोकतंत्र के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगी।
(लेखक राजनीतिक विश्वेषक और मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं)
जब संसद भी बेमानी हो जाए
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